'बढ़ी हुई सज़ा का पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू होना अनुच्छेद 20(1) का उल्लंघन': सुप्रीम कोर्ट ने POCSO Act मामले में सज़ा में संशोधन किया
सुप्रीम कोर्ट ने 25 जुलाई को यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO Act) के तहत मामले में निचली अदालत द्वारा पूर्वव्यापी प्रभाव से सुनाई गई आजीवन कारावास की सज़ा रद्द कर दी, जहां दोषी को 5 साल की नाबालिग बच्ची के साथ बलात्कार का दोषी ठहराया गया था।
सज़ा बरकरार रखते हुए न्यायालय ने सज़ा को केवल POCSO Act की धारा 6 के अनुसार आजीवन कारावास में बदल दिया, जिसे 2019 में संशोधित किया गया था।
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संदीप मेहता की खंडपीठ छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 376एबी और यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 की धारा 6 के तहत अपीलकर्ता की दोषसिद्धि बरकरार रखी गई और उसे 10,000 रुपये के जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यहां, आजीवन कारावास की सज़ा POCSO की संशोधित धारा 6 के अनुसार दी गई, जिसका अर्थ है उसके शेष प्राकृतिक जीवनकाल के लिए कारावास।
वर्तमान मामला केवल अपीलकर्ता पर लगाई गई सज़ा के प्रश्न तक ही सीमित है।
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने POCSO की संशोधित धारा 6 को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने में गलती की है। उल्लेखनीय है कि संशोधन से पहले धारा 6 के तहत सज़ा 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक थी।
संशोधित प्रावधान में कहा गया:
"जो कोई भी गंभीर प्रवेशन यौन हमला करता है, उसे कम से कम बीस वर्ष की कठोर कारावास की सज़ा दी जाएगी, लेकिन जो आजीवन कारावास तक बढ़ सकती है, जिसका अर्थ उस व्यक्ति के शेष प्राकृतिक जीवनकाल के लिए कारावास होगा और वह जुर्माने या मृत्युदंड से भी दण्डित किया जा सकता है।"
अपीलकर्ता के वकील ने ज़ोर देकर कहा कि घटना 20 मई, 2019 को हुई, लेकिन संशोधित प्रावधान 16 अगस्त, 2019 को लागू किया गया।
इस तर्क में दम पाते हुए न्यायालय ने कहा कि निचली अदालत द्वारा संशोधित प्रावधान को पूर्वव्यापी रूप से लागू करना गलत था। न्यायालय ने यह भी माना कि संविधान का अनुच्छेद 20(1) कानून में किसी भी आपराधिक प्रावधान, विशेष रूप से लगाए गए दंड को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने पर स्पष्ट रूप से रोक लगाता है।
अनुच्छेद 20(1) में कहा गया,
"किसी भी व्यक्ति को किसी भी अपराध के लिए दोषी नहीं ठहराया जाएगा, सिवाय उस अपराध के समय लागू कानून के उल्लंघन के, जिस पर अपराध का आरोप लगाया गया, और न ही उस पर उस दंड से अधिक दंड लगाया जाएगा, जो अपराध के समय लागू कानून के तहत लगाया जा सकता था।"
न्यायालय ने माना कि निचली अदालत का सज़ा देने का आदेश अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है।
यह टिप्पणी की गई:
"अनुच्छेद 20(1) के तहत पूर्वव्यापी रूप से कठोर दंड लगाने पर संवैधानिक प्रतिबंध स्पष्ट और पूर्ण है। निचली अदालत ने POCSO Act की धारा 6 में 2019 के संशोधन द्वारा दी गई बढ़ी हुई सज़ा को लागू करते हुए अपीलकर्ता को अपराध के समय लागू कानून के तहत अनुमेय दंड से अधिक सज़ा दी, जो स्पष्ट रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 20(1) में निहित प्रतिबंध का उल्लंघन है।"
यह माना गया कि 'आजीवन कारावास' में संशोधन, जिसमें शेष प्राकृतिक जीवन भी शामिल है, अपराध के समय अस्तित्व में नहीं है। इसलिए केवल असंशोधित POCSO Act की धारा 6 ही लागू होगी।
संशोधित प्रावधान के अनुसार,
"आजीवन कारावास, अर्थात् शेष प्राकृतिक जीवनकाल" की सजा, घटना की तिथि 20.05.2019 को वैधानिक ढांचे में मौजूद नहीं थी। असंशोधित धारा 6 के तहत अधिकतम अनुमेय सजा पारंपरिक अर्थों में आजीवन कारावास थी, न कि शेष प्राकृतिक जीवनकाल तक कारावास।"
न्यायालय ने अपीलकर्ता की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन असंशोधित क़ानून के तहत समझे गए अनुसार, सजा को कठोर आजीवन कारावास में संशोधित कर दिया और शेष प्राकृतिक जीवनकाल के लिए कारावास की सजा को रद्द कर दिया। ₹10,000/- का जुर्माना भी बरकरार रखा गया।
Case Details : SATAURAM MANDAVI v. THE STATE OF CHHATTISGARH & ANR.| ARISING OUT OF SLP (CRL) NO. 13834 of 2024