समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने के लिए दायर याचिकाओं पर संवैधानिक पीठ विचार करेगी, सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ का फैसला
सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने के लिए दायर याचिकाओं को संवैधानिक पीठ को सौंप दिया। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, और जस्टिस जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा, यह एक "मौलिक" मुद्दा है।
बेंच ने आदेश में कहा,
"हमारा विचार है कि यह उचित होगा कि पेश किए गए मुद्दों को पांच जजों की पीठ के समक्ष संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के आलोक में हल करने के लिए प्रस्तुत किया जाए। इस प्रकार, हम मुद्दे को संवैधानिक पीठ के समक्ष रखने का निर्देश देते हैं।"
मामले को सुनवाई के लिए 18 अप्रैल 2023 को सूचीबद्ध किया गया है।
मामले में शामिल मुद्दों के अवलोकन के लिए पीठ ने सोमवार को याचिकाओं पर संक्षिप्त सुनवाई की।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट नीरज किशन कौल ने कहा कि भारत में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए या तो विशेष विवाह अधिनियम को समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए सामंजस्यपूर्ण रूप से समझा जा सकता है या पीठ नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसले पर भरोसा कर सकती है। (जिसने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया)
उन्होंने बताया कि विशेष विवाह अधिनियम लिंग तटस्थ शब्दों का उपयोग करता है। इसकी धारा 5 में कहा गया है, "इस अधिनियम के तहत किन्हीं दो व्यक्तियों के बीच विवाह संपन्न हो सकता है।"
यूनियन की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि यूनियन ने विशिष्ट खंडों को दिखाया था, जिन्हें केवल जैविक पुरुषों और महिलाओं पर लागू किया जाता है। केंद्र सरकार ने समलैंगिक विवाह के लिए कानूनी मान्यता का विरोध किया। और कहा कि विवाह की धारणा ही विपरीत लिंग के दो व्यक्तियों के बीच साथ पर आधारित है।
मामले में एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट केवी विश्वनाथन ने दलील दी कि केंद्र की ओर से दिया गया हलफनाम ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों के संरक्षण अधिनियम पर बात नहीं करता है। उन्होंने कहा कि यह केवल वैधानिक व्याख्या का मुद्दा नहीं है बल्कि संविधान से प्राप्त अधिकारों की मान्यता का मुद्दा है।
उन्होंने कहा, "यह मामला ट्रांसजेंडर कानून या हिंदू विवाह अधिनियम के बारे में नहीं है। यह अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 19 (1) (ए) के बारे में है। पार्टनर चुनने का अधिकार अभिव्यक्ति का अधिकार है, गरिमा का अधिकार है। यह एक प्राकृतिक अधिकार, अधिकार का दावा है। इसके निहितार्थ हैं।"
कौल ने केएस पुट्टास्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, दीपिका सिंह बनाम केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण और नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के फैसलों पर भरोसा करते हुए तर्क दिया- "इन निर्णयों में कोर्ट की ओर से मान्यता प्राप्त अधिकार विशेष विवाह अधिनियम की संकीर्ण व्याख्या से बहुत परे हैं।"
एसजी मेहता ने कहा कि जहां तक प्यार या स्नेह व्यक्त करने के अधिकार और पसंद की स्वतंत्रता का संबंध है, नवतेज सिंह जौहर के फैसले में पहले ही यह तय किया जा चुका है।
उन्होंने कहा कि नवतेज सिंह जौहर के फैसले में विशेष रूप से कहा गया है कि विवाह का अधिकार समलैंगिक जोड़ों को नहीं दिया गया है। एसजी ने यह भी कहा कि आईपीसी की धारा 377 के डिक्रिमिनलाइजेशन के बाद, एलजीबीटीक्यू समुदाय के खिलाफ "कोई कलंक" नहीं है।
उन्होंने कहा कि समलैंगिक विवाह को मान्यता देने से गोद लेने जैसे अन्य अधिकारों को बढ़ावा मिलेगा और इसलिए, यह संसद के लिए तय करने का विषय है, जिसे समाज के विभिन्न वर्गों के विचारों को सुनने के बाद तय किया जाना चाहिए।
मेहता ने कहा,
"संसद को एक ऐसे बच्चे के मनोविज्ञान को देखना होगा, जिसे एक पिता और एक मां ने नहीं पाला है- ये मुद्दे हैं। संसद को बहस करनी होगी और इस पर विचार करना होगा कि क्या हमारे लोकाचार को ध्यान में रखते हुए ऐसा किया जा सकता है।"
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने बीच में टोकते हुए कहा-
"एसजी महोदय, समलैंगिक जोड़े के गोद लिए हुए बच्चा, जरूरी नहीं कि समलैंगिक ही होगा।"
याचिकाओं में हिंदू विवाह अधिनियम, विदेशी विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के प्रावधानों को समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं देने की सीमा तक चुनौती दी गई है।
जनवरी में सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने इस मुद्दे पर हाईकोर्ट में लंबित याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर कर दिया था।
केस टाइटल: सुप्रियो बनाम यूओआई डब्ल्यूपी(सी) नंबर 1011/2022 पीआईएल