सुप्रीम कोर्ट ने निजी स्कूलों को RTE फंड जारी न करने पर भी प्रतिपूर्ति करने के हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ तमिलनाडु सरकार की याचिका पर नोटिस जारी किया
सुप्रीम कोर्ट आज मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने पर विचार करने के लिए सहमत हो गया, जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकार आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के छात्रों को प्रवेश देने वाले निजी स्कूलों को प्रतिपूर्ति करने के लिए शिक्षा के अधिकार अधिनियम की धारा 12(2) के तहत अपनी वैधानिक ज़िम्मेदारी से बचने के लिए केंद्र सरकार से धनराशि न मिलने का हवाला नहीं दे सकती।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की पीठ ने इस मामले में केंद्र सरकार और निजी प्रतिवादी को नोटिस जारी किया। तमिलनाडु राज्य की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने ज़ोर देकर कहा कि इस आदेश से राज्य पर अत्यधिक वित्तीय बोझ पड़ेगा।
राज्य ने तर्क दिया कि तमिलनाडु बच्चों के निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिकार नियम, 2011 के नियम 9 के साथ आरटीई की धारा 12(2) के तहत प्रतिपूर्ति करने के हाईकोर्ट के निर्देशों से "याचिकाकर्ता राज्य पर 314,98,01,025 रुपये (केवल तीन सौ चौदह करोड़ अट्ठानवे लाख एक हजार पच्चीस रुपये) का वित्तीय बोझ पड़ा।"
विल्सन ने दलील दी कि शैक्षणिक वर्ष 2021-2022 और 2022-2023 के लिए, केंद्र 342.69 करोड़ रुपये, जो उसका 60% हिस्सा है, जारी करने में विफल रहा। हालांकि, पीठ ने बताया कि राज्य सरकार द्वारा इस मुद्दे पर दायर एक समान मुकदमा पहले से ही लंबित है।
राज्य ने यह भी ज़ोर देकर कहा कि हाईकोर्ट के समक्ष, मूल याचिकाकर्ता ने केवल शैक्षणिक वर्ष 2025-2026 के लिए शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत प्रवेश प्रक्रिया शुरू करने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देने की मांग की थी।
इसमें ज़ोर देकर कहा गया,
"इन याचिकाओं में, आरटीई अधिनियम, 2009 की धारा 12(2) के तहत ऐसे निजी स्कूलों को समय पर प्रतिपूर्ति राशि वितरित करने या समग्र शिक्षा योजना से शिक्षा के अधिकार घटक को अलग करने के निर्देश देने संबंधी किसी भी राहत की कोई चर्चा नहीं है।"
जस्टिस जीआर स्वामीनाथन और जस्टिस वी लक्ष्मीनारायणन की हाईकोर्ट की पीठ ने यह आदेश उस याचिका का निपटारा करते हुए पारित किया जिसमें राज्य को शैक्षणिक वर्ष 2025-2026 के लिए शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 के तहत प्रवेश प्रक्रिया तुरंत शुरू करने के निर्देश देने की मांग की गई थी।
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत केंद्र सरकार द्वारा राज्यों को देय धनराशि को राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के कार्यान्वयन से जोड़ने की आवश्यकता नहीं है। साथ ही, उसने सुप्रीम कोर्ट में मूल मुकदमे के लंबित होने का हवाला देते हुए आरटीई निधि जारी करने के लिए केंद्र को कोई निर्देश देने से परहेज किया।
साथ ही, हाईकोर्ट ने कहा कि धारा 12(2) के तहत प्रतिपूर्ति करना प्राथमिक दायित्व राज्य का है।
हाईकोर्ट ने कहा, "राज्य सरकार का निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को प्रतिपूर्ति करना एक अनिवार्य दायित्व है। केंद्र सरकार से धनराशि न मिलने को इस वैधानिक दायित्व से बचने का कारण नहीं बताया जा सकता।"
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर याचिका में, राज्य ने तर्क दिया कि अधिनियम के तहत केंद्र की भी समवर्ती ज़िम्मेदारी है।
याचिका में कहा गया है,
"शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 (आरटीई अधिनियम) की धारा 7, अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन हेतु धन उपलब्ध कराने हेतु केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों की समवर्ती ज़िम्मेदारी की परिकल्पना करती है। हालांकि, यह समवर्ती ज़िम्मेदारी केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के बीच समान रूप से वितरित नहीं होती है। इसलिए, ऐसे सभी दायित्वों को आरटीई अधिनियम की धारा 7 के अंतर्गत समझा और व्याख्यायित किया जाना चाहिए। धारा 7 के पीछे विधायी उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि राज्य को धन की कमी का सामना न करना पड़े जिससे अधिनियम के प्रावधानों के कार्यान्वयन में विफलता हो, इसीलिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों को समवर्ती ज़िम्मेदारी सौंपी गई है।"
याचिका में आगे कहा गया है कि हाईकोर्ट ने इस तथ्य की अनदेखी की कि समग्र शिक्षा योजना के तहत, परियोजना अनुमोदन बोर्ड (पीएबी), जो केंद्र सरकार के कार्यों और कर्तव्यों का भी निर्वहन करता है और कुल बजट के साथ-साथ केंद्र और राज्य सरकारों के बीच साझा की जाने वाली कुल धनराशि को भी मंजूरी देता है।
यह याचिका एओआर सबरीश सुब्रमण्यन के माध्यम से दायर की गई थी।