हिरासत में यातना आधिकारिक कर्तव्य नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट ने सत्र न्यायालय को निर्देश दिया कि पुलिस अधिकारियों के खिलाफ हत्या के आरोप तय करे
बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि हिरासत में यातना के कारण मौत के मामलों में पुलिस अधिकारियों पर मुकदमा चलाने के लिए मंजूरी की आवश्यकता नहीं है और एक विशेष सीबीआई अदालत को 2009 में 23 वर्षीय व्यक्ति की हत्या के आरोप में तीन पुलिस अधिकारियों को आरोपित करने का निर्देश दिया।
जस्टिस पीडी नाइक ने साथ ही सत्र न्यायालय के एक आदेश को रद्द कर दिया है, जिसके तहत सीबीआई की जांच के आधार पर केवल आईपीसी की धारा 323 (चोट) के तहत आरोपों को बरकरार रखा गया था। कोर्ट ने इसके बजाय धारा 120-बी (षड्यंत्र) सहपठित धारा 302 (हत्या), 330 और 342 (गलत ढंग से रोकना) के तहत आरोप तय करने का निर्देश दिया है।
जस्टिस नाइक ने पीड़िता की मां मेहरुन्निसा शेख की ओर से दायर याचिका को स्वीकार करते हुए कहा, “सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं है। लोक सेवक की ओर से हिरासत में रखे गए व्यक्ति पर हमला करने, जिसके कारण उसकी मौत हो गई को आधिकारिक कर्तव्य के निर्वहन में किया गया कार्य नहीं कहा जा सकता है।"
कोर्ट के फैसले के बाद अब तत्कालीन पुलिस सब-इंस्पेक्टर संजय खेडेकर, हेड कांस्टेबल रघुनाथ कोलेकर, पुलिस नायक सयाजी थोंब्रे पर अल्ताफ कादिर शेख की हत्या का आरोप लगाया जाएगा। मृतक को 11 सितंबर, 2009 की आधी रात कथित तौर पर उसके आवास से खींचकर पुलिस स्टेशन ले जाया गया था।
तथ्य
शेख की मां ने याचिका में कहा कि उन्हें बताया गया कि उनके बेटे के सिर पर चोट लगी है और उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया है। जब वह मिलने गई तो उसने अपने बेटे को एक स्ट्रेचर पर बिना बटन वाली शर्ट और अंडरवियर में मृत पाया।
उसके सिर, हाथ, बांह, पीठ, पैर, कान पर चोट के निशान मौजूद थे और खून बह रहा था, लेकिन पंचनामा में कोई ताजा घाव नहीं मिला। जाहिरा तौर पर, शेख को वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने थाने के जांच कक्ष में ही अचेत पाया था और सरकारी अस्पताल पहुंचने पर उसे मृत घोषित कर दिया गया।
यह दावा किया गया कि जेजे अस्पताल, मुंबई के पांच डॉक्टरों द्वारा तैयार की गई पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट परिवार को कभी नहीं सौंपी गई थी। हाईकोर्ट के हस्तक्षेप के बाद ही इस मामले में एफआईआर दर्ज की गई और जांच 2009 में सीबीआई को सौंपी गई थी। आरोपी पुलिसकर्मियों ने आरोप लगाया था कि शेख की मौत ड्रग ओवरडोज के कारण हुई थी।
जेजे अस्पताल के डॉक्टरों के मुताबिक सिर में चोट लगने से मौत हुई है। हालांकि, अंतिम रिपोर्ट के अनुसार, मौत एंग्जाइटी की हैवी दवा और शराब के नशे के कारण हुई थी।
हालांकि, सीबीआई ने आईपीसी की धारा 120-बी, 323 और 342 के तहत अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दायर की। सीबीआई ने बताया कि महाराष्ट्र सरकार ने अभियुक्तों पर किसी अन्य अपराध में मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं दी है।
सीबीआई ने अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली के तीन डॉक्टरों की एक रिपोर्ट भी संलग्न की, जिसमें कहा गया था कि शेख की मौत एंग्जाइटी की दवा, नशा और निमोनिया के एक साथ पड़े प्रभाव के कारण पैदा हुई सांस की समस्या के कारण हुई थी।
2013 में एक मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट ने आरोपी के खिलाफ आईपीसी की धारा 120-बी, 323 और 342 के तहत आरोप तय किए। हालांकि बाद में मजिस्ट्रेट ने मां की ओर से दायर एक विरोध याचिका को स्वीकार कर लिया और मामले को सत्र न्यायालय में भेज दिया।
3 जनवरी, 2018 को सत्र अदालत ने यह देखते हुए मामले को वापस मजिस्ट्रेट की अदालत में भेज दिया कि चार्जशीट में मानवाधिकारों के उल्लंघन का कोई सबूत नहीं है। यह वह आदेश था, जिसे शेख की मां मेहरुन्निसा ने वर्तमान याचिका में चुनौती दी थी।
निष्कर्ष
अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट ने मामले को सत्र न्यायालय में सुपुर्द करते समय कई कारकों को ध्यान में रखा था। इसने मजिस्ट्रेट की इस टिप्पणी को सही ठहराया कि जब प्रथम दृष्टया चरण में दो परस्पर विरोधी मेडिकल रिपोर्टें हों, पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टरों की राय को दूसरी राय पर वरीयता दी जानी चाहिए। सही राय केवल परीक्षण के समय निर्धारित की जा सकती है।
हाईकोर्ट ने कहा कि जेजे अस्पताल द्वारा प्रारंभिक पोस्टमार्टम रिपोर्ट में "अल्प्राजोलम (एंग्जाइटी की दवा) या शराब के सेवन की कोई बात नहीं थी" और एम्स की रिपोर्ट केवल एक दूसरी राय थी।
हाईकोर्ट ने पाया कि यदि रिकॉर्ड सामग्री के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर आ सकता है कि अपराध का होना संभावित परिणाम है, तो आरोप तय करने का मामला मौजूद है।
अदालत ने कहा, "प्रथम दृष्टया यह मजबूत संदेह कि आरोपी ने गंभीर अपराध किया हो सकता है, आरोपी के खिलाफ गंभीर अपराध लागू करने के लिए पर्याप्त होगा।"
अदालत ने परिवार के सदस्यों और पड़ोसियों के बयान पर भरोसा किया, "उक्त बयानों से प्रथम दृष्टया पता चलता है कि उत्तरदाताओं/अभियुक्तों ने मृतक को अपनी हिरासत में लेते समय उसके साथ मारपीट की और उसे ऑटो रिक्शा में खींच लिया और उसे पुलिस स्टेशन ले गए जहां उसे हिरासत में लिया गया था।"
अंत में, हाईकोर्ट ने कहा कि सत्र न्यायालय के लिए बचाव पक्ष के साक्ष्य की सराहना करना गलत था।
एसपी वैथियानाथन बनाम एसके शनमुगनाथन के फैसले पर भरोसा करते हुए अदालत ने कहा कि यह अधिनियम, संहिता या किसी अन्य कानून के तहत कर्तव्य का हिस्सा नहीं है, जो पुलिस को सम्मन के जवाब में पुलिस के सामने पेश होने पर संदिग्ध को पीटने और प्रताड़ित करने की शक्ति प्रदान करता है।
कोर्ट ने अभियुक्तों पर मुकदमा चलाने का निर्देश दिया। साथ ही, निचली अदालत को एक साल के भीतर सुनवाई पूरी करने का भी निर्देश दिया।
केस टाइटल: मेहरुन्निसा कादिर शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य व अन्य।