सेक्शन 138, एनआई एक्ट के तहत अपराध में मजिस्ट्रेट के संज्ञान का परिणाम चेक अनादर के लिए सिविल मुकदमे में स्वचालित रूप से डिक्री नहीं होगाः दिल्ली हाईकोर्ट

Update: 2021-08-04 11:18 GMT

Delhi High Court

दिल्ली हाईकोर्ट ने माना है कि यदि मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट, 1881 के सेक्शन 138 के तहत अपराध का संज्ञान लेता है तो ऐसा नहीं है कि रिस्पांडेंट/‌डिफेंडेंट के खिलाफ एक डिक्री अपने आप लागू हो जाएगी।

कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया कि सेक्शन 138 एनआई एक्ट की कार्यवाही में मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान स्वतः ही चेक आधारित सिविल सूट में एक डिक्री पारित करने की ओर जाना चाहिए।

याचिकाकर्ता की दलील को खारिज करते हुए, जस्टिस आशा मेनन ने कहा कि संज्ञान से ऐसा मुकदमा भी चलाया जाता है, जहां आरोपी बरी हो सकता है।

तथ्यात्मक मैट्रिक्स

याचिकाकर्ता ने नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXXVII के तहत वसूली के लिए एक समरी सूट दायर किया था। समरी सूट कार्यवाही में प्रतिवादी को बचाव के लिए बिना शर्त अनुमति देने के निचली अदालत के आदेश से वह व्यथित था।

याचिकाकर्ता के वकील, एडवोकेट विवेक कुमार टंडन ने तर्क दिया कि चेक के अनादर के लिए एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत कार्यवाही अभी भी लंबित है। मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के एक आदेश का हवाला देते हुए, यह आग्रह किया गया कि धारा 251 CrPC के तहत संज्ञान लिया गया था और नोटिस दी गई थी, रिस्पांडेंट/‌डिफेंडेंट के खिलाफ एक अनुमान लगाया जाना था, और मुकदमा आदेश XXXVII CPC के आदेश के तहत ड‌िक्री किया जाना चाहिए था।

दूसरी ओर, प्रतिवादी के वकील, एडवोकेट संचित गर्ग ने बचाव के लिए अनुमति का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि मुकदमा गलत तथ्यों से भरा था।

जांच - परिणाम

तत्काल मामले में कोर्ट के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या प्रतिवादियों को बचाव के लिए अनुमति दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता और प्रतिवादी के बीच बैंक हस्तांतरण के माध्यम से ऋण लेनदेन हुआ था। प्रतिवादी कुछ समय से ब्याज का भुगतान कर रहा था, जिसके बाद उसने ‌डिफाल्ट कर दिया। यह तथ्य वादपत्र में परिलक्षित होता है, जो कुछ व्यापारिक लेन-देनों के अस्तित्व को दर्शाता है।

कोर्ट ने कहा, "हालांकि याचिकाकर्ता/वादी ने अब दावा किया है कि वे ऋण लेनदेन कुछ और थे, यह ट्रायल के दरमियान देखा जाने वाला मामला होगा। जब रिस्पांडेंट/ ‌डिफेंडेंट ने याचिकाकर्ता/ वादी के दावे को चुनौती दी कि उसने उनके कानूनी सलाहकार के रूप में काम किया है और इसलिए, दिया गया इनवाइस फीस के लिए था, इस तथ्य को भी साबित करना होगा। वास्तव में, बचाव की अनुमति के लिए आवेदन में, रिस्पांडेंट/ ‌डिफेंडेंट ने कहा ‌है कि याचिकाकर्ता / वादी ने दावा किया था वह रिस्पांडेंट/ ‌डिफेंडेंट को वर्ष 2000 से कानूनी सहायता प्रदान कर रहा था, फिर भी इनवाइस केवल दिसंबर 2018 में जारी किया गया था, और इसलिए, इनवाइस में जुटाई गई राशि भी टाइम-बार्ड होगी।"

कोर्ट ने वकील के इस तर्क को खारिज कर दिया कि संज्ञान लेने पर प्रतिवादी के खिलाफ डिक्री स्वत: लागू हो जाएगी। हालांकि, यह नोट किया गया कि यह परीक्षण का विषय है कि याचिकाकर्ता के प्रति प्रतिवादी की देनदारी क्या थी और याचिकाकर्ता द्वारा प्रदान किए गए लेनदेन या सेवा के लिए देनदारी क्या थी, जो कि एक ऋणदाता या कानूनी सलाहकार के रूप में सूट एमाउंट का हकदार होगा।

ट्रायल कोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि लिया गया बचाव शानदार नहीं था और विचारणीय मुद्दों का खुलासा किया, जिनकी जांच की आवश्यकता है। इसलिए, याचिकाकर्ता द्वारा अलग-अलग कार्यवाही में उठाए गए इन अलग-अलग स्टैंडों के आलोक में बचाव की अनुमति दी जानी थी।

हाईकोर्ट ने कहा, "याचिकाकर्ता/ वादी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा किए गए निवेदनों के संबंध में, कि, एनआई एक्ट की धारा 138 के तहत विद्वान एमएम द्वारा अपराध का संज्ञान लेने पर रिस्पांडेंट/ ‌डिफेंडेंट के खिलाफ स्वतः ही एक डिक्री का पालन किया जाना चाहिए, स्वीकार नहीं किया जा सकता है, क्योंकि संज्ञान से चले मुकदमा में आरोपी बरी भी हो सकते हैं।"

टाइटिल: सर्वेश बिसारिया बनाम आनंद निरोग धाम अस्पताल प्रा लिमिटेड और अन्‍य।

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