जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने पेलेट गन के इस्तेमाल के खिलाफ दायर जनहित याचिका खारिज की

Update: 2020-03-13 02:15 GMT

जम्मू एंड कश्मीर हाईकोर्ट ने बुधवार को उस जनहित याचिका को खारिज कर दिया है जिसमें पेलेट गन के इस्तेमाल पर रोक लगाने की मांग की गई थी।

जम्मू और कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन श्रीनगर ने 2016 में एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें जम्मू-कश्मीर में भीड़ नियंत्रण के लिए 12-बोर पेलेट गन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने और सुरक्षा बल के उन अधिकारियों और कर्मियों पर मुकदमा चलाने की मांग की गई थी, जिन्होंने प्रदर्शनकारियों और आस-पास से गुजरने वाले या दर्शकों पर पेलेट गन का इस्तेमाल किया था। साथ ही घायल व्यक्तियों को मुआवजा देने की भी मांग की गई थी।

जस्टिस अली मोहम्मद माग्रे और न्यायमूर्ति धीरज सिंह ठाकुर की पीठ ने इस मामले में पहले ही पारित अंतरिम आदेश को पूर्ण बना दिया है, जिसमें दुर्लभ और चरम स्थितियों में पेलेट गन के इस्तेमाल पर रोक लगाने से इंकार कर दिया गया था।

पीठ ने कहा कि-

"यह साफ है कि जब भी अनियंत्रित भीड़ द्वारा हिंसा होती है तो बल का उपयोग आवश्यक है। उस समय या संबंधित स्थिति /स्थान पर किस तरह के बल का उपयोग किया जाना है, यह उस स्थान के प्रभारी व्यक्तियों द्वारा तय किया जाना चाहिए जहां हमला हो रहा है।

सक्षम फोरम /प्राधिकरण की तरफ से प्रदान किए जाने वाले किसी निष्कर्ष के बिना, रिट क्षेत्राधिकार में यह अदालत इस बात को तय नहीं कर सकती है कि विशेष घटना में बल का उपयोग अत्यधिक था या नहीं।"

10 फरवरी को, हाईकोर्ट ने इस याचिका में ''एसोसिएशन ऑफ पेलेट सर्वाइवर्स'' की तरफ से दायर हस्तक्षेप आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि यह ''अनावश्यक'' था क्योंकि ''कथित पेलेट सर्वाइवर्स'' के हित या मामले को बार एसोसिएशन की तरफ से पहले ही उठाया जा चुका है।

मुआवजे के मामले में , पीठ ने कहा कि यह ऐसा मामला नहीं है जहां सुरक्षा बल के कर्मियों के गलत काम के लिए या उनके द्वारा किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के लिए मुआवजे का दावा किया जा रहा है, लेकिन यह वो मामला है, जिसमें सुरक्षा बल के जवान अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे और संबंधित अवधि के दौरान हिंसक भीड़ द्वारा उन पर हमला किया जा रहा था।

इस संबंध में सरकार द्वारा की गई कार्यवाही पर ध्यान देते हुए, पीठ ने कहा कि

" हमारा विचार है कि जहां तक संवैधानिक अपकृत्य या क्षति का सवाल है, राज्य ने अपने दायित्व को पूरा किया है, क्योंकि उन्होंने उपर्युक्त अधिकांश घायल व्यक्तियों को मुआवजे का भुगतान किया है और शेष के संबंध में यह स्पष्ट कहा गया है कि उनके मामले सरकार की नीति के अनुसार निर्धारित समय में तय कर दिए जाएंगे।

हमें लगता है कि यदि किसी भी व्यक्ति को यह महसूस होता है कि उसे उसको लगी चोट के अनुसार पर्याप्त मुआवजा नहीं दिया गया है, तो इस तरह के मुआवजे का दावा करने के लिए उसे कोई नहीं रोक सकता है क्योंकि वह निजी कानून के तहत राज्य से उसको हुई क्षति या हानि के लिए सक्षम अधिकारक्षेत्र की एक अदालत में एक मुकदमे के माध्यम से यह मांग कर सकता है।"

इस जनहित याचिका में यह अदालत, भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र में, पुलिस कार्रवाई में कथित रूप से घायल हर ऐसे व्यक्ति की संतुष्टि के लिए राहत नहीं दे सकती है। खासतौर पर तब जब न्यायालय ने अपने दिनांक 21 सितम्बर 2016 के आदेश में कहा था या निष्कर्ष दिया था कि लगभग हर दिन, विरोध प्रदर्शनों की आड़ में, सुरक्षा कर्मियों, उनके शिविरों और पुलिस स्टेशनों को अनियंत्रित भीड़ द्वारा निशाना बनाया गया था।

वहीं जब विरोध प्रदर्शन शांतिपूर्ण नहीं है और भारी और हिंसक भीड़ द्वारा सुरक्षा व्यक्तियों पर हमला किया जाता है, तो उन्हें आवश्यक रूप से अपनी आत्मरक्षा में और सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा के लिए बल का उपयोग करना होगा। इसलिए सख्ती से यह अदालत कह रही है कि यह ऐसा मामला नहीं है जहां सुरक्षा बल के कर्मियों के गलत काम के लिए या उनके द्वारा किसी भी नागरिक के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करने के लिए मुआवजे की मांग की जा रही है या दावा किया जा रहा है, लेकिन यह वो मामला है,जिसमें सुरक्षा बल के जवान अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे और संबंधित अवधि के दौरान हिंसक भीड़ द्वारा उन पर हमला किया जा रहा था। किसी भी मामले में, जब सरकार ने अपने दायित्व का निर्वहन कर दिया है, तो इस जनहित याचिका में कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है।

विशेष रूप से, जब जम्मू और कश्मीर बार एसोसिएशन (मामले में याचिकाकर्ता) के अध्यक्ष, मियां अब्दुल कयूम, 5 अगस्त से निवारक निरोध या प्रतिबंधात्मक नजरबंद हैं। यह जनहित याचिका 2016 से चल रही है।

विभिन्न सरकारी और गैर-सरकारी आंकड़ों का हवाला देते हुए, ''द हिंदू'' ने जून 2019 में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें बताया गया था कि कश्मीर में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शनों को रोकने के लिए 2010 में पेलेट शॉटगन का उपयोग शुरू होने के बाद से पीड़ितों की संख्या एक अनुमान के अनुसार 10,000 से 20,000 व्यक्ति है। 'इंडिया स्पेंड' के एक अध्ययन के अनुसार, 2010 से कश्मीर में पेलेट गन का उपयोग किए जाने से 24 लोगों की जान चली गई है और 139 लोगों को अंधा कर दिया है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, विरोध प्रदर्शन के दौरान भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पेलेट गन को गैर घातक हथियार माना जाता है। 

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