'कम से कम पैसा सरकार के पास आएगा': सुप्रीम कोर्ट ने उड़ीसा खनिज विकास निगम को अयस्कों के निस्तारण की अनुमति दी

Update: 2022-04-08 10:46 GMT

सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उड़ीसा मिनरल्स डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड को ओडिशा में खदानों से लौह अयस्क को निस्तारित करने की अनुमति दी।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनवी रमाना, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ उड़ीसा मिनरल्स डेवलपमेंट कंपनी लिमिटेड (बेलकुंडी आयरन ओर माइन एंड बगाइबुरु आयरन माइन्स के संबंध में) की ओर से दायर आवेदनों पर विचार कर रही थी, जिसमें अनिस्तारित पड़ी खनन सामग्री के निस्तारण की मांग की गई थी। आवेदन एनजीओ कॉमन कॉज की ओर से 2014 में दायर एक जनहित याचिका में दायर किए गए थे।

याचिकाकर्ता की ओर से पेश एडवोकेट प्रशांत भूषण ने प्रस्तुत किया कि निजी कंपनियों और राज्य निगमों द्वारा साइट पर पड़ी सामग्री को बेचने की अनुमति के लिए कई आवेदन दायर किए गए हैं, और अदालत केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) जैसे किसी निकाय से यह जांचने के लिए कह सकती है कि क्या जो सामग्री अनिस्तारित पड़ी है, उसका कानूनी रूप से खनन किया गया था या नहीं।

श्री भूषण के बयान कि यह संभव है कि सामग्री का अवैध रूप से खनन किया गया था, पर प्रतिक्रिया देते हुए बेंच ने कहा कि जिस कंपनी को संदर्भित किया जा रहा है वह एक सरकारी कंपनी है। भूषण ने अदालत को सूचित किया कि अवैध खनन करने के लिए सरकारी कंपनियों पर भी भारी जुर्माना लगाया गया था।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने स्पष्ट किया कि खनन के संबंध में मुआवजे का भुगतान किया गया था, जिसे अनधिकृत माना गया था। श्री भूषण ने कहा, "खनन बंद करने और आदेश पारित करने का कारण यह था कि खनन पूरी तरह से कानूनों के उल्लंघन और पर्यावरण मंजूरी के बिना किया गया था।"

सीजेआई ने कहा, "हमने निजी पार्टियों को अनुमति दी है, सरकारी संगठनों को रोकना अच्छा नहीं लगता। कम से कम यहां, पैसा सरकार के पास आएगा।"

श्री भूषण ने तब सहमति व्यक्त की और प्रस्तुत किया कि अदालत सरकारी कंपनियों को सामग्री के निपटान की अनुमति दे सकती है। इसलिए पीठ ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की प्रस्तुतियों पर विचार करने के बाद ओएमडीसी के आवेदन को स्वीकार कर लिया, जिन्होंने प्रस्तुत किया कि अदालत कंपनी को खनन फिर से शुरू करने की अनुमति पहले दे चुकी थी और राज्य को इस पर कोई आपत्ति नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में वर्तमान जनहित याचिका में उड़ीसा में खनन कार्यों को निलंबित कर दिया था। कर्नाटक और गोवा राज्य में अवैध खनन कार्यों के खिलाफ कोर्ट ने आदेश पा‌रित किया था, जिसके बाद ऐसे आदेश सामने आए थे।

अदालत ने तब से कई आवेदनों पर सुनवाई की है और खनन कार्यों को फिर से शुरू करने, पहले से खनन सामग्री की बिक्री आदि की मांग करने वाले खनन ऑपरेटरों और पट्टा मालिकों के संबंध में आदेश पारित किए हैं।

अदालत ने 6 जनवरी 2020 को भोलबेड़ा लौह अयस्क खदान की सामग्री बेचने संबंधी एक खनन पट्टा धारक की ओर से दायर आवेदन पर सुनवाई करते हुए जस्टिस बिजॉय कृष्ण पटेल, अध्यक्ष, ओडिशा मानवाधिकार आयोग और जस्टिस एससी पारिजा, पूर्व जज, उड़िसा हाईकोर्ट को ऐसी सामग्री की बिक्री की निगरानी के लिए समिति के सदस्य के रूप में नियुक्त किया था।

समिति की देखरेख में और ओडिशा राज्य के संबंधित अधिकारियों की सहायता से, आवेदकों को पहले से खनन की गई सामग्री को बेचने और हटाने की अनुमति दी गई थी और समिति को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया गया था कि अदालत के आदेश की आड़ में कोई खनन कार्य नहीं किया जाता है।

यह निर्देश दिया गया कि बिक्री से प्राप्त राशि सीधे राज्य सरकार के खजाने में जाएगी जिसे मुआवजे के रूप में समायोजित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश 11 अगस्त 2020 के माध्यम से उड़ीसा मिनरल्स डेवलपमेंट कंपनी को कानून के अनुसार आवश्यक सभी आवश्यक मंजूरी के अधीन खनन कार्यों को फिर से शुरू करने की अनुमति दी थी।

उड़ीसा राज्य के सक्षम अधिकारियों को निस्तारित स्टॉक का संयुक्त सत्यापन करने और उचित प्रक्रिया का पालन करते हुए ओएमडीसी द्वारा उसकी बिक्री की अनुमति देने का निर्देश दिया गया था।

पृष्ठभूमि

मौजूदा जनहित याचिका एनजीओ कॉमन कॉज ने 2014 में ओडिशा राज्य में "मूल्यवान प्राकृतिक संसाधनों की लूट" के खिलाफ पर्यावरणीय मानदंडों और कमजोर आदिवासी और ग्रामीण समुदायों के अधिकारों की पूर्ण अवहेलना के खिलाफ दायर की गई थी।

याचिका जस्टिस एम बी शाह जांच आयोग पर निर्भर थी, जिसने ओडिशा में दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति पर तीखी रिपोर्ट दी थी, जिसमें इसकी सिफारिशों के तत्काल अनुपालन का आह्वान किया गया था।

जब 21.04.2014 को सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका पर सुनवाई हुई तो कोर्ट ने प्रथम दृष्टया पाया कि कई खनन पट्टेदार पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 और वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 के तहत मंजूरी और सरकार द्वारा नवीनीकरण के बिना काम कर रहे थे।

चूंकि न्यायालय ने पाया था कि पट्टेदारों के संबंध में एक अंतरिम आदेश पारित करने की आवश्यकता है, जो कानून का उल्लंघन कर पट्टों का संचालन कर रहे हैं। कोर्ट ने केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (सीईसी) को ऐसे पट्टेदारों की सूची बनाने का निर्देश दिया था, जो कानून का उल्लंघन कर पट्टों का संचालन कर रहे हैं, और पार्टियों को सीईसी के समक्ष अपने कागजात पेश करने की स्वतंत्रता दी और यह भी निर्देश दिया कि ओडिशा राज्य और यूनियन ऑफ इंडिया सूची तैयार करने के लिए सीईसी के साथ सहयोग करेंगे।

केस टाइटल: कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एंड अन्य। 

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