'किसी व्यक्ति को दान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता': कलकत्ता हाईकोर्ट ने मुख्यमंत्री राहत कोष में योगदान देने के लिए विश्वविद्यालय के कर्मचारियों के वेतन से एकतरफा कटौती पर कहा
कलकत्ता हाईकोर्ट ने मंगलवार को कहा कि कोई विश्वविद्यालय अपने कर्मचारियों के वेतन का एक हिस्सा उनकी सहमति के बिना दान के रूप में नहीं काट सकता है।
न्यायालय विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के प्रोफेसरों द्वारा दायर उस याचिका पर विचार कर रहा था, जिसमें उन्होंने रजिस्ट्रार के आदेश को चुनौती दी थी। रजिस्ट्रार ने उन्हें एक दिन का वेतन मुख्यमंत्री राहत कोष, पश्चिम बंगाल/पश्चिम बंगाल राज्य आपातकालीन राहत कोष में दान करने के लिए मजबूर किया था ताकि 20 मई, 2020 को कोलकाता और पश्चिम बंगाल के कई जिलों में आए चक्रवात अम्फान से प्रभावित लोगों की सहायता की जा सके।
न्यायमूर्ति अमृता सिन्हा ने कहा,
''नियोक्ता के पास न तो शक्ति है और न ही किसी कर्मचारी के वेतन या उसके किसी हिस्से को एकतरफा, दान देने की आड़ में काटने का अधिकार है। किसी व्यक्ति को दान करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। जिस क्षण बल का उपयोग किया जाता है, दाता का कार्य स्वैच्छिक नहीं रहता है, और यह जबरन कटौती के समान है, जो कि दान शब्द से बिल्कुल अलग है।''
24 मई, 2020 को विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार (कार्यवाहक) द्वारा एक नोटिस जारी किया गया था जिसमें कहा गया था कि लेखा कार्यालय मई 2020 के मासिक वेतन से एक दिन का वेतन मुख्यमंत्री राहत कोष, पश्चिम बंगाल में दान करने के लिए काटेगा। इसके बाद, रजिस्ट्रार द्वारा 29 मई, 2020 को एक ओर नोटिस जारी किया गया था जिसमें विश्वविद्यालय के सभी स्थायी कर्मचारियों को विश्व-भारती अधिनियम, 1951 (अधिनियम) की धारा 6 और 14 (3) और अन्य प्रावधानों के तहत निहित शक्तियों के अनुसार उपरोक्त राहत कोष में एक दिन का वेतन दान करने का निर्देश दिया गया था।
याचिकाकर्ता की ओर से वकील ने तर्क दिया कि विश्वविद्यालय द्वारा कर्मचारियों की सहमति प्राप्त किए बिना वेतन काटने की इस तरह की एकतरफा कार्रवाई पूरी तरह से गैरकानूनी और अधिकार क्षेत्र के बिना की गई थी। इसके अलावा यह तर्क दिया गया कि जिन प्रावधानों के आधार पर ऐसी कटौती की गई थी, वे विश्वविद्यालय को ऐसी कोई शक्ति प्रदान नहीं करते हैं। नतीजतन, याचिकाकर्ताओं ने उनके वेतन से अवैध रूप से काटी गई राशि को वापस करने की प्रार्थना की।
अवलोकनः
कोर्ट ने कहा कि रजिस्ट्रार द्वारा 24 मई, 2020 को उक्त नोटिस जारी करने के तुरंत बाद, याचिकाकर्ताओं ने एकतरफा वेतन कटौती पर आपत्ति जताते हुए उन्हें एक अभ्यावेदन दिया गया था और इस तरह अधिकारियों से अनुरोध किया गया था कि वह कर्मचारियों को इस मामले में अपनी पसंद व्यक्त करने की अनुमति दें। हालांकि, अधिकारियों द्वारा इस तरह के अभ्यावेदन पर कोई जवाब नहीं दिया गया। इसके बजाय प्रशासन ने उसके पहले के आदेश के अनुपालन की मांग करते हुए 29 मई, 2020 को एक ओर नोटिस जारी कर दिया था।
अदालत ने आगे अधिनियम के उन विभिन्न प्रावधानों का उल्लेख किया जिनके अनुसार प्रशासन ने ऐसा निर्देश दिया था। अधिनियम की धारा 14(3) कुलपति को किसी भी मामले पर आवश्यक होने पर तत्काल कार्रवाई करने का अधिकार देती है। इसके अलावा, अधिनियम की धारा 14(3) के दूसरे परंतुक में कहा गया है कि विश्वविद्यालय का एक कर्मचारी जो इस उप-धारा के तहत कुलपति द्वारा की गई कार्रवाई से व्यथित है, उसे इस तरह की कार्रवाई के खिलाफ कार्यकारी परिषद् में अपील करने का अधिकार होगा। यह अपील कार्रवाई की सूचना देने की तारीख से 90 दिनों के भीतर की जा सकेगी।
कोर्ट ने कहा, ''उपरोक्त प्रावधानों में से कोई भी विश्वविद्यालय को किसी कर्मचारी के वेतन से किसी भी राशि को दान के रूप में देने के लिए एकतरफा काटने का अधिकार नहीं देता है।''
इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि अभिव्यक्ति 'दान' का तात्पर्य है कि कोई भी राशि संबंधित व्यक्ति/संगठन की सहायता के लिए मदद के रूप में दी जा रही है। इस प्रकार दान उस व्यक्ति का स्वैच्छिक कार्य है जो दान करना चाहता है।
अदालत ने यह भी कहा कि, ''मेरा मानना है कि किसी कर्मचारी की सहमति के बिना और कानून के किसी भी अधिकार के बिना,उसके वेतन से एकतरफा कटौती करने को दान नहीं कहा जा सकता है। यह अवैध कटौती के समान है।''
इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि अधिनियम की धारा 14(3) के तहत परिकल्पित अभिव्यक्ति 'किसी भी मामले' में केवल कानून द्वारा अधिकृत मामला ही शामिल होगा। किसी भी मामले पर फैसला लेने से कुलपति को कानून के प्रावधानों के विपरीत कार्रवाई करने की अनियंत्रित शक्ति या अधिकार नहीं मिलता है।
न्यायमूर्ति सिन्हा ने आगे कहा कि किसी कर्मचारी के वेतन प्राप्त करने के अधिकार को कानून के निश्चित प्रावधान के बिना कम या उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। तदनुसार, अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है जो विश्वविद्यालय को दान की आड़ में किसी कर्मचारी के वेतन के एक हिस्से को स्वतः काटने की अनुमति देता है।
अदालत ने आगे कहा कि,''जब विश्वविद्यालय जरूरतमंद और प्रभावित लोगों को सहायता प्रदान करने की कोशिश कर रहा था, तो उसे सहायता प्रदान करने के लिए एक कोष स्थापित करने का एक बेहतर तरीका अपनाना चाहिए था, लेकिन अनिच्छुक कर्मचारियों के पैसे काटने के लिए व्हिप का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। इसने कर्मचारियों के मन में असंतोष और आक्रोश पैदा किया। विश्वविद्यालय की अत्यधिक कार्रवाई के कारण जरूरतमंदों की मदद करने के लिए किया जाने वाला नेक काम खराब हो गया। यह निश्चित रूप से रवींद्रिक परंपरा को प्रदर्शित करता है जिसका विश्वविद्यालय दावा करता है।''
हालांकि, अदालत ने यह कहते हुए कटौती की गई राशि की वापसी के लिए आदेश पारित करने में न्यायिक संयम व्यक्त किया कि कटौती की गई राशि को दान लेने वाले के खाते में स्थानांतरित कर दिया गया है और उसका इस्तेमाल जरूरतमंदों की सहायता के लिए किया जा रहा है। इसके अलावा कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने खुद भी विवादित नोटिस के प्रकाशन के लगभग एक साल बाद कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। नतीजतन, यदि याचिकाकर्ताओं की वापसी के लिए की गई प्रार्थना को अनुमति दी जाती है, तो विश्वविद्यालय के किसी भी बजट प्रमुख से ऐसी वापसी कानूनी रूप से नहीं की जा सकती है।
तदनुसार, याचिका का निपटारा निम्नलिखित अवलोकन के साथ किया कर दिया गयाः
''देश एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है। यह वांछनीय है कि नागरिक स्वेच्छा से जरूरतमंदों की मदद के लिए आगे आएं। सहायता प्रदान करना, निश्चित रूप से, इसका मतलब किसी कर्मचारी के कानूनी अधिकार को छीनना नहीं है। दान करना एक परोपकारी कार्य है। यह दानकर्ता की स्वतंत्र इच्छा से होना चाहिए। इसे बल या जबरदस्ती से प्राप्त नहीं किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालय हमेशा जरूरतमंद लोगों को राहत देने के तरीके और साधन अपना सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए बल का उपयोग किया जाए।''
केस शीर्षकः सुदीप्त भट्टाचार्य व अन्य बनाम विश्व-भारती व अन्य
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