राष्ट्रपति संदर्भ: कर्नाटक, केरल और पंजाब ने सुप्रीम कोर्ट में कहा– राज्यपाल को बिल अनिश्चितकाल तक रोकने का अधिकार नहीं
कर्नाटक, केरल और पंजाब राज्यों ने आज राष्ट्रपति को संदर्भित मामले में अपनी दलीलें पूरी कीं, जो बिलों पर सहमति (assent) देने की समयसीमा से जुड़ा है। राज्यों ने कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक ढांचे में राज्यपाल को कोई विवेकाधिकार (discretion) नहीं दिया गया है।
सीनियर एडवोकेट के.के. वेणुगोपाल (केरल की ओर से) ने जोर देकर कहा कि राज्यपाल को इस तरह विवेकाधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह मनी बिल तक को रोक दें। वहीं, कर्नाटक की ओर से पेश हुए सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों “औपचारिक प्रमुख” (titular heads) हैं और वे कैबिनेट मंत्रियों की सलाह और सहायता पर ही अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हैं।
सुब्रमण्यम ने कहा कि राज्यपाल को ऐसे अधिकार नहीं दिए जा सकते जो उन्हें "सर्वव्यापी प्राधिकारी" बना दें। अनुच्छेद 200 का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सहमति देने का अधिकार कोई विधायी शक्ति नहीं है, बल्कि यह केवल विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है और राज्यपाल पर यह संवैधानिक दायित्व है कि वह बिल पर शीघ्र कार्रवाई करें।
इसी तरह वेणुगोपाल ने भी कहा कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को "फौरन" कार्रवाई करनी चाहिए। उन्होंने अनुच्छेद 109 का उदाहरण दिया, जिसमें मनी बिल राज्यसभा के पास भेजे जाने पर यदि 14 दिन में कोई कार्रवाई नहीं होती, तो इसे दोनों सदनों द्वारा पारित मान लिया जाता है।
वेणुगोपाल ने केरल के पूर्व राज्यपाल (जो अब बिहार के राज्यपाल हैं) की एक प्रथा का भी उल्लेख किया कि जब भी कोई मंत्रालय विधानसभा में बिल प्रस्तुत करता था और वह बिल राज्यपाल के पास आता था, तो राज्यपाल संबंधित मंत्री और अधिकारियों से मुलाकात कर विषय को समझते थे। उन्होंने कहा कि यही शासन की सही प्रक्रिया है और राज्यपाल की भी जनता के कल्याण में उतनी ही भूमिका है जितनी निर्वाचित सरकार की।
पंजाब की ओर से सीनियर एडवोकेट अरविंद पी. दातार ने कहा कि “यथाशीघ्र” (as soon as possible) शब्द का अर्थ बिल की प्रकृति पर निर्भर करेगा। साधारण संशोधन वाले बिल में अधिक समय नहीं लगेगा, लेकिन जटिल बिलों में (जहाँ केंद्रीय कानून से टकराव हो सकता है) राज्यपाल को समय लेकर एजी (महाधिवक्ता) से राय लेनी पड़ सकती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राज्यपाल किसी बिल को यह कहकर रोक दें कि वह केंद्र के कानून से टकरा रहा है।
दातार ने कहा कि केंद्र की यह दलील कि राज्यपाल बिल को साधारण रूप से रोक सकते हैं, एक “संवैधानिक विरोधाभास” (constitutional paradox) पैदा करेगी। उन्होंने अनुच्छेद 254 का हवाला देते हुए कहा कि यदि बिल केंद्र के कानून से टकराता है, तो अनुच्छेद 254(2) का रास्ता अपनाना होगा। यदि राज्य विधानमंडल राज्यपाल को राष्ट्रपति की सहमति के लिए बिल सुरक्षित करने को कहता है, तो अनुच्छेद 254(2) के तहत वह बिल उस राज्य के लिए लागू हो सकता है। लेकिन यदि राज्य यह प्रक्रिया नहीं अपनाते, तो अनुच्छेद 254(1) के तहत वह बिल केंद्र के कानून से टकराने की स्थिति में शून्य हो जाएगा।
दातार ने निश्चित समयसीमा तय करने की वकालत की ताकि स्पष्टता और पूर्वानुमान बना रहे। उन्होंने कहा कि “संवैधानिक सामंजस्य” (constitutional congruence) के लिए जो चीज संविधान में निहित है, उसे स्पष्ट करना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा कि नेचुरल रिसोर्सेज अलोकेशन (2जी रेफरेंस) में दिया गया कानून गलत था, क्योंकि इससे अदालत अपनी सलाहकारी अधिकारिता में किसी पहले से तय फैसले को स्पष्ट या मूल्यांकन कर सकती है। अनुच्छेद 143 के तहत अधिकार केवल सलाह देने का है, न कि किसी फैसले की शुद्धता की जाँच का।
हालाँकि दातार ने संदर्भ (reference) की प्रासंगिकता पर सवाल नहीं उठाया, लेकिन कहा कि जिन प्रश्नों का समाधान पहले ही हो चुका है, उन्हें अब राष्ट्रपति संदर्भ में नहीं उठाया जा सकता। “एक बार जब कोई प्रश्न सुलझ चुका है, तो वह अब राष्ट्रपति संदर्भ का विषय नहीं बन सकता।”
अंत में, तेलंगाना की ओर से सीनियर एडवोकेट एस. निरंजन रेड्डी ने अपनी दलीलें शुरू कीं, जो कल जारी रहेंगी। उन्होंने कहा, “राज्यपाल के पास कोई विवेकाधिकार नहीं है। उनके पास कोई विकल्प नहीं है। सभी विकल्प केवल मंत्रिपरिषद के पास हैं और राज्यपाल बाध्य हैं उन्हें मानने के लिए। यही मूल भावना थी।”
इस मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पीठ कर रही है, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं। यह सुनवाई पिछले सात दिनों से चल रही है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु पहले तीन दिनों में अपनी दलीलें पूरी कर चुके हैं।
तमिलनाडु की ओर से सीनियर एडवोकेट अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था कि राज्यपाल को कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें राष्ट्रपति की सहमति के लिए बिल सुरक्षित करने के मामलों में भी मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही काम करना होगा। वहीं पश्चिम बंगाल की ओर से सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा था कि इस शक्ति का प्रयोग करते समय राज्यपाल स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं।