कोर्ट रिपोर्टिंग- साक्ष्य के मूल्य के संबंध में पत्रकार का क्षणिक प्रभाव भी उसके वैध दायरे से पूरी तरह बाहर हैः बॉम्बे हाईकोर्ट

Update: 2021-08-02 06:45 GMT

बॉम्बे हाईकोर्ट ने पिछले सप्ताह एक महत्वपूर्ण अवलोकन में इस बात पर जोर दिया है कि एक ओपन कोर्ट सिस्टम (खुली अदालत प्रणाली) में निष्पक्ष रिपोर्टिंग को रोका नहीं जा सकता है। हालांकि कोर्ट ने यह भी माना है कि साक्ष्य के मूल्य के संबंध में पत्रकार का क्षणभंगुर/क्षणिक प्रभाव भी पूरी तरह से उसके वैध दायरे से बाहर है।

न्यायमूर्ति जीएस पटेल की खंडपीठ ने विशेष रूप से कहा कि अदालती कार्यवाही की निष्पक्ष रिपोर्टिंग (निर्णय देने से पहले) अदालत के समक्ष पेश साक्ष्य या तर्कों की गुणवत्ता पर टिप्पणियां करने तक विस्तारित नहीं होती है।

कोर्ट ने कहा, ''उनका आकलन करना - उन्हें अच्छा या बुरा बताना - एक रिपोर्टर के काम का हिस्सा नहीं है। यह कोर्ट और केवल एक कोर्ट का काम है।''

कोर्ट के समक्ष मामला

अदालत मुफद्दल बुरहानुद्दीन सैफुद्दीन द्वारा दायर एक अंतरिम आवेदन पर सुनवाई कर रही है, जिसने 'बहुत गंभीर चिंता का मामला' उठाया है।

प्रतिवादी ने आरोप लगाया है कि एक स्पष्ट निर्देश के बावजूद, ताहिर फखरुद्दीन साहेब ने 'द उदयपुर टाइम्स' को पक्षों के बीच चल रहे एक मामले के मुकदमे के रिकॉर्ड उपलब्ध कराए या उन तक पहुंच प्रदान की, हालांकि मुकदमा अभी लंबित है।

मूल रूप से, उदयपुर टाइम्स, इस मामले में जिरह के एक हिस्से की अपनी रिपोर्ट में वैध रूप से अनुमेय सीमा से आगे निकल गया था।

दोनों प्रतिवादी (द उदयपुर टाइम्स और पक्षकार ताहिर फखरुद्दीन साहेब) ने माफी मांगी, अंडरटेकिंग दी और खेद व्यक्त किया, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया। हालांकि कोर्ट ने कुछ अहम टिप्पणियां की।

इससे पहले, उदयपुर के समाचार पत्र, उदयपुर टाइम्स को दाऊदी बोहरा समुदाय से संबंधित मुकदमे की अनुचित रिपोर्टिंग करने के लिए नोटिस जारी करते हुए, बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा था किः

''एक सामान्य नियम के रूप में, चल रहे ट्रायल के पुनरुत्पादन की अनुमति नहीं है और प्रत्येक पत्रकार यह जानता है या उससे यह जानने की अपेक्षा की जाती है।''

कोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियां

शुरुआत में, कोर्ट ने नोट किया कि एक रिपोर्टर या कमेंटेटर, चाहे पत्रकार, स्तंभकार, या एक आम व्यक्ति, निश्चित रूप से परिणामी निर्णय की आलोचनात्मक जांच करने का हकदार है और वह उस निर्णय की आलोचना या आलोचना करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है, यहां तक कि इस संदर्भ में वह उग्र, कठोर और निर्भीक भी हो सकता है।

हालांकि, आगे कहा गया है कि किसी भी रिपोर्टर - या किसी अन्य टिप्पणीकार को सार्वजनिक विचार बनाने के लिए साक्ष्य की गुणवत्ता पर अपनी राय नहीं देनी चाहिए, अर्थात फैसला सुनाए जाने से पहले इसके प्रमाणिक मूल्य पर।

न्यायालय ने यह भी नोट किया कि न्यायालय के समक्ष साक्ष्य या तर्कों की गुणवत्ता का आकलन करना एक बहुत ही तकनीकी कार्य है, जिसमें ''तय किए गए मुद्दों' की बारीकी से समझ होनी चाहिए और इसके लिए विशेष शिक्षा, प्रशिक्षण और अनुभव की एक डिग्री की आवश्यकता होती है।

इसके अलावा, न्यायालय ने कहा किः

''एक पत्रकार के लिए यह कहना पूरी तरह से स्वीकार्य है कि मामले में किसी पहलू पर नामित वकील द्वारा एक निश्चित गवाह से जिरह की गई थी। मैं यह सुझाव देने का साहस भी करूंगा कि किसी विशेष प्रश्न और उत्तर को नोट करना भी स्वीकार्य हो सकता है, या कम से कम आपत्तिजनक नहीं है। लेकिन सीमा तब पार हो जाती है जब इस तरह के पुनरुत्पादन के साथ गुण-दोष के आधार पर एक प्रभावी निर्णय होता है। एक ऐसा बयान,जिसके आशय का आकलन न्यायालय के समक्ष अभी तक लंबित एक मामले में जिरह के प्रमाणिक मूल्य और भार के आधार पर किया जाना है, उदाहरण के लिए, यह सुझाव देकर कि जिरह का कुछ हिस्सा दोहराव या अप्रभावी या व्यर्थ है। यह एक ऐसा आकलन है जो कोई कोर्ट रिपोर्टर नहीं कर सकता है।''

गौरतलब है कि कोर्ट ने यह भी कहा किः

''अभी तक तय न किए गए सबूतों का संपादकीयकरण, जब सार्वजनिक कर दिया जाता है तो यह निर्णय लेने की प्रक्रिया को सीधे प्रभावित करता है और, इससे भी महत्वपूर्ण बात, निर्णय लेने की प्रक्रिया में आवश्यक तटस्थता की धारणा को धूमिल करता है। यह ऐसे समय में एक पूर्व निष्कर्ष प्रस्तुत करता है जब कोई निष्कर्ष नहीं निकाला गया है या अंतिम मध्यस्थ, स्वयं न्यायालय द्वारा वैध रूप से निकाला जा सकता है। जब वह कहता है कि जिरह की एक विशेष पंक्ति अप्रभावी या उद्देश्यहीन थी, तो एक पत्रकार सचमुच साक्ष्य के गुण के आधार पर फैसला कर रहा है। लेकिन फैसला अभी तक कोई नहीं जानता है। जज भी नहीं। वह अभी तक यह आकलन करने से भी दूर है कि कोई विशेष साक्ष्य महत्वपूर्ण है या नहीं। एक बार जब सभी साक्ष्य पेश कर दिए जाते हैं, तो उन्हें मिला दिया जाता है और प्रस्तुत किया जाता है और फिर सबूतों का सही मूल्यांकन क्या होना चाहिए, इस पर दलीलें दी जाती हैं और उसके बाद ही, सबूतों का आकलन होता है।''

अंत में, बेंच ने कहा कि प्रेस और अदालतों को, अपनी-अपनी भूमिका निभाते हुए, एक-दूसरे के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों का सम्मान करना चाहिए और इसके लिए हमेशा सावधान रहना चाहिए कि वह विभाजन की रेखा को पार न करें।

न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि,''यदि अदालतों को प्रेस को चुप करना या प्रतिबंधित नहीं कराना चाहिए, तो समान रूप से, प्रेस को एक ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करने के बारे में यथोचित चौकस होना चाहिए जो विशेष रूप से एक अदालत के संरक्षण में है।''

केस का शीर्षक-मुफद्दल बुरहानुद्दीन सैफुद्दीन बनाम ताहिर फखरुद्दीन साहेब

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