हाईकोर्ट अनुच्छेद 226/ 227 के तहत अपनी शक्तियों के आधार पर जमानत पर फैसला करते समय अन्य निर्देश जारी सकते हैं : सुप्रीम कोर्ट

Update: 2023-05-16 02:47 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में माना कि हाईकोर्ट के पास जमानत याचिका पर फैसला करते समय भी, संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत अपनी शक्तियों के आधार पर, न्याय के हित में अन्य निर्देश जारी करने की शक्ति है। (संजय दुबे बनाम मध्य प्रदेश राज्य)

इस मामले में, हाईकोर्ट ने अपीलकर्ता, एक पुलिस अधिकारी, के खिलाफ एक नाबालिग लड़की से बलात्कार के एक मामले की जांच करते समय कर्तव्य में लापरवाही के लिए विभागीय कार्रवाई का निर्देश दिया था। हाईकोर्ट ने आरोपी की जमानत अर्जी पर विचार करते हुए अपीलकर्ता के खिलाफ उसकी चूक के लिए कार्रवाई का निर्देश दिया।

जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा:

"हाईकोर्ट एक संवैधानिक न्यायालय है, जिसके पास शक्तियों का व्यापक भंडार है। हाईकोर्ट के पास संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत मूल, अपीलीय और स्वत: संज्ञान शक्तियां हैं। संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत शक्तियां उन स्थितियों का ख्याल रखने के लिए हैं जहां हाईकोर्ट को लगता है कि न्याय के हित में कुछ निर्देश/आदेश आवश्यक हैं। 

हाईकोर्ट के आदेश को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि जमानत अर्जी पर फैसला करते समय अदालत को किसी अन्य दायरे में नहीं आना चाहिए था। अपीलकर्ता ने तर्क दिया था कि जब आवेदन केवल जमानत से संबंधित है, तो अभियुक्त के खिलाफ विभागीय जांच करने का निर्देश जरूरी नहीं था।

हालांकि, जस्टिस अमानुल्लाह द्वारा लिखित सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कहा गया है:

"हालांकि आमतौर पर हाईकोर्ट की कार्रवाई का उचित तरीका खुद को संहिता की धारा 439 के तहत आरोपी द्वारा की गई जमानत की प्रार्थना की स्वीकृति/अस्वीकृति तक ही सीमित रखना चाहिए था; हालांकि, हाईकोर्ट , अपनी राय में, पुलिस/जांच तंत्र की ओर से गंभीर चूकों से संतुष्ट होने के कारण, जिससे न्याय वितरण प्रणाली पर घातक परिणाम हो सकते हैं, अपनी आंखें बंद नहीं कर सकता था।

आईपीसी की धारा 376 और 506 सहित कई धाराओं के तहत सलीमनाबाद पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी दर्ज की गई थी, जहां अपीलकर्ता एक इंस्पेक्टर था। मामले से संबंधित फोरेंसिक साइंस लेबोरेटरी (एफएसएल) की रिपोर्ट पुलिस अधीक्षक के कार्यालय को भेज दी गई थी, जिसने इसे अपीलकर्ता को दिशा-निर्देशों के अनुसार डीएनए जांच करने का निर्देश देते हुए भेज दिया था। हालांकि, अपीलकर्ता ऐसा करने में विफल रहा।

जमानत पर विचार के दौरान हाईकोर्ट के समक्ष केस डायरी पेश करने के बावजूद एफएसएल रिपोर्ट शामिल नहीं की गई। हाईकोर्ट ने इस संबंध में पुलिस अधीक्षक की व्यक्तिगत उपस्थिति की मांग की जिन्होंने अदालत के समक्ष प्रस्तुत किया कि अपीलकर्ता उनके निर्देश के बावजूद डीएनए परीक्षण कराने में विफल रहा।

राज्य के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने अवज्ञा, अक्षमता और कर्तव्य की अवहेलना का प्रदर्शन किया था और उसके खिलाफ कार्यवाही की जा सकती है। यह प्रस्तुत किया गया था कि अपीलकर्ता के खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की गई थी लेकिन अंतरिम रोक के कारण वो आगे नहीं की जा सकी थी।

शीर्ष अदालत ने कहा कि पुलिस अधीक्षक ने पहले ही हाईकोर्ट के समक्ष कहा था कि वह अपीलकर्ता के खिलाफ कर्तव्य में लापरवाही के लिए कार्रवाई करेंगे और इसलिए अदालत द्वारा अपीलकर्ता के खिलाफ कार्यवाही करने का 'निर्देश' पहले से ही जो पहले से था, उसका एक दोहराव था।

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट की एकल पीठ को अनुच्छेद 226 के तहत विचार के लिए कारण और बिंदु तैयार करके अलग कार्यवाही शुरू करनी चाहिए थी और इस मामले को हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के पास भेज देना चाहिए था , जो तब इसे उपयुक्त पीठ के समक्ष रख सकते थे। उपयुक्त पीठ तब अपीलकर्ता के खिलाफ कानून के अनुसार कार्यवाही कर सकती थी।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि ये आदेश सत्र न्यायालय का होता, तो इस मामले को देखते हुए जो कारक इसे छोड़ देते, वे 'बिल्कुल अलग' होते।

"हालांकि अपीलकर्ता के पास एक बिंदु हो सकता है कि संहिता की धारा 439 के तहत एक याचिका में, संबंधित न्यायालय को विशिष्ट मुद्दे पर विचार करने से परे यात्रा नहीं करनी चाहिए। हिरासत में किसी अभियुक्त को जमानत देना है या जमानत को अस्वीकार करना है, यह दृष्टि नहीं खोई जा सकती है कि संबंधित न्यायालय 'सत्र न्यायालय' नहीं था, बल्कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 214 के तहत स्थापित मध्य प्रदेश राज्य के लिए हाईकोर्ट था ।"

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि पुलिस अधीक्षक ने अपीलकर्ता के खिलाफ विभागीय कार्रवाई करने के फैसले के बारे में हाईकोर्ट को सूचित किया था और यह कि हाईकोर्ट का 'निर्देश' एसपी द्वारा दिए गए बयान की पुनरावृत्ति थी।

हाईकोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने से इंकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एक चेतावनी भी जोड़ी:

"हम यह जोड़ने में जल्दबाज़ी करते हैं कि हमारी टिप्पणियों का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि हाईकोर्ट को जमानत के स्तर पर जांच की प्रभावकारिता में जाना चाहिए, और वर्तमान निर्णय को जांच एजेंसियों/अधिकारियों को सभी मामलों में घेरने के लिए गलत नहीं समझा जाना चाहिए। "

केस - संजय दुबे बनाम मध्य प्रदेश और अन्य

साइटेशन : 2023 लाइवलॉ (SC) 435

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