सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस कुरियन जोसेफ ने, लाइवलॉ की ओर से आयोजित वेबिनार, जिसका विषय था, "न्यायालय और संवैधानिक मूल्य", में कहा है कि, "न्यायाधीशों को संविधान की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया है, अन्य किसी कार्य के लिए नहीं। हम कभी-कभी विफल हो जाते हैं क्योंकि हम संवैधानिक स्तर पर वस्तुनिष्ठ के बजाय व्यक्तिनिष्ठ स्तर पर संवैधानिक हो जाते हैं।"
वेबिनार में जस्टिस कुरियन जोसेफ के अलावा, सुप्रीम कोर्ट की सीनियर एडवोकेट मीनाक्षी अरोड़ा और दिनेश द्विवेदी भी मौजूद थे। संचालन एडवोकेट अवनी बंसल ने किया।
बंसल ने जस्टिस जोसेफ से "संवैधानिक मूल्यों" के अर्थ के बारे में पूछकर वेबिनार की शुरुआत की और पूछा कि, क्या सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक मूल्यों के सिद्धांतों को समान रूप से लागू किया है?
जस्टिस जोसेफ ने यह कहते हुए जवाब दिया कि "संवैधानिक नैतिकता" शब्द का उपयोग पहले सुप्रीम कोर्ट ने नहीं किया था, बल्कि डॉ बीआर अंबेडकर ने पहली बार इसका इसका इस्तेमाल किया था। यह शब्द पिछले कुछ वर्षों में दिए गए फैसलों के कारण प्रचलन में है, जिनमें इनका उपयोग किया गया है, जैसे कि पुत्तुस्वामी मामले और सबरीमाला मामले में।
"हमारे पवित्र मूल्यों की कौन सुरक्षित रखता है? यह अभिभावक का कर्तव्य है और हमारा अभिभावक सुप्रीम कोर्ट है। हमारा भी उक कर्तव्य है और हमारा कर्तव्य संविधान का पालन करना है।"
जस्टिस जोसेफ ने भारत में प्रचलित धर्मनिरपेक्षता की विशेषता को विस्तार से बताया।
"हमारे देश में धर्मनिरपेक्षता की क्या विशेष है? भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। इसका कोई राज्य धर्म नहीं है, हालांकि यह सभी धर्मों को स्वीकार करता है। यह हमारे धर्मनिरपेक्षता की सुंदरता है। अनुच्छेद 25 विशेष रूप से धर्म की स्वतंत्रता नहीं कहता है, यह 'अंतरात्मा' कहता है। यह हमारे देश के लिए अद्वितीय है। हम अमल कर सकते हैं, आस्था का प्रदर्शन कर सकते हैं और प्रचार कर सकते हैं। धार्मिक सहिष्णुता और स्वीकार्यता भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है। यह किसी की भिक्षा नहीं है।"
जस्टिस जोसेफ ने इस सवाल के जवाब में कि क्या भारत ने अपने प्रमुख संवैधानिक मूल्यों को महसूस किया है, कहा कि, न्यायाधीशों की ओर से से आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है, जिन्हें देश के नागरिकों के हितों की रक्षा और उन्हें बढ़ावा देने के लिए अभिभावक के रूप में नामित किया गया है।
उन्होंने कहा, "अदालत हमेशा बहुमत विरोधी रही है, क्योंकि अदालत का पहला कर्तव्य संवैधानिक मूल्यों की रक्षा करना है। एक जज की नियुक्ति संवैधानिक मूल्यों के प्रति निष्ठावान रहने के लिए की जाती है। उन्हें अपनी व्यक्तिगत निष्ठा को अलग करना होगा और इस प्रकार वे बहुमत विरोधी बन पाएंगे।"
जस्टिस जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक मूल्य, बहुमत की राय के समान नहीं हैं।
"सामाजिक मूल्य संवैधानिक मूल्यों से अलग हैं। सामाजिक मूल्य बहुमत की राय के साथ खड़े हो सकते हैं, लेकिन अदालतें कभी इससे प्रभावित नहीं होतीं, क्योंकि उनका कर्तव्य संविधान को बरकरार रखना है। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री केवल संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं, वे इसे बरकरार नहीं रखते हैं। यह न्यायालय है, जिसने इसे बरकरार रखा है, और इसके प्रति सच्ची आस्था और निष्ठा रखी है।"
संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण के लिए संस्थानों के महत्व पर जस्टिस जोसेफ ने ने कहा कि विश्वसनीय संस्थानों की आवश्यकता है और उन्हें वही लोग संरक्षित कर सकते हैं, जो न्यायालयों में बैठते हैं। लेकिन, मुद्दा बहुमत विरोधी स्वरों के अभाव का है।
"जिस समय आप बहुमत विरोधी सुनाई पड़ते हैं, आपको हंगामाखेज के रूप में ब्रांड कर दिया जाता है। हमें ऐसे जजों की आवश्यकता हैं, जिनमें पास संवैधानिक आवाज रखने के लिए रीढ़ हों।"
जस्टिस जोसेफ ने कहा कि संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता कम हो गई है, क्योंकि इन पदों पर बैठैं व्यक्तियों के पास संविधान की रक्षा के लिए "रीढ़" नहीं है।
जस्टिस जोसेफ ने अंत में कहा, "यदि आपके पास उचित सिस्टम और उचित प्रैक्टिस हैं, तो तो कोई भी निरंकुश सरकार, किसी भी बहुमत का शोर एक संवैधानिक संस्था को छू नहीं सकता है।"
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