अग्रिम जमानत केवल एक वैधानिक अधिकार है जो अनुच्छेद 21 से जुड़ा नहीं है; उत्तरोत्तर याचिकाएं सुनवाई योग्य नहीं : इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2022-11-21 05:39 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत का अनुरोध करना केवल एक वैधानिक अधिकार है, इस सप्ताह के शुरू में कहा कि दूसरी बार और उत्तरोत्तर अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है।

जस्टिस सुरेश कुमार गुप्ता की पीठ ने आगे कहा कि सीआरपीसी की धारा 439 (नियमित जमानत याचिकाओं को नियंत्रित करने वाला प्रावधान), जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से उत्पन्न होती है, के विपरीत सीआरपीसी की धारा 438 केवल एक वैधानिक अधिकार है और अग्रिम जमानत प्रदान करने की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 21 से प्रवाहित नहीं होती है।

कोर्ट ने टिप्पणी की,

"धारा 439 अभियुक्त के संवैधानिक अधिकार से संबंधित है, जबकि धारा 438 उसके वैधानिक अधिकार से संबंधित है। धारा 438 के प्रावधानों को अनैतिक अभियुक्तों के कहने पर दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए।"

[नोट: हाल ही में, 'सुशीला अग्रवाल बनाम (एनसीटी ऑफ दिल्ली) सरकार और अन्य' में, सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि सीआरपीसी की धारा 438 अनुच्छेद 21 को समाहित नहीं करती है, यह व्याख्या गलत है। इसके अलावा, निर्णयों का उल्लेख करते हुए जिसमें यह कहा गया है कि सीआरपीसी की धारा 438 अनुच्छेद 21 से जुड़ी नहीं है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह व्याख्या शीर्ष अदालत की संविधान पीठ द्वारा 'गुरबख्श सिंह सिब्बिया आदि बनाम पंजाब सरकार 1980 एआईआर 1632' में घोषित शक्ति की व्यापक शर्तों के विपरीत थी। ।]

सीआरपीसी की धारा 439 की प्रकृति के बारे में बोलते हुए कोर्ट ने आगे कहा कि यदि अभियुक्त की नियमित जमानत अर्जी एक बार खारिज कर दी जाती है तो वह पहले की जमानत अर्जी की तथ्यात्मक स्थिति में पर्याप्त बदलाव के आधार पर दूसरी और क्रमिक जमानत याचिका दायर कर सकता है।

हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि नए तर्कों और समान तथ्यों पर नए मोड़ के आधार पर दूसरी और उत्तरोत्तर जमानत याचिका दायर करने को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता है।

इसके अलावा, इस बात पर जोर देते हुए कि त्वरित सुनवाई संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा उसे प्रदान किए गए अभियुक्त का एक संवैधानिक अधिकार है, कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि हिरासत में रखे गये आरोपी का पहला आवेदन यदि योग्यता के आधार पर खारिज कर दिया जाता है और मुकदमे में देरी होती है, तो अभियुक्त को विलंबित ट्रायल के आधार पर दूसरी जमानत अर्जी देने का अधिकार है।

दूसरी ओर सीआरपीसी की धारा 438 की प्रकृति के बारे में, कोर्ट ने कहा कि दूसरी और क्रमिक अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है। इसके साथ, कोर्ट ने एक बलात्कार के आरोपी द्वारा दायर दूसरी अग्रिम जमानत याचिका को इस तथ्य के मद्देनजर खारिज कर दिया कि उसकी ऐसी पहली जमानत याचिका दिसंबर 2021 में खारिज कर दी गई थी।

मामला संक्षेप में

आईपीसी की धारा 363/366/376 और पॉक्सो अधिनियम की धारा 3/4 के तहत आरोपित राज बहादुर सिंह ने इस आधार पर तत्काल दूसरी अग्रिम जमानत याचिका दायर की कि उसे मामले में झूठा फंसाया गया है।

उनके वकील ने दलील दी कि संबंधित पुलिस स्टेशन द्वारा भेजे गए आवेदक के आपराधिक इतिहास के आधार पर पहली अग्रिम जमानत अर्जी खारिज कर दी गई थी। यह भी दलील दी गयी कि पुलिस ने उल्लेख किया है कि आवेदक का 11 मामलों का आपराधिक इतिहास है, हालांकि, वास्तविकता यह थी कि उसके खिलाफ केवल 5 आपराधिक मामले लंबित हैं, और इसलिए, उसने बदली हुई परिस्थितियों के कारण तत्काल दूसरी अग्रिम जमानत याचिका दायर की।

हालांकि कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कि दूसरी और क्रमिक अग्रिम जमानत अर्जी सुनवाई योग्य नहीं है, उसकी दूसरी अग्रिम जमानत याचिका को इस प्रकार से खारिज कर दिया:

"इस कोर्ट की समन्वय पीठ ने 2021 की पहली अग्रिम जमानत अर्जी क्रमांक 19577/2021 में दिनांक 14.12.2021 को जारी आदेश में हर पहलू पर विचार किया है। याचिकाकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत केस नं 15004/2021 के जरिये सीआरपीसी की धारा 319 के तहत ट्रायल का सामना करने के समन आदेश को पहले ही चुनौती दी थी, जिसे इस अदालत ने 31 अगस्त 2021 के आदेश के जरिये निपटारा कर दिया था और निर्देश दिया था कि याचिकाकर्ता नियमित जमानत का सहारा ले। याचिकाकर्ता के असहयोग के कारण, ट्रायल वर्ष 2020 से लंबित है। इस प्रकार, यह अग्रिम जमानत के लिए उपयुक्त मामला नहीं है और इसे खारिज किया जाता है।"

केस टाइटल - राज बहादुर सिंह बनाम उप्र सरकार [क्रिमिनल मिसलेनियस अग्रिम जमानत याचिका 438 सीआरपीसी संख्या – 8376/2022]

केस साइटेशन: 2022 लाइवलॉ (इलाहाबाद) 493

आदेश की प्रति डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



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