'क्या चर्चों में पादरियों के समक्ष अनिवार्य सेक्रामेंटल कन्फेशंस की प्रथा, अनुच्छेद 21 और 25 का उल्लंघन करती है ': सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी किया
सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को मलंकारा ऑर्थोडॉक्स सीरीयन चर्च की सेक्रामेंटल कंन्फेशन की कथित धार्मिक प्रथा के खिलाफ दायर याचिका पर नोटिस जारी किया।
चीफ जस्टिस एसए बोबडे की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने मैथ्यू मैथचान और सीवी जोस की याचिका पर नोटिस जारी किया। याचिकाकर्ताओं ने अपने अधिकारों के साथ-साथ मलंकारा ऑर्थोडॉक्स सीरियन चर्च में अपने जैसे ही लोगों के अधिकारों के संरक्षण की मांग की थी। शुरुआत में कोर्ट ने सीनियर एडवोकेट संजय पारेख को हाईकोर्ट जाने को कहा था।
इसके बाद पारिख ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट 2017 में केएस वर्गीज जजमेंट, और छळ सितंबर, 2019 के आदेशों के आधार पर केरल के सभी सिविल कोर्टों और हाईकोर्ट को आदेश दिया है कि वे केएस वर्गीज फैसले में आदेश के उल्लंघन में कोई भी आदेश पारित ना करें।
याचिका में कानून का प्रश्न यह है कि "क्या केरल मलंकारा चर्च के 1934 के संविधान के खंड 7 और 8 के अनुसार किसी श्रद्धालु पर कन्फेशन की अनिवार्य शर्त को लागू किया जा सकता है और संविधान के अनुच्छेद 21 और 25 के तहत एक आवश्यक पहलू के रूप में संरक्षित है? "
इस धार्मिक प्रथा के अनुसार, चर्च के सदस्य को पुजारी के समक्ष 'सेक्रामेंटल कन्फेशन' से गुजरना पड़ता है। यह प्रथा, कहा जाता है कि पाप से मुक्ति के लिए आवश्यक है और ईसाई होने की सांसारिक और आध्यात्मिक आवश्यकता को पूरा करने की शर्त हैं। यदि कोई व्यक्ति इस प्रक्रिया से नहीं गुजरता है, तो चर्च की सेवाओं से वंचित कर दिया जाएगा।
याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि कुछ नियमों की आड़ में चर्च सदस्यों को अनिवार्य रूप से कन्फेश करने और अनिवार्य रूप से धनराशि/ बकाया का भुगतान करने के लिए मजबूर कर रहा है, और ऐसा नहीं करने पर उनके नामों को संबंधित इलाकों से हटा दिया गया है।
याचिका में कहा गया है कि चर्च की उक्त प्रथाएं सार्वजनिक प्रकृति की हैं, यह मानवीय गरिमा और विचार की स्वतंत्रता को प्रभावित करती हैं और श्रद्धालुओं को इलाके की सदस्यता से बाहर कर दिए जाने के डर से, चुप रहने के लिए मजबूर किया जाता है।
कन्फेशन या धन/ बकाया की अदायगी की अनिवार्य शर्त के खिलाफ उक्त रिट याचिका एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड सानंद रामकृष्णन ने दायर की है। याचिका में कहा गया है कि पुरुषों और महिलाओं से जबरन और अनिवार्य स्वीकारोक्ति (स्वैच्छिक नहीं) प्राप्त की जाती है, जिससे महिलाओं के शोषण और ब्लैकमेलिंग सहित कई गंभीर समस्याएं पैदा हो रही हैं।
यदि किसी व्यक्ति ने कन्फेशन नहीं किया है, तो उस व्यक्ति का नाम हलके के रजिस्टर से हटा दिया जाएगा और उसे चर्च की सभी गतिविधियों से रोक दिया जाता है। यदि संबंधित व्यक्ति शादी करना चाहता है, तो उसे पहले अनिवार्य कन्फेशन करना होगा, ...ऐसा करने में विफल रहने पर उसे चर्च के सदस्य के रूप में मान्यता नहीं दी जाएगी।
2018 में केरल हाईकोर्ट ने एक याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें 'सेक्रामेंटल कन्फेशन' की प्रथा को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई थी। (सीएस चाको बनाम यूनियन ऑफ इंडिया)
पीठ ने कहा था कि 'सैक्रामेंटल कन्फेशन' की प्रथा ने ईसाई धर्म के अनुसरण की एक उचित प्रथा का गठन करती है। याचिकाकर्ता की आशंका कि इसाई के रूप में बने रहने के बाद भी इस प्रकार की प्रथा का पालन न करने के कारण उसे सांसारिक और आध्यात्मिक सेवाओं को प्राप्त करने से अक्षम कर दिया जाएगा, यह उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है।
अदालत ने कहा कि एक विशेष विश्वास या धार्मिक मान्यता के साथ रहने का चुनाव करने के बाद, किसी को धार्मिक सिद्धांतों के तहत निर्धारित मानदंडों का पालन करना होगा।
याचिकाकर्ता ने ईसाई धर्म को स्वेच्छा से इस तथ्य से पूरी तरह अवगत होने के बाद अपनाया कि ऐसा बने रहने के लिए उसे अपनी धार्मिक प्रथाओं और शिष्टाचारों का कड़ाई से पालन करना होगा, जिसमें 'सेक्रामेंटल कन्फेशन' शामिल हो सकता है।
यदि याचिकाकर्ता ऐसी किसी भी प्रथा की अवहेलना करता है, तो वह स्वेच्छा से इस तरह के धार्मिक विश्वास की सदस्य को छोड़ने या सदस्यता समाप्त होने का संकेत दे रहा है।
अदालत ने कहा था कि याचिकाकर्ता का ईसाई बने रहने और उसकी आशंका कि 'सैक्रामेंटल कन्फेशन' नहीं करने से से चर्च की सांसारिक और आध्यात्मिक सेवाएं से उसे वंचित कर दिया जाएगा, अनुच्छेद 226 के तहत अदालती कार्यवाही के माध्यम से हल नहीं किया जा सकता है।