अनुच्छेद 311(2) | दोषसिद्धि से सरकारी सेवा से स्वत: बर्खास्तगी नहीं होती, विवेक का प्रयोग जरूरी: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2023-10-03 08:23 GMT

Allahabad High Court 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में दोहराया कि संविधान के अनुच्छेद 311(2)(ए) के तहत सेवा से बर्खास्तगी के लिए, प्राधिकारी को उस आचरण को देखना चाहिए जिसके कारण आपराधिक आरोप में सजा हुई। यह माना गया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 311(2)(ए) के तहत केवल दोषसिद्धि के आधार पर बर्खास्तगी का यांत्रिक आदेश पारित नहीं किया जा सकता है।

जस्टिस नीरज तिवारी ने कहा,

“अब यह मुद्दा कोई रेस इंटेग्रा नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने तुलसीराम पटेल (सुप्रा) के फैसले से लेकर कई अन्य फैसलों में इस मुद्दे पर बार-बार विचार किया है और माना है कि किसी कर्मचारी को दोषी ठहराए जाने के बाद भी, निष्कासन या बर्खास्तगी आदेश पारित करते समय उसके आचरण पर विचार किया जाना चाहिए। उसके बिना बर्खास्तगी का कोई भी आदेश बुरा है।”

तथ्य

याचिकाकर्ता ने सुल्तानपुर जिले में लेखपाल के रूप में काम किया और 1994 और 2000 में पदोन्नत किया गया। 1992 में याचिकाकर्ता के खिलाफ धारा 148, 302, 149 और 324 आईपीसी के तहत एफआईआर दर्ज की गई थी। मुकदमे में, याचिकाकर्ता को 2009 में धारा 302 और 149 के तहत आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। नतीजतन, याचिकाकर्ता को हिरासत में ले लिया गया। याचिकाकर्ता को 2017 में हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहा कर दिया था। हालांकि, उसे दोषी ठहराए जाने के कारण उसकी सेवानिवृत्ति से एक दिन पहले 30.08.2014 को उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था।

याचिकाकर्ता की ओर से विभागीय अपील दायर की गई थी, जिसमें केवल जीपीएफ का भुगतान करने का निर्देश जारी किया गया। ‌निर्देश में कहा गया कि सेवानिवृत्ति के बाद का शेष बकाया आपराधिक अपील में हाईकोर्ट के निर्णय के अनुसार जारी किया जाएगा।

याचिकाकर्ता ने दो आदेशों को इस आधार पर चुनौती दी कि संविधान के अनुच्छेद 311(2)(ए) के तहत, दोषसिद्धि सेवा से बर्खास्तगी का एकमात्र आधार नहीं हो सकती है, पिछले आचरण को इसमें शामिल किया जाना चाहिए। यह तर्क दिया गया था कि प्राधिकरण आदेश पारित करते समय अपने विवेक का प्रयोग करने में विफल रहा। याचिकाकर्ता ने झारखंड राज्य और अन्य में बनाम जितेंद्र कुमार श्रीवास्तव और अन्य में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि पेंशन और सेवानिवृत्ति के बाद के लाभ भारत के संविधान के अनुच्छेद 300 ए के तहत इनाम नहीं बल्कि संपत्ति हैं, जिन्हें कानून के किसी विशिष्ट प्रावधान के बिना छीना नहीं जा सकता है।

हाईकोर्ट का फैसला

न्यायालय के समक्ष प्राथमिक मुद्दा यह था कि दोषी ठहराए जाने की स्थिति में याचिकाकर्ता की सेवा भारत के संविधान के अनुच्छेद 311(2)(ए) के आलोक में उसे कोई अवसर प्रदान किए बिना सीधे समाप्त की जा सकती है या नहीं।

न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 311(2)(ए) के तहत सेवा से बर्खास्तगी के तहत पूर्ण जांच की आवश्यकता नहीं है क्योंकि बर्खास्तगी उस आचरण के आधार पर होती है जिसके कारण आपराधिक आरोप में दोषसिद्धि हुई।

यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य बनाम तुलसीराम पटेल में शीर्ष अदालत ने कहा था,

“दूसरा प्रावधान केवल वहीं लागू होगा जहां एक सरकारी कर्मचारी का आचरण ऐसा है कि वह बर्खास्तगी, निष्कासन या रैंक में कमी की सजा का हकदार है। यदि आचरण ऐसा है कि ऊपर उल्लिखित दंडों से भिन्न दंड का हकदार है, तो दूसरा प्रावधान बिल्कुल भी लागू नहीं हो सकता है, क्योंकि अनुच्छेद 311 (2) स्वयं केवल इन तीन दंडों तक ही सीमित है। इसलिए, किसी सरकारी कर्मचारी को जांच के उसके संवैधानिक अधिकार से वंचित करने से पहले, पहला विचार यह होगा कि क्या संबंधित सरकारी कर्मचारी का आचरण ऐसा है जो बर्खास्तगी, निष्कासन या रैंक में कमी के दंड को उचित ठहराता है। एक बार जब वह निष्कर्ष आ जाता है और दूसरे प्रावधान के प्रासंगिक खंड में निर्दिष्ट शर्त पूरी हो जाती है, तो वह प्रावधान लागू हो जाता है और सरकारी कर्मचारी जांच का हकदार नहीं होता है।

न्यायालय ने उदय प्रताप सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, राजेश द्विवेदी बनाम यूपी राज्य और राम किशन बनाम यूपी पर भरोसा किय, जिनमें समान तथ्यों और आरोपों पर, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस आधार पर बर्खास्तगी को रद्द कर दिया था कि कर्मचारी के आचरण जिसके कारण उसे दोषी ठहराया गया था, उसे सेवा से बर्खास्त करने से पहले विचार नहीं किया गया था।

न्यायालय ने माना कि प्राधिकरण ने अपने विवेक का प्रयोग नहीं किया था और केवल दोषसिद्धि के आधार पर याचिकाकर्ता को सेवा से बर्खास्त कर दिया। तदनुसार, बर्खास्तगी के आदेश और सेवानिवृत्ति के बाद के बकाया को रोकने के परिणामी आदेश को रद्द कर दिया गया।

केस टाइटलः विश्वनाथ विश्वकर्मा बनाम यूपी राज्य Through Prin. Secy. Deptt. Of Revenue Lko. And O [WRIT - A No. - 4422 of 2015]

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