राजस्थान धर्मांतरण विरोधी कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई, जारी किया नोटिस
सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध अधिनियम, 2025 के प्रावधानों को असंवैधानिक बताते हुए चुनौती देने वाली जनहित याचिका पर नोटिस जारी किया।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने राजस्थान सरकार से जवाब तलब करते हुए यह आदेश पारित किया। याचिकाकर्ताओं की ओर से सीनियर एडवोकेट अभय महादेव थिप्से पेश हुए।
गौरतलब है कि इसी तरह की जनहित याचिका (दशरथ कुमार हिनुनिया बनाम राजस्थान राज्य) न्यायालय के समक्ष सूचीबद्ध थी, जिस पर सीनियर एडवोकेट हुज़ेफ़ा अहमदी ने बहस की। इस याचिका पर भी नोटिस जारी किया गया। साथ ही एक स्थगन आवेदन भी दिया गया।
सुनवाई के दौरान, खंडपीठ ने पूछा कि याचिका राजस्थान हाईकोर्ट में क्यों नहीं दायर की गई। अहमदी ने बताया कि धर्मांतरण विरोधी कानूनों पर इसी तरह के मामले सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं और अन्य कोर्ट से उन्हें ट्रांसफर कर दिया गया। सीनियर वकील ने यह भी दावा किया कि राजस्थान का धर्मांतरण विरोधी कानून पहले पारित अन्य अधिनियमों की तुलना में "सबसे गंभीर" है। इसके अलावा, यह भी दलील दी गई कि सामूहिक धर्मांतरण, जिसे दो से ज़्यादा लोगों के धर्मांतरण के रूप में परिभाषित किया गया, उसके लिए जुर्माना "बेहद भारी" है, क्योंकि यह 20 लाख रुपये तक जा सकता है। सीनियर वकील ने यह भी बताया कि इस अधिनियम के तहत सज़ा न्यूनतम 20 साल से लेकर आजीवन कारावास तक हो सकती है।
संक्षेप में मामला
एडवोकेट और रिसर्चर एम हुज़ैफ़ा और सीनिययर ह्युमन राइट्स एक्टिविस्ट जॉन दयाल द्वारा दायर वर्तमान याचिका, 2025 अधिनियम के प्रमुख प्रावधानों को चुनौती देती है। इसमें तर्क दिया गया कि यह अधिनियम, विशेष रूप से इसकी धाराएं 5(6), 10(3), 12 और 13, असंवैधानिक हैं, क्योंकि ये कार्यकारी अधिकारियों को न्यायिक रूप से दोषसिद्धि का निर्णय होने से पहले ही "अवैध धर्मांतरण" के मामलों से जुड़ी निजी संपत्तियों को ज़ब्त करने और ध्वस्त करने का अधिकार देती हैं।
उदाहरण के लिए, अधिनियम की धारा 5(6) में प्रावधान है कि जहां किसी व्यक्ति का एक धर्म से दूसरे धर्म में अवैध रूप से धर्मांतरण हुआ है, वहां की संपत्ति, जिला मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा उचित जांच के बाद जब्त कर ली जाएगी।
धारा 10(3) के अनुसार, यदि कोई संस्था या संगठन अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन करता पाया जाता है तो राज्य सरकार (या उसके द्वारा नियुक्त कोई अन्य सक्षम प्राधिकारी) उस संस्था या संगठन का राज्य के भीतर कोई भी गतिविधि करने के लिए रजिस्ट्रेशन या लाइसेंस हमेशा के लिए रद्द कर सकती है। इसके अलावा, संस्था या संगठन की संपत्ति जब्त की जा सकती है। उनके वित्तीय खातों पर रोक लगाई जा सकती है। 1 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया जाएगा।
धारा 12 में प्रावधान है: "ऐसी प्रत्येक संपत्ति या परिसर जहां अवैध रूप से धर्मांतरण या सामूहिक धर्मांतरण हुआ है, जांच के बाद जिला मजिस्ट्रेट के कार्यालय या राज्य सरकार द्वारा इस संबंध में नियुक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अधिनियम के तहत जब्त और जब्त किया जा सकेगा।"
धारा 13 अवैध निर्माणों के विध्वंस से संबंधित है और इसमें निम्नलिखित प्रावधान हैं: "यदि ऐसी संपत्ति या परिसर पर कोई अवैध/अनधिकृत निर्माण/संरचना है, जहां अवैध रूप से धर्मांतरण या सामूहिक धर्मांतरण किया गया तो उस संबंध में जिला मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा जांच के बाद उसे ध्वस्त किया जा सकेगा।
स्पष्टीकरण-I स्थानीय नगरपालिका कानूनों द्वारा निर्धारित समय के अनुसार या ऐसे नोटिस की तामील की तारीख से पंद्रह दिनों के भीतर, जो भी बाद में हो, पूर्व कारण बताओ नोटिस दिए बिना कोई भी विध्वंस नहीं किया जाएगा।
II. यदि ऐसा अवैध/अनधिकृत निर्माण/संरचना किसी सार्वजनिक स्थान जैसे सड़क, गली, फुटपाथ, रेलवे लाइन से सटे या किसी नदी या जल निकाय में है। ऐसे मामलों में भी जहां न्यायालय द्वारा विध्वंस का आदेश दिया गया, कारण बताओ नोटिस दिए जाने के बहत्तर घंटे के भीतर विध्वंस किया जाएगा।"
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि विवादित प्रावधान दंडात्मक विध्वंस और सामूहिक दंड के समान हैं, जो संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 22 और 300ए के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। वे आगे दावा करते हैं कि प्रशासनिक अधिकारियों को बिना मुकदमे के विध्वंस और ज़ब्ती करने का अधिकार देकर यह अधिनियम न्यायिक शक्तियों का हनन करता है। विधि के शासन और शक्तियों के पृथक्करण को कमज़ोर करता है।
याचिकाकर्ताओं के अनुसार, यह अधिनियम सुप्रीम कोर्ट के 2024 के उस फैसले का भी खंडन करता है, जिसमें न्यायेतर विध्वंस पर रोक लगाई गई और यह उस कार्रवाई को विधायी वैधता प्रदान करने का प्रयास करता है, जिसे न्यायालय पहले ही असंवैधानिक घोषित कर चुका है। यह चेतावनी दी गई कि इस तरह के उपाय अल्पसंख्यक और हाशिए के समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करते हैं, जिससे उनके आश्रय, आजीविका और उचित प्रक्रिया के अधिकार को खतरा होता है।
इस पृष्ठभूमि में याचिकाकर्ता न्यायालय से इन प्रावधानों को रद्द करने का आग्रह करते हैं।
यह याचिका AoR यशवंत सिंह के माध्यम से दायर की गई।
Case Title: M HUZAIFA AND ANR. Versus STATE OF RAJASTHAN AND ORS., W.P.(C) No. 1047/2025