केवल इस आधार पर अभियुक्त को डिफॉल्ट जमानत देने से इनकार नहीं किया जा सकता कि उसने सीआरपीसी की धारा 167 (2) के बजाय धारा 439 के तहत आवदेन दायर किया : दिल्ली हाईकोर्ट
एक ऐतिहासिक फैसले में, दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ऐसे मामले में जमानत दे दी है जिसमें अभियुक्त जमानत देेने व आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 167 (2) के तहत शर्तों का पालन करने के लिए तैयार हो गया था, परंतु उसने अपना जमानत आवेदन सीआरपीसी की धारा 439 के तहत दायर किया था।
अदालत ने कहा कि वर्तमान मामले में, हालांकि अभियुक्त ने सीआरपीसी की धारा 439 के तहत जमानत के लिए अपना आवेदन प्रस्तुत किया था, परंतु उसने 'संकेत' दिया था कि वह सीआरपीसी की धारा 167 (2) के परंतुक (ए) के तहत आवश्यक जमानत प्रस्तुत करने के लिए तैयार है। इसलिए ,''वास्तव में, उक्त शर्त पूरी हो जाती है।''
न्यायमूर्ति विभू बाखरू की पीठ ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कई मौकों पर कहा है कि सीआरपीसी की धारा 167 (2) के प्रोविसो या परंतुक (ए) आंतरिक रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत अधिकार से जुड़े है,जिसके तहत माना गया है कि ''किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित न रखा जाए,सिवाय कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।''
न्यायमूर्ति बाखरू ने कहा कि, ''चूंकि धारा सुरक्षा या बचाव करने का काम करती है, जो किसी अभियुक्त को लंबित जांच के दौरान रोकने की शक्ति को सीमित करती है, इसलिए तकनीकी आधार पर इस पर अंकुश लगाना उचित नहीं होगा।''
मामले के संक्षिप्त तथ्य यह थे कि जमानत आवेदक पर आरोप है कि उसने अपने दो अन्य साथियों के साथ शिकायतकर्ता का मोबाइल फोन लूटा था और उसके पैर में गोली मारी थी और जब शिकायतकर्ता ने उनको पकड़ने की कोशिश की तो यह सभी फरार हो गए थे। इन पर आईपीसी की धारा 457/380/34 के तहत मामला दर्ज किया गया था।
मामले में आरोप पत्र 60 दिनों की अवधि खत्म होने के बाद दायर किया गया था। इस देरी के लिए अभियोजन पक्ष ने COVID19 का हवाला दिया था।
याचिकाकर्ता ने 27 मई 2020 को ट्रायल कोर्ट के समक्ष अपना पहला जमानत आवेदन दायर किया था जिसमें उसने कहा था कि उसे पुलिस स्टेशन अलीपुर में दर्ज दर्ज एफआईआर नंबर 10/2020 से संबंधित एक अन्य मामले में गिरफ्तार किया गया था और उक्त मामले में गलत तरीके से फंसाया गया है। उसने दलील दी थी कि उक्त मामले से उसका कोई लेना-देना नहीं है, फिर भी पुलिस अधिकारियों ने उसे गिरफ्तार कर लिया। उसने स्पष्ट रूप से कहा था कि वह ट्रायल कोर्ट की संतुष्टि के लिए जमानतदार पेश करने के लिए तैयार हैं और जब भी जरूरत होगी कि वह ट्रायल कोर्ट के समक्ष पेश होने के लिए तैयार है। परंतु ट्रायल कोर्ट ने 'आरोपों की गंभीरता' पर विचार करते हुए उसे जमानत देने से इनकार कर दिया था।
याचिकाकर्ता ने अपनी दूसरी जमानत अर्जी 08 जून 2020 को दायर की थी, जिसे ट्रायल कोर्ट ने 08 जून 2020 को ही खारिज कर दिया था। इसके बाद, याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष जमानत याचिका दायर की,जो 17 सितम्बर 2020 के लिए सूचीबद्ध हुई थी,परंतु उसे यह कहते हुए वापिस ले लिया गया कि वह ट्रायल कोर्ट के समक्ष अर्जी दायर करना चाहते हैं क्योंकि इस बीच, 14 सितम्बर 2020 को आरोप पत्र दायर कर दिया गया था।
अदालत ने कहा कि याचिकाकर्ता लगभग ग्यारह महीने से हिरासत में था और उससे कोई रिकवरी नहीं हुई थी। इसके अलावा याचिकाकर्ता का इकबालिया बयान,जिसमें उसने दो साथियों के साथ घटना में शामिल होने की बात कही थी, उसका भी बहुत कम महत्व है क्योंकि शिकायतकर्ता ने नामजद किए गए एक आरोपी की पहचान नहीं की थी।
अदालत ने आगे कहा कि, जांच अधिकारी के अनुसार, जो कार्यवाही में शामिल हुए थे, याचिकाकर्ता मोटरसाइकिल चला रहा था और दो अन्य आरोपी मोटरसाइकिल पर उसके पीछे बैठे थे। याचिकाकर्ता वह अभियुक्त नहीं है, जिसने शिकायतकर्ता को गोली मारी थी। इसके अलावा, मामले में जांच पूरी हो गई है।
राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य(2017) 15 एससीसी 67 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए, न्यायमूर्ति बाखरू ने कहा कि, उस मामले में भी, याचिकाकर्ता ने गुवाहाटी हाईकोर्ट के समक्ष नियमित जमानत के लिए आवेदन किया था परंतु उसने डिफॉल्ट जमानत के लिए कोई विशेष आवेदन दायर नहीं किया था, हालांकि, अदालत ने पाया था कि आरोपी ने मामले की सुनवाई के दौरान इस बात का उल्लेख किया था कि आरोप पत्र दाखिल करने की वैधानिक अवधि समाप्त हो गई थी और उन्होंने इस मुद्दे पर मौखिक रूप से तर्क भी दिए थे। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना था कि याचिकाकर्ता ने डिफॉल्ट जमानत के लिए एक आवेदन किया था, भले ही वह लिखित रूप में नहीं था,परंतु मौखिक रूप से था।
जजमेंट डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें