सुप्रीम कोर्ट ने 1990 के हिरासत में मौत के मामले में संजीव भट्ट की आजीवन कारावास की सजा निलंबित करने से किया इनकार
सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात के निष्कासित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट द्वारा दायर आवेदन खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने 1990 के हिरासत में मौत के मामले में उन्हें दी गई आजीवन कारावास की सजा को निलंबित करने की मांग की थी।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ ने संजीव भट्ट को जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया। हालांकि, खंडपीठ ने निर्देश दिया कि उनकी आपराधिक अपील की सुनवाई में तेजी लाई जाए।
जस्टिस मेहता ने आदेश सुनाया,
"हम अपीलकर्ता को जमानत पर रिहा करने के लिए इच्छुक नहीं हैं। यहां की गई हमारी टिप्पणियां केवल जमानत तक ही सीमित हैं। अपीलकर्ता और सह-आरोपी की अपीलों पर इसका कोई असर नहीं होगा। अपीलकर्ता द्वारा मांगी गई प्रार्थनाओं को खारिज किया जाता है। हालांकि, अपील की सुनवाई में तेजी लाने का निर्देश दिया जाता है।"
28 फरवरी को कोर्ट ने आदेश सुरक्षित रख लिया। उन्होंने भट्ट द्वारा दायर विशेष अनुमति याचिका में दायर आवेदन पर सुनवाई की, जिसमें गुजरात हाईकोर्ट के जनवरी, 2024 के फैसले को चुनौती दी गई, जिसमें दोषसिद्धि और सजा के खिलाफ उनकी अपील को खारिज कर दिया गया।
यह घटना नवंबर, 1990 में प्रभुदास माधवजी वैष्णानी नामक व्यक्ति की मौत से संबंधित है, जो कथित तौर पर हिरासत में यातना के कारण हुई। उस समय भट्ट जामनगर के सहायक पुलिस अधीक्षक थे, जिन्होंने अन्य अधिकारियों के साथ मिलकर भारत बंद के दौरान दंगा करने के आरोप में वैष्णानी सहित लगभग 133 लोगों को हिरासत में लिया था।
नौ दिनों तक हिरासत में रखे गए वैष्णानी की जमानत पर रिहा होने के दस दिन बाद मृत्यु हो गई।
उनकी मृत्यु के बाद हिरासत में यातना के आरोपों पर भट्ट और कुछ अन्य अधिकारियों के खिलाफ FIR दर्ज की गई। मामले का संज्ञान 1995 में मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया। हालांकि, गुजरात हाईकोर्ट द्वारा रोक लगाए जाने के कारण 2011 तक मुकदमा स्थगित रहा। बाद में रोक हटा दी गई और मुकदमा शुरू हुआ।
जून, 2019 में राज्य के जामनगर जिले के सेशन कोर्ट ने भट्ट और एक पुलिस कांस्टेबल (प्रवीनसिंह जाला) को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302 (हत्या), 323 (स्वेच्छा से चोट पहुंचाने की सजा) और 506 (1) (आपराधिक धमकी के अपराध के लिए सजा) के तहत दोषी ठहराते हुए मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई।
उनके अलावा, पुलिस कांस्टेबल प्रवीणसिंह जडेजा, अनोपसिंह जेठवा और केशुभा डोलुभा जडेजा और पुलिस उप-निरीक्षक शैलेश पंड्या और दीपककुमार भगवानदास शाह को भी हिरासत में यातना देने का दोषी पाया गया और उन्हें IPC की धारा 323 और 506 (1) के तहत दोषी ठहराया गया।
अपनी सजा को चुनौती देते हुए जाला, भट्ट, शाह और पांड्या ने 2019 में हाईकोर्ट का रुख किया।
उनकी आपराधिक अपील खारिज करते हुए जस्टिस आशुतोष शास्त्री और जस्टिस संदीप एन. भट्ट की खंडपीठ ने कहा कि जामनगर कोर्ट द्वारा दिया गया तर्क सही था। इसलिए सजा के आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं था।
संजीव भट्ट की याचिका राजेश इनामदार AoR के माध्यम से दायर की गई।
सुप्रीम कोर्ट में संजीव भट्ट के लिए सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने प्रस्तुत किया कि वह पांच साल से अधिक समय से हिरासत में है। सिब्बल ने तर्क दिया कि भट्ट को दोषी ठहराने के लिए कोई सबूत नहीं है और मेडिकल साक्ष्य से पता चलता है कि पीड़ित प्रभुदास माधवजी वैष्णानी की मृत्यु पहले से मौजूद मेडिकल स्थितियों के कारण हुई। उन्होंने दावा किया कि किसी भी शारीरिक यातना का कोई मेडिकल साक्ष्य नहीं था। उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि पीड़िता की हिरासत से रिहाई के लगभग बीस दिन बाद मौत हुई। सिब्बल ने कहा कि हालांकि पीड़ित ने रिहाई के तुरंत बाद फैमिली डॉक्टर से मुलाकात की थी, लेकिन उसने पुलिस यातना की कोई शिकायत नहीं की।
गुजरात राज्य की ओर से सीनियर एडवोकेट मनिंदर सिंह ने याचिकाकर्ता की दलीलों का खंडन किया और कहा कि मेडिकल साक्ष्यों से पता चलता है कि पीड़ित की मौत गुर्दे की विफलता के कारण हुई, जो पुलिस द्वारा रात भर उसे जबरन उठक-बैठक और रेंगने के लिए मजबूर किए जाने के कारण हुई। इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि यातना के कारण गुर्दे की समस्याएं हुईं।
सिंह ने यह भी बताया कि भट्ट अन्य मामले में 20 साल की सजा काट रहा है, जो एक व्यक्ति को फंसाने के लिए ड्रग्स रखने से संबंधित है। सिंह ने तर्क दिया कि सजा को निलंबित करने के लिए कोई उचित परिस्थितियाँ नहीं हैं, रिकॉर्ड पर मौजूद ठोस सबूतों और दोषी के अन्य आपराधिक इतिहास को देखते हुए।
केस टाइटल: संजीव कुमार राजेंद्रभाई भट्ट बनाम गुजरात राज्य और अन्य | एसएलपी (सीआरएल) नंबर 11736/2024