जस्टिस बीवी नागरत्ना बन सकती हैं भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश, उन्होंने समाज कल्याण के कई महत्वपूर्ण निर्णय दिए
भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के लंबे इंतजार का अंत जस्टिस बीवी नागरत्ना के साथ हो सकता है। वह वरिष्ठता सूची के अनुसार सितंबर, 2027 में CJI बन सकती हैं। हालांकि CJI के रूप में उनका कार्यकाल केवल 36 दिनों का ही होगा, यदि नियुक्तियां वरिष्ठता के अनुसार होती रहीं।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ईएस वेंकटरमैया की बेटी जस्टिस नागरत्ना को 1987 में बैंगलोर बार में शाामिल किया गया था। उन्हें 18-2-2008 को कर्नाटक उच्च न्यायालय के अतिरिक्त जज के रूप में और 17-02-2010 को स्थायी जज के रूप में नियुक्त किया गया था।
कर्नाटक हाईकोर्ट के जज के रूप में उन्होंने सामाजिक कल्याण के लिए अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित किया और हाशिए के लोगों के अधिकारों की रक्षा की। साथ ही उन्होंने कंपनी अधिनियम, नागरिक मुकदमे और आपराधिक मुकदमे से संबंधित जटिल मसलों में कानून की व्याख्या भी की।
नाजायज शादी से पैदा हुए बच्चों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने की मांग
जस्टिस नागरत्ना ने बच्चों के अधिकारों को बनाए रखने और उनकी रक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 24 जून, 2021 को के संतोषा और कर्नाटक पावर ट्रांसमिशन कॉर्पोरेशन लिमिटेड के मामले में दिए फैसले में उन्होंने अवैध विवाह से पैदा हुए बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून में संशोधन करने की संसद से अपील की थी।
फैसले में कहा गया था, "बेशक, यह संसद पर है कि वह हिंदू विवाह अधिनियम और विशेष विवाह अधिनियम के अलावा व्यक्तिगत कानून के तहत अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करे। हालांकि, मौजूदा मामले के सीमित उद्देश्य के लिए, जहां तक अनुकंपा नियुक्ति का संदर्भ है, हम पाते हैं कि अन्य व्यक्तिगत कानूनों के तहत अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे, जहां वैधता प्रदान करने का कोई प्रावधान नहीं है, उन्हें भी हिंदू विवाह अधिनियम या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को जैसा कानून संरक्षण होना चाहिए, वैसा ही संरक्षण दिया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा था "इस दुनिया में कोई भी बच्चा बिना पिता और पिता के पैदा नहीं होता है। एक बच्चे की उसके जन्म में कोई भूमिका नहीं होती है। इसलिए, कानून को इस तथ्य को पहचानना चाहिए कि नाजायज माता-पिता हो सकते हैं, लेकिन नाजायज बच्चे नहीं।"
NLSIU के अधिवास आरक्षण को रद्द करना
जस्टिस नागरत्ना ने वो निर्णय लिखा था, जिसने उस कर्नाटक संशोधन को रद्द कर दिया था, जिसने नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU), बेंगलुरु ( मास्टर बालचंदर कृष्णन बनाम कर्नाटक राज्य) में 25% अधिवास आरक्षण की शुरुआत की थी। फैसले में जस्टिस नागरत्ना ने कहा, "NLSIU एक अद्वितीय राष्ट्रीय संस्थान था और इसे एक राज्य विश्वविद्यालय नहीं माना जा सकता है"।
राज्य सरकार के इस तर्क को खारिज करते हुए कि आरक्षण का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि लॉ स्कूल से स्नातक करने वाले कुछ छात्र कर्नाटक में बने रहेंगे, फैसले में कहा गया था-
"आज के भारतीय आर्थिक लोकाचार में, जहां उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण तीन मंत्र हैं, विशेष रूप से 1991 के बाद की अर्थव्यवस्था में सुधारों के बाद, कर्नाटक के छात्रों से केवल कर्नाटक में रहने और प्रैक्टिस करने की अपेक्षा करना अनुचित है। उनकी आकांक्षाएं कर्नाटक तक ही सीमित नहीं हो सकती हैं, जब भारत के अन्य हिस्सों और विदेशों में अवसर उपलब्ध हैं। उन्हें केवल इस राज्य से नहीं बांधा जा सकता है, जब उच्च शिक्षा या पेशेवर काम के लिए पूरे भारत के साथ-साथ विदेशों में भी रास्ते उपलब्ध हैं।
इसलिए, कोई भी कर्नाटक के छात्रों को प्रदान किया गया कोई भी क्षैतिज आरक्षण राज्य के हित को आगे नहीं बढ़ाएंगे। कर्नाटक के छात्रों पर राज्य में रहने की कोई बाध्यता नहीं है और न ही उस पर आक्षेपित आरक्षण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से ऐसा वादा लादा जा सकता है, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (जी) के तहत उनकी स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।"
बच्चों की शिक्षा के लिए अग्रणी
जस्टिस नागरत्ना के निर्देशों ने डिजिटल-डिवाइड के बदसूरत चेहरे को सामने लाया, जिसने महामारी के बीच शिक्षा के अधिकार में बाधा पैदा की थी। सर्वेक्षण रिपोर्ट ने संकेत दिया कि 24.50 प्रतिशत छात्रों के पास ई-कक्षाओं में भाग लेने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं है।
जस्टिस नागरत्ना ने 15 जुलाई को अपने आदेश में राज्य सरकार को तकनीकी विभाजन को पाटने के लिए एक कार्य योजना बनाने का निर्देश देते हुए कहा, "आर्थिक पिछड़ापन या गरीबी को शिक्षा में निरंतरता की कमी का कारण नहीं बनना चाहिए"।
इसी तरह, राज्य के ग्रामीण / दूरस्थ क्षेत्रों में छात्रों को बुनियादी शिक्षा प्रदान करने की उनकी चिंता भारतीय भ्रष्टाचार विरोधी परिषद और कर्नाटक राज्य के मामले में उनके आदेश से स्पष्ट थी। एक जुलाई को अपने आदेश में , अदालत ने कहा, "बच्चों को स्कूल पसंद नहीं आने का एक कारण वहां का वातावरण, दीवारें टूटना, लीकेज होना, पानी की आपूर्ति नहीं होना, बिजली नहीं होना आदि है, खासकर ग्रामीण इलाकों में।"
अदालत ने इस मामले में कुछ विशेषज्ञ समूहों से सरकारी/सहायता प्राप्त स्कूल के बुनियादी ढांचे के विकास के लिए सरकार द्वारा उचित तरीके से 100 करोड़ रुपये खर्च करने के लिए एक रोड मैप बनाने में सहायता करने का आह्वान किया है।
बालिका स्वच्छता और शिक्षा
जस्टिस नागरत्ना ने अपने आदेशों में बालिकाओं के लिए विशेष चिंता दिखाई है। उन्होंने SUCHI योजना के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए निर्देश दिए हैं, जिसके तहत स्कूलों में पढ़ने वाली किशोरियों को सैनिटरी नैपकिन वितरित किए जाते हैं।
जस्टिस नागरत्ना ने एक अप्रैल को अपने आदेश में कहा था, "किशोरियों को सैनिटरी नैपकिन प्रदान करके लड़कियों के लिए अलग शौचालय और स्वच्छता प्रदान करना, सशक्तिकरण का एक उदाहरण है। यदि आप युवा महिलाओं और युवा लड़कियों को सशक्त बनाना चाहते हैं, तो ये सुविधाएं प्रदान करें। "
उन्होंने आगे कहा था, "संविधान का अनुच्छेद 21-ए, 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का एक मौलिक अधिकार है। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मौलिक अधिकार के तहत किशोर लड़कियों को भी शामिल किया जाएगा। 6 से 14 वर्ष की आयु के बीच, जिन्होंने यौवन प्राप्त किया है और वे शुचि योजना के लाभार्थी होंगे।"
"हमारे विचार में स्कूलों में किशोरियों के लिए अलग शौचालय का प्रावधान और ऐसी किशोरियों को नियमित रूप से सैनिटरी नैपकिन के प्रावधान न केवल बालिकाओं के सशक्तिकरण के उदाहरण हैं बल्कि अनुच्छेद 21-ए के कार्यान्वयन की दिशा में एक कदम है, जहां तक 6 से 14 वर्ष की आयु की लड़कियों का संबंध है।"
जस्टिस नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ ने योजना के क्रियान्वयन में खामियां देखने के बाद संबंधित स्वास्थ्य सचिव को तलब करने के निर्देश भी जारी किए थे।
बालिका छात्रावास के लिए भूमि का आवंटन अनुच्छेद 15(3) के अनुरूप
27 जुलाई, 2021 को प्रमोदा और कर्नाटक राज्य के मामले में दिए अपने आदेश में जस्टिस नागरत्ना ने उडुपी जिले के उपायुक्त के फैसले को बरकरार रखा, जिसके तहत उसने मैट्रिक के बाद की छात्राओं के लिए छात्रावास के निर्माण के लिए दो जमीनें आरक्षित की थी।
पॉक्सो के आरोपी सिर्फ देरी के कारण जमानत के हकदार नहीं
जस्टिस नागरत्ना की अगुवाई वाली खंडपीठ ने एक संदर्भ का जवाब देते हुए कहा कि यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम की धारा 35 का पालन न करने से आरोपी को डिफॉल्ट जमानत पर रिहा होने का अधिकार नहीं होगा।
जस्टिस नागरत्ना के अन्य महत्वपूर्ण निर्णय
'कॉफी बागानों' में बनाई गई प्रतिभूतियों को ऋणों की वसूली के लिए लागू किया जा सकता है क्योंकि कर्नाटक राज्य के संबंध में, सरफेसी कानून के तहत कॉफी बागान कृषि भूमि के दायरे में नहीं आएंगे। ( यूएम रमेश राव और यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, केस नंबर: डब्ल्यूए 538/2020 )
किसी कर्मचारी की मृत्यु के कारण वित्तीय लाभ प्राप्त करने भर से आश्रितों को अनुकंपा नियुक्ति प्राप्त करने से वंचित नहीं किया जाएगा। ( किरण पी और आयुक्त बंगलौर विकास प्राधिकरण, डब्ल्यूए 8/2020 )
यह मानते हुए कि "एक बंदी द्वारा किए गए एक प्रतिनिधित्व पर विचार, निवारक निरोध के आदेश की पुष्टि के बाद प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों और संविधान के अनुच्छेद 21 के साथ पढ़ा जाना है", जस्टिस नागरत्ना ने बंदी के प्रतिनिधित्व पर विचार करने पर दिशानिर्देश जारी किए थे। (रिजवान पाशा और पुलिस आयुक्त, WPHC29/2021 )।
कंपनी अधिनियम की धारा 164(2)(ए) के तहत अयोग्यता के लिए एक अप्रैल 2014 से पहले की अवधि पर विचार नहीं किया जा सकता है। याचिकाओं ने सितंबर 2017 में वाणिज्यिक मामलों के मंत्रालय द्वारा प्रकाशित सूची को चुनौती दी थी, जिसमें धारा 164 (2) (ए) और धारा 167 (1) (ए) के तहत लगभग तीन लाख निदेशकों को लगातार तीन वर्षों की एक अवधि के लिए वार्षिक रिटर्न और विवरण दाखिल करने में विफल रहने के लिए अयोग्य घोषित किया गया था। ( यशोधरा श्रॉफ और यूनियन ऑफ इंडिया)
जस्टिस नागरत्ना मुख्य न्यायाधीश एएस ओका के नेतृत्व वाली पीठ का भी हिस्सा थे, जिसने राज्य में COVID-19 प्रबंधन की निगरानी की थी। पीठ ने लॉकडाउन के दौरान प्रभावित प्रवासी श्रमिकों के कल्याण के लिए कई निर्देश पारित किए थे।