हाईकोर्ट ने पक्षकारों की मनोवैज्ञानिक संतुष्टि के लिए ट्रायल की समय-सीमा तय की, ऐसे आदेश कारगर नहीं: सुप्रीम कोर्ट

Update: 2024-10-05 04:23 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट द्वारा ट्रायल कोर्ट के लंबित मामलों पर विचार किए बिना जमानत देने के बजाय ट्रायल कोर्ट को तय समय-सीमा के भीतर मुकदमा पूरा करने का निर्देश देने की प्रवृत्ति अस्वीकार्य है।

जस्टिस ओक ने टिप्पणी की,

“अब हम आपको हाईकोर्ट में चलन के बारे में बताएंगे। मामला जमानत देने के लिए बनाया जाता है, अदालतें जमानत देने में अनिच्छुक होती हैं। फिर अदालतें कहती हैं कि ठीक है, ट्रायल कोर्ट में लंबित मामलों को जाने बिना ही 6 महीने के भीतर मामले का फैसला कर लें, जिससे सभी को मनोवैज्ञानिक संतुष्टि मिल सके। ऐसे आदेश कारगर नहीं हैं। संविधान पीठ के फैसले के आलोक में ऐसे आदेश स्वीकार्य नहीं हैं।”

जस्टिस अभय ओक और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने डकैती और हत्या के प्रयास के मामले में दो आरोपियों को जमानत दी, क्योंकि वे लंबे समय से जेल में बंद हैं। मुकदमे की प्रगति धीमी है।

बेलियाघाटा थाने में आईपीसी की धारा 394, 395, 397, 307 और 120बी के साथ शस्त्र अधिनियम की धारा 25(1बी)(ए) और 27 के तहत आरोपी और अन्य के खिलाफ मामला दर्ज किया गया। कलकत्ता हाईकोर्ट ने जमानत देने से इनकार किया और निचली अदालत को एक साल के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह का आदेश अस्वीकार्य है।

न्यायालय ने कहा,

“हमने बार-बार देखा है कि जमानत याचिकाओं को खारिज करते हुए हाईकोर्ट समय-सीमा के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश देते हुए आदेश पारित कर रहे हैं। इस तथ्य के अलावा कि इस तरह के निर्देश संविधान पीठ द्वारा हाईकोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में निर्धारित कानून के विपरीत हैं, ऐसे आदेश निचली अदालतों पर अनावश्यक दबाव डालते हैं, जो पहले से ही बहुत काम से लदे हुए हैं। जब तक तथ्यात्मक स्थिति असाधारण और असाधारण न हो, हाईकोर्ट को इस तरह के आदेश पारित करने से बचना चाहिए, जैसा कि संविधान पीठ ने उपरोक्त निर्णय में कहा है।”

पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट ने मामले में नोटिस जारी करते हुए इस बात पर जोर दिया कि सिर्फ इस आधार पर जमानत खारिज नहीं की जा सकती कि मुकदमे में तेजी लाई जाएगी।

कोर्ट ने कहा कि आरोपी दो साल और नौ महीने से हिरासत में है। सूचीबद्ध 72 गवाहों में से सिर्फ तीन की ही जांच की गई।

सुनवाई के दौरान शिकायतकर्ता के वकील ने जमानत के खिलाफ दलील देते हुए कहा कि यह गंभीर मामला है और जमानत देना "न्याय का मजाक" होगा।

जवाब में जस्टिस ओक ने कहा,

"हमें इसकी चिंता नहीं है, हम भड़कते नहीं हैं। हमें ऐसी टिप्पणियों से भड़कने के लिए प्रशिक्षित नहीं किया गया।"

अपने आदेश में कोर्ट ने राज्य की दलील दर्ज की कि आरोपी का कोई पिछला आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है। वास्तविक शिकायतकर्ता ने जमानत याचिका का कड़ा विरोध किया। हालांकि, हिरासत की लंबी अवधि और मुकदमे में सीमित प्रगति को देखते हुए कोर्ट ने हाईकोर्ट के लिए जमानत खारिज करने का कोई कारण नहीं पाया, खासकर तब जब आरोपी के खिलाफ कोई पूर्ववृत्त नहीं था।

कोर्ट ने कहा कि मुकदमे के लिए समय सीमा तय करने वाले आदेश पहले से ही काम कर रहे ट्रायल कोर्ट पर बोझ बढ़ाते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने पहले भी कई बार मामलों के निपटारे के लिए समयसीमा तय करने की प्रवृत्ति को चिन्हित किया। अन्य मामले में पीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट में जजों के भारी कार्यभार को देखते हुए निष्पादन मामले के निपटारे के लिए समयसीमा के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया।

इसी पीठ ने इस वर्ष जुलाई में पटना हाईकोर्ट के उस आदेश खारिज किया, जिसमें आपराधिक मामले में निचली अदालत को एक वर्ष के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया गया, यह देखते हुए कि हाईकोर्ट ने निचली अदालतों में लंबित मामलों की बड़ी संख्या पर विचार नहीं किया।

अगस्त में पीठ ने संविधान पीठ के फैसले का हवाला देते हुए मौखिक रूप से कहा कि वह हाईकोर्ट में सुनवाई में तेजी लाने की मांग करने वाली याचिकाओं पर विचार नहीं कर सकती।

केस टाइटल- रूप बहादुर मगर @ संकी @ राबिन बनाम पश्चिम बंगाल राज्य

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