'एक ऊंची और शक्तिशाली सरकारी बीमा कंपनी को अपने सामाजिक विवेक का एहसास कब होगा?': सुप्रीम कोर्ट ने श्रमिक की मौत के लिए मुआवजे के खिलाफ चुनौती की आलोचना की
एक ऐसे मामले में जहां "एक गरीब किसान परिवार दुर्घटना में हुई बेटे की मौत के एवज में श्रम आयुक्त द्वारा दिए गए 2,64,895 रुपये के मामूली मुआवजे को पाने की एक लंबी लड़ाई हार गया", सरकारी बीमा कंपनी न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को अवॉर्ड को चुनौती देने के कारण आलोचना की है।
कोर्ट ने कहा,
"एक ऊंची और शक्तिशाली सरकारी बीमा कंपनी को अपने सामाजिक विवेक का एहसास कब होगा? जिस प्रकार एक किसान और उसकी पत्नी को कानूनी प्रक्रिया की दया पर छोड़ दिया गया है, उससे हमारी अंतरात्मा बहुत व्यथित है। क्या बीमाकर्ता को अपने कमाऊ बेटे की मृत्यु पर 2.64 लाख रुपये का मुआवजा पाने के लिए उसके मां-बाप को हाईकोर्ट में घसीटना चाहिए था? अब समय आ गया है कि इस पर पुनर्विचार किया जाए। मोटर दुर्घटनाओं के पीड़ितों के परिजनों को अपने कानूनी अधिकारों का एहसास नहीं होगा, जब तक कि मुकदमेबाजी छलावा, उत्पीड़न और यातना का स्रोत होगी।"
कोर्ट ने बीमा कंपनी को एक महीने के भीतर 2,62,164 रुपये, दुर्घटना की तारीख से 12% के ब्याज के साथ भुगतान करने का निर्देश दिया। अदालत ने अपीलकर्ताओं को निचली अदालतों की कार्यवाही में हुए खर्च के एवज में एक लाख रुपये की लागत का भी हकदार माना।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एएस बोपन्ना की बेंच उड़ीसा हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश के 2018 के फैसले और समीक्षा याचिका में 2019 के फैसले की अपील पर सुनवाई कर रही थी।
मामले के तथ्य
मृतक कामगार, जो अपीलकर्ता का पुत्र है, दूसरे प्रतिवादी के एक ट्रक में सहायक के रूप में काम कर रहा था, जो उसका नियोक्ता था। ट्रक का पहले प्रतिवादी- न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के साथ बीमा किया गया था। 30 अक्टूबर 2004 को सुबह 11 बजे, जब ट्रक पारादीप से जादूपुरगोड़ा जा रहा था तो चालक ने अपनी वापसी में चावल के तीस बोरे चांडीखोल वापस ले जाने के लिए एक व्यक्ति के साथ डील की। चालक ने मृतक सहायक को ट्रक से नीचे उतरकर चावल की बोरियों को लदान करने के लिए आवश्यक व्यवस्था करने का निर्देश दिया। आरोप है कि ट्रक के चालक ने ट्रक से नियंत्रण खो दिया और हेल्पर से जा टकराया। एक नवंबर 2004 को कामगार ने दम तोड़ दिया।
अपीलार्थी ने आयुक्त के न्यायालय में एक आवेदन दायर कर कर्मचारी मुआवजा अधिनियम 1923 के प्रावधानों के तहत 3,00,000 रुपये मुआवजे की मांग की। दुर्घटना के समय मृतक चौबीस वर्ष का था और 2400/- प्रति माह रुपये का वेतन प्राप्त कर रहा था, और रु. 25/- प्रतिदिन भोजन व्यय के लिए पाता था। उक्त राशि नियोक्ता द्वारा स्वीकार की गई।
कामगार के मुआवजे के दावे का निपटारा 29 फरवरी 2016 को किया गया। यह देखा गया कि कर्मचारी को भुगतान किया गया कोई भी विशेष खर्च अधिनियम की धारा 2 (एम) के तहत 'मजदूरी' के अंतर्गत आता है। इसलिए, दुर्घटना के समय कुल मासिक वेतन की गणना 2425 रुपये प्रति माह की गई थी। अधिनियम की धारा 4 के अनुसार, जहां किसी कामगार की मृत्यु चोट लगने के कारण होती है, मुआवजे की कुल राशि मृतक के मासिक वेतन के पचास प्रतिशत के बराबर राशि होगी, जिसे संबंधित कारक से गुणा किया जाएगा।
अधिनियम की चतुर्थ अनुसूची के अनुसार, 24 वर्षों के लिए प्रासंगिक कारक 218.47 है। गणना इस प्रकार की गई: (2425 का 50%) X 218.47 = 2,64,898.87 रुपये। पहले प्रतिवादी को 2,64,895/- रुपये का मुआवजा, दुर्घटना की तारीख से वसूली तक 12% प्रति वर्ष की दर से ब्याज के साथ देने का निर्देश दिया गया।
अपील पर हाईकार्ट ने 30 नवंबर 2018 को अपने फैसले से मुआवजे को 1,98,807.70 रुपये और ब्याज को 12% से घटाकर 8% कर दिया। हाईकोर्ट ने मुआवजे के दावे को कम करते हुए इस आधार पर कार्यवाही की है कि रिकॉर्ड में ऐसी कोई सामग्री नहीं है जो यह इंगित करे कि मृत्यु के समय मृतक का वेतन 2,400 रुपये प्रति माह था।
परिणामस्वरूप हाईकोर्ट 910 रुपये के न्यूनतम वेतन के आधार पर आगे बढ़ा, जिस पर 218.47 का गुणक लागू किया गया, जिसके परिणामस्वरूप 1,98,807.70 रुपये का मुआवजा मिला।
ब्याज के मुद्दे पर कोर्ट ने कहा कि दुर्घटना की तारीख से मुआवजे पर ब्याज देने का अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं है। इसके बाद, ब्याज का भुगतान अवॉर्ड की तारीख से वसूली तक 12% से घटाकर 8% कर दिया गया था।
जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस बोपन्ना की पीठ ने कहा, "इस न्यायालय के समक्ष अपील यह दर्शाती है कि मुकदमेबाजी की प्रक्रिया वर्षों तक किस तरह से चल सकती है। नतीजतन एक गरीब किसान परिवार एक मामूली मुआवजे को पाने की लंबी लड़ाई में उलझ जाता है।
पीठ ने कहा,
वास्तव में,हमारा स्पष्ट रूप से यह विचार है कि बीमाकर्ता के लिए मामले के तथ्यों के आधार पर मुआवजे की इतनी कम राशि के मामले को हाईकोर्ट में ले जाने और एक गरीब किसान और उसकी पत्नी को उलझाने कोई औचित्य नहीं था, जो पहले ही अपने कमाऊ बेटे को खो चुके हैं।"
'हाईकोर्ट के लिए अर्वार्ड कम करने का कोई आधार नहीं'
पीठ ने कहा कि वर्तमान मामले में दावा इस आधार पर किया गया था कि मृतक प्रति माह 2,400 रुपये कमा रहा था। दावा नियोक्ता द्वारा विवादित नहीं था।
कोर्ट ने कहा,
"हाईकोर्ट के पास इस आधार पर मुआवजे को कम करने का कोई आधार नहीं था कि दुर्घटना के समय मृतक जो वेतन पा रहा था, उसे स्थापित करने के लिए कोई सामग्री नहीं थी।
कोर्ट ने कहा,
"दूसरे प्रतिवादी ने अपने लिखित बयान और हलफनामे में कहा है कि मृतक सहायक को 2400 रुपये प्रति माह का वेतन मिल रहा था। इस बयान को विवादित नहीं किया गया है। मृतक एक अनौपचारिक कर्मचारी था, जो एक ट्रांसपोर्ट में एक सहायक के रूप में काम कर रहा था। दुर्घटना के समय 2400 रुपये का अल्प वेतन अर्जित करता था। ऐसे कर्मचारियों को मजदूरी के भुगतान पर रसीदें प्रदान नहीं की जाती हैं, और न ही यह उचित रूप से माना जा सकता है कि नियोक्ता मजदूरी के भुगतान के लिए रसीदें अपने कर्मचारियों को रसीदे मेंटेन करता होगा। हाईकोर्ट के पास यह मानने का कोई कारण नहीं था कि भुगतान की गई मजदूरी को स्थापित करने के लिए कोई सामग्री नहीं थी।"
पीठ ने यह विचार व्यक्त करते हुए कि हाईकोर्ट के फैसले और आदेश को रद्द करना होगा, कहा कि अधिनियम की धारा 2 (एम) 'मजदूरी' को परिभाषित करती है जिसमें "कोई भी विशेषाधिकार या लाभ शामिल है जो पैसे में अनुमानित होने में सक्षम है...."इसलिए, नियोक्ता द्वारा भोजन व्यय के रूप में भुगतान किया गया 25 रुपये 'विशेष व्यय' के अंतर्गत आता है जो वह अपने रोजगार की प्रकृति से हकदार है जिसे विशेष रूप से प्रावधान से बाहर रखा गया है।
पीठ ने कहा, इसलिए भुगतान किया जाने वाला कुल मुआवजा इस प्रकार है: (2400 का 50%) x 218.47 = रु 2,62,164"। कोर्ट ने पहले प्रतिवादी को दुर्घटना की तारीख से वसूली तक 12% के ब्याज के साथ 2,62,164 रुपये का भुगतान करने का निर्देश दिया।
केस शीर्षक: शांतिलता सेठी और अन्य बनाम मेसर्स डिवीजनल मैनेजर, द न्यू इंडिया इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और अन्य।