इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तब्लीगी जमात के 6 विदेशी सदस्यों को CM COVID-19 रिलीफ फंड में दान देने की शर्त पर जमानत दी; स्वतंत्रता के अधिकार पर अदालत ने दिया जोर
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच ने पिछले हफ्ते तब्लीगी जमात से जुड़े 6 सदस्यों को जमानत दे दी, ये सभी किर्गिस्तान के नागरिक हैं, जिन्हें भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 188, महामारी रोग अधिनियम, 1897 की धारा 3, पासपोर्ट अधिनियम, 1967 की धारा 12 (3), पासपोर्ट (भारत में प्रवेश) अधिनियम, 1920 की धारा 3 (2) एवं 3 (3), विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946 की धारा 14/14-सी और आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 की धारा 51 के तहत गिरफ्तार किया गया था।
न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह की एकल पीठ ने इन सभी विदेशी नागरिकों को जमानत देते हुए इस बात पर गौर किया कि भले ही जमानत के ये आवेदक विदेशी नागरिक हैं, फिर भी उन्हें कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है और वे कानून के समक्ष समता (equality before law) के और कानून के समान संरक्षण (equal protection of law) के भी हकदार हैं।
अदालत ने मुख्य रूप से यह टिपण्णी की कि,
"जमानत देने से संबंधित मामले में, भारतीय नागरिकों और विदेशी नागरिकों के बीच कोई भेदभाव करने की अनुमति नहीं है। प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करते समय इस बात की अनुमति है कि अदालत विभिन्न शर्तों को लागू कर सकती है जो यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक हो सकती हैं कि अभियुक्त को मुकदमे का सामना करने के लिए उपलब्ध कराया जाए और जमानत के लिए एक आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है कि आवेदक विदेशी नागरिक हैं।"
आरोपियों के खिलाफ मामला
आरोपियों/जमानत के आवेदकों के खिलाफ दर्ज एफआईआर के मुताबिक, 22-मार्च-2020 को लखनऊ कमिश्नरेट के क्षेत्र के भीतर प्रशासन ने धारा 144 सी.आर.पी.सी. लागू कर दी थी और इस सम्बन्ध में उचित प्रकार से आम जनता के बीच सूचना भी जारी कर दी गयी थी।
इसी बीच प्रशासन को ऐसी जानकारी मिली कि लखनऊ में डॉ. बी. एन. वर्मा रोड स्थित एक मरकज मस्जिद के भीतर इसके प्रबंधक, अली हसन द्वारा, एक पर्यटक वीजा पर भारत में प्रवेश करने वाले 6 विदेशी नागरिकों को उक्त मस्जिद में आश्रय दिया जा रहा था।
ऐसा कहा गया कि उक्त विदेशी नागरिक नई दिल्ली के निजामुद्दीन में धार्मिक मण्डली में शामिल हुए थे और उसके बाद लखनऊ आ गए थे और अपनी चिकित्सकीय जाँच करवाए बिना वे मरकज़ मस्जिद में रह रहे थे।
एफआईआर के मुताबिक, यह आरोप है कि इन व्यक्तियों ने लॉकडाउन मानदंडों का उल्लंघन किया है और यह सभी एक ही स्थान पर रह रहे थे। यह भी आरोप लगाया गया है कि इन 6 विदेशी नागरिकों के संबंध में स्थानीय पुलिस/प्रशासन को कोई सूचना नहीं दी गयी थी।
इसके पश्च्यात, इन सभी व्यक्तियों की चिकित्सकीय जांच 31-मार्च-2020 को की गयी और उन्हें मेडिकल पर्यवेक्षण के तहत 14 दिनों के करन्तीन (Quarantine) के तहत जिले के लोक बंधु अस्पताल में रखा गया।
एफआईआर के मुताबिक, यह आरोप है कि इन व्यक्तियों ने जानबूझकर सरकारी आदेशों का उल्लंघन किया है और कानून के प्रावधानों के खिलाफ जाकर काम किया है और इसी के चलते उन पर ऊपर बताई गयी धाराओं के तहत अपराध करने का आरोप लगाया गया है।
अदालत में दी गयी दलीलें
याचियों की ओर से बहस करते हुए अधिवक्ता प्रांशु अग्रवाल ने यह दलील दी कि याचियों के पास वैध पासपोर्ट हैं और उन्हें भारत के क्षेत्र में आने के लिए वैध वीजा प्रदान किया गया है। यह भी कहा गया कि उन्होंने वीजा नियमों का उल्लंघन नहीं किया है और न ही गलत या फर्जी पासपोर्ट से वे भारत में दाखिल हुए हैं।
यह भी कहा गया कि यह सभी अलग-अलग तारिख को दिल्ली आये और वे लखनऊ, 13-मार्च-2020 को आये और इस विषय में उन्होंने भारत में अपनी यात्रा और लखनऊ में अपने रुकने की सारी जानकारी, विदेशी क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय, लखनऊ (FRRO) को सौंपी थी, यह कार्यालय भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन आता है।
यह भी कहा गया कि 13-मार्च-2020 के बाद घोषित कार्यक्रम के अनुसार, उन्हें 22 दिनों तक लखनऊ में रुकना था, हालाँकि इसी बीच पहले 22-मार्च-2020 को जनता कर्फ्यू और फिर राष्ट्रीय लॉकडाउन घोषित कर दिया गया, जिसके चलते ये सभी जमानत के आवेदक न केवल देश से बल्कि शहर से बाहर नहीं निकल पाए इसलिए वो जहाँ थे वहीँ रह गए। वे अपने देश भी नहीं लौट पाए और 18-अप्रैल-2020 से वे जेल में हैं (14 दिन के क्वारंंटीन में रहने के बाद)।
उन्होंने आगे यह भी कहा कि इन सभी लोगों का तीन बार COVID-19 परिक्षण किया गया है और वो परिक्षण नेगेटिव आया है, उन्हें निर्दोष बताते हुए उन्हें जमानत दिए जाने की प्रार्थना की गयी।
वहीँ, राज्य सरकार के वकील जे. एस. तोमर द्वारा यह दलील दी गयी कि ये सभी आवेदक, भारत में पर्यटक वीजा प्राप्त करके दाखिल हुए, लेकिन उन्होंने धार्मिक कार्यक्रमों में हिस्सा लिया जिसकी इजाजत नहीं है। उन्होंने कहा कि भारत के क्षेत्र के भीतर रहने के दौरान इन लोगों ने यह खुलासा नहीं किया कि वे नई दिल्ली में निजामुद्दीन में मरकज मण्डली में शामिल हुए थे।
ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया गया जब नई दिल्ली में मरकज संघ के कुछ लोग COVID-19 पॉजिटिव पाए गए, और ऐसी विभिन्न घोषणाएं सार्वजनिक प्लेटफार्मों पर की गई थीं कि वे सभी व्यक्ति जो स्वेच्छा से इस तरह की मंडली में शामिल हुए थे, वे COVID-19 के परीक्षण के लिए आगे आयें, जिससे वायरस के प्रसार को रोका जा सके, फिर भी ये सभी व्यक्ति आगे नहीं आए और वे समाज के लिए व्यापक रूप से खतरा बने रहे।
उन्होंने आगे कहा कि, ये सभी व्यक्ति विदेशी नागरिक हैं जिनका भारत में कोई स्थायी निवास नहीं है, इसलिए, यदि आवेदक जमानत पर छोड़े जाते हैं, तो उन्हें ट्रैक करना मुश्किल होगा और उनके फरार होने और मुकदमे की सुनवाई के लिए उपलब्ध नहीं होने की संभावना अधिक होगी।
इस प्रकार, राज्य ने उपरोक्त परिस्थितियों में, अदालत से यह मांग की कि यह उचित होगा कि इन सभी जमानत के आवेदकों को जमानत पर न छोड़ा जाए, इस तथ्य पर जोड़ देते हुए कि मामले का अन्वेषण अभी भी चल रहा है और चार्जशीट अभी तक दायर नहीं की गई है।
अदालत का आदेश
अदालत ने सभी परिस्थितियों पर गौर करते हुए अपने आदेश में संविधान के भाग III में मौजूद अनुच्छेद 21 के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकार पर जोर देते हुए इसे मौलिक अधिकारों के "ह्रदय और आत्मा" के रूप में नामित किया। अदालत ने इस बात की ओर जोर दिया कि किसी व्यक्ति का प्रतिबंध या अतिक्रमण से मुक्त होना एक बुनियादी अधिकार है।
अदालत ने इस अधिकार की एक विदेशी नागरिक के लिए उपब्धता पर भी विशेष रूप से जोर देते हुए अपने आदेश में इस बात का उल्लेख किया।
अदालत ने अपने आदेश में कहा कि,
"किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को हल्के ढंग से नहीं निपटाया जाना चाहिए क्योंकि स्वतंत्रता से वंचित किये जाने पर व्यक्ति के दिमाग पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। हमारे देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता उच्च पद पर आसीन की गई है और यह किसी भी सभ्य समाज के लिए भी महत्वपूर्ण है। हमारे संविधान ने प्रत्येक मनुष्य को कुछ और नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान किये है, हालांकि, प्रत्येक व्यक्ति, कानून के समक्ष समानता और कानून के समान संरक्षण का हकदार है। इसलिए भी कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार अपने जीवन या वैयक्तिक जीवन से वंचित नहीं रह सकता है, और इस संदर्भ में, प्रत्येक व्यक्ति में एक विदेशी नागरिक भी शामिल होगा।"
अदालत ने यह भी साफ़ किया कि, जब तक बहुत विषम/गंभीर परिस्थितियों की ओर इंगित नहीं किया जाता है, तब तक यह नहीं माना जा सकता है कि कानून के न्यायालय के समक्ष मौजूद देश के एक नागरिक और एक विदेशी नागरिक के जमानत आवेदन पर विचार करने के लिए विभिन्न मानक होंगे।
यही नहीं, अदालत ने जमानत के सम्बन्ध में अन्य विशेष बातों का भी उल्लेख किया, जिसमे यह कहा गया कि जमानत की वस्तु न तो दंडात्मक है और न ही निवारक है और जमानत नियम है और जेल में जाना एक अपवाद है।
अदालत ने अनिल कुमार यादव बनाम दिल्ली राज्य (एनसीटी) 2018 (12) SCC Pg। 129 के मामले का हवाला देते हुए कहा, यह पूर्णतः स्थापित है कि जमानत की अर्जी पर गौर करने के समय कोर्ट को आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है कि नहीं, उसके खिलाफ लगाए गए आरोपों की गंभीरता, आरोपी की स्थिति और उसके रसूख, आरोपी का न्याय से भागने की आशंका और दुबारा इसी तरह का अपराध करने की आशंका जैसी कुछ बातों पर गौर करना चाहिए।
इसके बाद अदालत ने इन सभी आरोपियों [सैगिनबेक तोकतोबोलोतोव, सुल्तानबेक तुरसुनबैउलू, रुस्लान तोक्सोबेव, जमीरबेक मार्लिव, ऐदीन तालडू कुरगन व दाऊअरेन तालडू कुरगन] को 50-50,000 के निजी बांड एवं एक साल्वेंट स्युरिटी के साथ जमानत पर रिहा करने का आदेश देते हुए जमानत को लेकर अन्य शर्त लगाने के साथ यह शर्त भी लगायी कि वे 11-11 हजार रुपये मुख्यमंत्री कोविड-19 रिलीफ फंड में जमा करेंगे।
मामले का विवरण:
केस टाइटल: सैगिनबेक तोकतोबोलोतोव बनाम उत्तरप्रदेश राज्य
केस नं: बेल नंबर - 2898/2020
कोरम: न्यायमूर्ति जसप्रीत सिंह
अधिवक्ता: अधिवक्ता प्रांशु अग्रवाल (आवेदकों के लिए) – अधिवक्ता जे. एस. तोमर (उत्तरप्रदेश राज्य के लिए)।
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