इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अधिकार क्षेत्र से परे कार्य करने, अधिकारियों को बिना कारण तलब करने के लिए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की आलोचना की

Update: 2023-10-10 10:13 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और उसके राज्य समकक्ष द्वारा नागरिक विवादों के फैसले की कड़ी निंदा की है, क्योंकि यह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 और यूपी अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1994 के तहत उन्हें दी गई शक्तियों के दायरे से परे है।

जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने कहा,

“हम राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा विवादों पर निर्णय लेने और मामलों पर निर्णय करने के लिए अपनाई गई ऐसी प्रथा की कड़ी निंदा करते हैं, जैसे कि वे अदालतें हों और ऐसे निर्णय को जारी रखने के लिए बिना किसी तुक या कारण के अधिकारियों को तलब करना या अधिकारियों पर किसी भी फैसले को पारित करने के लिए दबाव डालना उचित नहीं है। हम उत्तर प्रदेश राज्य के अल्पसंख्यक आयोग के सदस्यों या अध्यक्षों से अनुरोध करते हैं और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से भी कहते हैं कि किसी भी विवाद को न्यायालय के रूप में कार्य करने या निर्णय करने की अनुमति नहीं है, जिसके लिए उन्हें अधिनियम के तहत ऐसा करने का अधिकार नहीं है।''

न्यायालय ने आगे कहा कि यदि अल्पसंख्यक आयोग अपने अधिकार क्षेत्र से परे कार्य करना जारी रखता है तो "पद का ऐसा दुरुपयोग सदस्य/अध्यक्ष की कार्यालय में बने रहने को सार्वजनिक हित के लिए हानिकारक बना देगा और ऐसे सदस्य/अध्यक्ष को हटाया जा सकता है।"

तथ्यात्मक पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता-डिवाइन फेथ फ़ेलोशिप चर्च, संभल, गैर सरकारी संगठन जो ईसाई समुदाय की बेहतरी के लिए काम करने का दावा करता है। दावा किया गया कि चर्च क्षेत्र के आसपास उनकी 17 दुकानें हैं, जो चर्च की संपत्ति है। एक दुकान पर जमीन कब्जा करने वालों ने अवैध कब्जा कर लिया था। यूपी अल्पसंख्यक आयोग के समक्ष आवेदन दायर किया गया, जिसने नायब तहसीलदार को तलब किया। सुनवाई के आधार पर यूपी अल्पसंख्यक आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि कमल नामक व्यक्ति ने अमित को पट्टे पर दी गई दुकान पर अवैध रूप से कब्जा कर लिया। यूपी आयोग ने निर्देश दिया कि किरायेदार और कमल दोनों के खिलाफ कार्रवाई की जाए।

चूंकि यूपी आयोग द्वारा पारित आदेश का अनुपालन नहीं किया गया, याचिकाकर्ता ने नई दिल्ली में भारत सरकार के राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग से संपर्क किया। याचिकाकर्ताओं और सब डिविजनल मजिस्ट्रेट को सुनने के बाद राष्ट्रीय आयोग ने निर्देश दिया कि जिला प्रशासन याचिकाकर्ता को दुकान पर कब्जा दिलाने में मदद करे। याचिकाकर्ता ने राष्ट्रीय आयोग के आदेश के अनुपालन के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

राज्य के वकील ने तर्क दिया कि यद्यपि आयोगों की स्थापना उद्देश्य के लिए की गई थी, लेकिन वे अधिकारियों पर दबाव डालकर और उन्हें बुलाकर अपने अधिकार क्षेत्र से परे काम कर रहे हैं।

इस प्रकार, न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह है कि क्या 1992 अधिनियम के तहत स्थापित अल्पसंख्यक आयोग 'न्यायालय' है या नहीं या यह पार्टियों के बीच मुद्दों का फैसला कर सकता है।

हाईकोर्ट का फैसला

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 और यू.पी. का अवलोकन करते हुए अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1994 पर कोर्ट ने कहा कि आयोगों का गठन अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के लिए किया गया। अधिनियमों की धारा 9(4) में प्रावधान है कि आयोग के पास किसी मुकदमे की सुनवाई करने वाली सिविल अदालत की शक्तियां हैं और वह किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति को लागू कर सकता है। हालांकि, उनके पास संपत्ति विवाद के समाधान के लिए बेदखली का निर्देश देने की शक्ति नहीं है।

कोर्ट ने कहा,

“यूपी संपत्ति संबंधी विवादों, जैसे कि चर्च के स्वामित्व वाली दुकान से किसी व्यक्ति को बेदखल करने का विवाद को सुलझाने के लिए आयोग सिविल कोर्ट की शक्ति को हड़प नहीं सकता है। आयोग की शक्ति 1992 अधिनियम की धारा 9(1)(ए), (बी) और (डी) तक सीमित है, जिसके तहत वे किसी अधिकारी को बुला सकते हैं या सिविल कोर्ट की शक्ति प्राप्त कर सकते हैं। वे उस शक्ति को हड़प नहीं सकते, जो क़ानून के तहत उन्हें नहीं दी गई है।”

न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाईकोर्ट के विभिन्न निर्णयों पर भरोसा किया, जिसमें यह माना गया कि आयोग के पास केवल राज्य सरकार को सिफारिशें करने की शक्ति है। आयोगों द्वारा की गई कोई भी सिफारिशें सरकार पर बाध्यकारी नहीं हैं।

कोर्ट ने कहा,

“यह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और यूपी द्वारा सामान्य अभ्यास बन गया है। अल्पसंख्यक आयोग अधिकारियों को बुलाता रहता है और उन पर आदेश पारित करने के लिए दबाव डालने की कोशिश करता है जो उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।''

इसके अलावा, न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम डॉ. मनोज कुमार शर्मा पर भरोसा किया गया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट द्वारा बिना किसी "ठोस कारण" के अधिकारियों को तलब करने की प्रथा की निंदा की। तदनुसार, न्यायालय ने माना कि आयोग हाईकोर्ट से बेहतर नहीं होने के कारण अधिकारियों को नहीं बुला सकता, खासकर जब विवादों पर निर्णय लेने की शक्ति सिविल अदालत के पास है।

न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्ता को किरायेदार को बेदखल करने के लिए सिविल कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए था, क्योंकि न तो राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और न ही उसके राज्य समकक्ष के पास अधिकारियों को बुलाने और किरायेदार को बेदखल करने का आदेश देने का अधिकार क्षेत्र है।

तदनुसार, न्यायालय ने रिट याचिका खारिज कर दी।

केस टाइटल: डिवाइन फेथ फ़ेलोशिप चर्च और अन्य बनाम यूपी राज्य और 5 अन्य

अपीयरेंस: याचिकाकर्ताओं की ओर से आकांक्षा मिश्रा और अतिरिक्त मुख्य सरकारी वकील सुश्री उत्तरा बहुगुणा।

ऑर्डर पढ़ने/डाउनलोड करने के लिए यहां क्लिक करें



Tags:    

Similar News