रक्षक के भक्षक बनने का स्पष्ट मामला: केरल हाईकोर्ट ने अवशिष्ट संदेह का हवाला देते हुए बेटी से छेड़छाड़ के दोषी पिता की सजा कम की

Update: 2021-09-10 12:13 GMT

केरल हाईकोर्ट

केरल उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक शख्स को धारा 376 और 377 IPC की आजीवन कारावास की सजा को घटाकर धारा 377 के तहत 10 साल के कारावास बदल दिया। शख्स ने अपनी बेटी पर यौन हमला किया था। अदालत ने सजा को घटाने का फैसला 'अवशिष्ट संदेह की अवधारणा' का हवाला देकर किया।'।

जस्टिस के विनोद चंद्रन और ज‌स्टिस ज़ियाद रहमान एए की खंडपीठ ने दोषसिद्धि के खिलाफ शख्स की अपील को आंशिक रूप से अनुमति देते हुए कहा, " मामले में यौन छेड़छाड़ का सबूत है, लेकिन उस गंभीरता और आवृत्ति के साथ नहीं है, जैसा कि शिकायतकर्ता ने बताया है। परिवार का भी अलग बयान है और इस बात के ठोस कारण हैं कि शिकायतकर्ता ने परिवार को पहली घटना के बाद सूचित किया था और परिवार ने अपना निवास स्थानांतरित कर लिया। ये पहलू अवशिष्ट संदेह को जन्म देते हैं ...। "

हालांकि, इसने अपीलकर्ता को उसके कुकृत्य के लिए फटकार लगाई। "मौजूदा मामले में, पीड़िता एक युवा लड़की है और आरोपी उसका पिता है, जो स्पष्ट रूप से रक्षक के भक्षक बनने का मामला है।"

अपीलकर्ता ने अभियोजन पक्ष के मामले में विसंगतियों का आरोप लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाया और निचली अदालत द्वारा तय की गई दोषसिद्धि को वापस लेने की प्रार्थना की थी।

पीड़िता ने शुरू में अपने पिता द्वारा डिजिटल पेनेट्रेशन की शिकायत की थी, जिसे बाद में पेनाइल पेनेटेशन के पूरक के रूप में देखा गया। रिकॉर्ड पर मौजूद सभी सबूतों को देखने पर, कोर्ट ने पाया कि पेनाइल पेनेट्रेशन का आरोप बाद का विचार था और बढ़ाचढ़ाकर दिया गया बयान था, जिससे अपीलकर्ता की सजा कम हो गई।

पृष्ठभूमि

पीड़िता एक स्कूल जाने वाली लड़की थी जो अपने पांच भाई-बहनों के साथ रहती थी। उसने आरोप लगाया कि साल 2012 में उसके पिता ने बार-बार उसके साथ दुष्कर्म किया। उसने कहा कि ज्यादातर दिन उसके पिता शराब के नशे में घर आते थे और उसका यौन शोषण करते थे। यह भी प्रस्तुत किया गया कि उसने अपने पिता द्वारा दी गई आत्महत्या की धमकी के कारण पहले अपनी पीड़ा का खुलासा नहीं किया था।

उसके मुताबिक, उसने अपनी मां से छेड़छाड़ के बारे में बात की थी, जिसे गंभीरता से नहीं लिया गया। यह बयान प्राथमिकी दर्ज करने में हो रही देरी को सही ठहराने के लिए पेश किया गया था। जब वाकया बार-बार होने लगे तो शिकायतकर्ता ने कथित तौर पर अपनी बड़ी बहन को इसकी सूचना दी, जिसने शादी हो चुकी थी। अंतिम घटना के बाद उसे उसकी बहन के ससुराल ले जाया गया।

चूंकि वह अपनी बहन के ससुराल में थी, इसलिए वह उक्त अवधि के लिए स्कूल नहीं जा सकी। प्रधानाध्यापक ने नवंबर 2012 से उसकी अनुपस्थिति को देखते हुए उसका नाम सूची से हटा दिया। हालांकि, फरवरी 2013 में, वह वापस स्कूल आई और उसी के अनुसार उसे फिर से पढ़ाया गया।

जब उनसे लंबे समय तक अनुपस्थित रहने का कारण पूछा गया, तो उन्होंने प्रधानाध्यापक को सूचित किया कि उनके पिता द्वारा उन्हें प्रताड़ित किया गया था और इसलिए उन्हें उनके माता-पिता के निवास से अपनी बहन के वैवाहिक घर में स्थानांतरित कर दिया गया था।

स्वीकारोक्ति से हैरान स्कूल अधिकारियों ने तुरंत घटना की सूचना चाइल्ड लाइन को दी, जो जांच के लिए स्कूल पहुंची थी। प्रारंभ में, श‌िकायतकर्ता के के पास पेनाइल पेनेट्रेशन का कोई मामला नहीं था। हालांकि, बाद में, उत्पीड़न को वेजिनल डिजिटल एक्सप्लोरेशन और पेनाइल पेनेट्रेशन बताया गया।

मेडिकल जांच के निष्कर्ष यह थे कि कोई सामान्य या जननांग चोट नहीं थी, लेकिन हाइमन में फटा था, और टू-फिंगर टेस्ट पास कर लिया। डॉक्टर ने कहा कि हाल ही में यौन उत्पीड़न का कोई सबूत नहीं था, लेकिन प्रवेश के संकेत मौजूद थे।

आपत्तियां

अपीलकर्ता की ओर से अधिवक्ता लवराज एमजी पेश हुए और प्रस्तुत किया कि पीड़ित के पास एक सुसंगत मामला नहीं है और यह आरोपों के झूठ को प्रकट करता है। आगे यह भी बताया गया कि पीड़िता की मां और भाई मुकर गए थे।

यह भी तर्क दिया गया कि अपराध के पंजीकरण में काफी देरी हुई है। मामले में संतोष प्रसाद बनाम बिहार राज्य, (2020) 3 एससीसी 443 पर भरोसा किया गया। दलील यह दी गई कि अभियोजन की ओर से पेश सामग्री में विरोधाभास हैं और प्राथमिकी दर्ज कराने में विलंब हुआ है।

विशेष सरकारी वकील (महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अत्याचार) अंबिका देवी ने अदालत को ऐसे भ्रष्ट लोगों के प्रति किसी भी तरह की दया दिखाने से आगाह किया, जो अपने बच्चों पर अपनी कामुक नजर रखते हैं। उन्होंने यह भी बताया कि विधायिका ने ऐसे अपराधों में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए विभिन्न यौन कृत्यों को बलात्कार की परिभाषा के तहत लेकर आई और सजा को काफी हद तक बढ़ाने के लिए व्यापक संशोधन किए गए हैं।

पीड़िता की मां द्वारा उसकी शिकायत ना सुनने को सही ठहराते हुए बताया गया कि वह सिर्फ पिता की रक्षा कर रही थी। कोर्ट का ध्यान इस बात की ओर भी आकृष्ट किया गया कि बेटी द्वारा दिए गए एफआईएस पर मां ने हस्ताक्षर किए थे।

जांच

रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्रियों पर विचार करने पर, न्यायालय ने पाया कि कुछ पहलुओं पर आधारित साक्ष्य को असंगत कहा जा सकता है। "आरोपों की प्रकृति और पक्षों के बीच संबंधों को ध्यान में रखते हुए इस न्यायालय को यह पता लगाने के लिए सबूतों की सावधानीपूर्वक जांच करनी होगी कि क्या विसंगतियां इतनी स्थूल हैं कि अभियोजन पक्ष की विश्वसनीयता पर संदेह कर सकती हैं और यौन उत्पीड़न के विशिष्ट आरोप पर उस पर अविश्वास कर सकती हैं।"

हालांकि, इसने अपीलकर्ता के कृत्य और देश भर में हो रही इसी तरह की घटनाओं की निंदा की। "रखवाला ही शिकारी बन जाता है, माननीय सुप्रीम कोर्ट ने हिमाचल प्रदेश राज्य बनाम आशा राम [(2005) 13 एससीसी 766] में अपने ही अभिभावकों द्वारा बच्चों पर बलात्कार के उदाहरणों का वर्णन इस प्रकार किया है ।"

फिर भी, जब पिता के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया जाता है, तो अदालत यह देखने में विफल रही कि अपराधी के आत्महत्या करने के डर से पेनाइल पेनेट्रेशन क्यों छिपाया गया था। इस आधार पर, कई अन्य विसंगतियों पर विचार करते हुए, अदालत को लिंग के प्रवेश के आरोप को एक बढ़ाचढ़ाकर लगाए गए आरोप के रूप में समझने के लिए मजबूर किया गया था, जिसके बारे में कहा गया था कि इसे आरोपी के खिलाफ नहीं माना जा सकता है और उस पर IPC की धारा 376 के तहत बलात्कार के अपराध का आरोप नहीं लगाया जा सकता है।

डिजिटल पेनेट्रेशन के सवाल पर, हालांकि शिकायतकर्ता की मां और भाई मुकर गए थे, लेकिन यह माना गया कि इससे अन्य गवाहों के पूरे सबूत को खारिज नहीं किया जाएगा। इसलिए, यह माना गया कि पेनाइल पेनेट्रेशन एक विचार और बढ़ाचढ़कर कही बात है, लेकिन डिजिटल पेनेट्रेशन के संबंध में साक्ष्य बहुत स्पष्ट थे।

अवशिष्ट संदेह का सिद्धांत

अशोक देबबर्मा बनाम त्रिपुरा राज्य, (2014) 4 एससीसी 74 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का जिक्र करते हुए कोर्ट ने पाया कि मामला उसके दिमाग में एक 'अवशिष्ट संदेह' पैदा करता है। उक्त मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 'अवशिष्ट संदेह' को 'उचित संदेह से परे' और 'पूर्ण निश्चितता' के बीच कहीं मौजूद मन की स्थिति के रूप में समझाया था।

"जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, यौन उत्पीड़न का सबूत है, लेकिन गंभीरता और आवृत्ति के साथ नहीं जैसा कि अभियोक्ता द्वारा कहा गया है। ये पहलू माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बताए गए अवशिष्ट संदेह को जन्म देते हैं और इसलिए हम मजबूर हैं कि सजा को संशोधित करें।"

अवशिष्ट संदेह एक शमन करने वाली परिस्थिति है। निचली अदालत ने IPC की धारा 376 और 377 के तहत आजीवन कारावास की अलग-अलग सजा और अपीलकर्ता पर डिफ़ॉल्ट सजा के साथ 25000/- रुपये का जुर्माना लगाया था।

हाईकोर्ट ने डिफॉल्ट सजा के साथ निचली अदालत द्वारा लगाए गए जुर्माने को बरकरार रखते हुए IPC की धारा 377 के तहत सजा को संशोधित कर 10 साल कर दिया है। IPC की धारा 376 के तहत दोषसिद्धि और सजा को उलट दिया गया है।

केस शीर्षक: नारायणन बनाम केरल राज्य और अन्य

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