'अच्छा सुझाव': वोटर लिस्टर में एक से ज़्यादा प्रविष्टियों का पता लगाने के लिए डी-डुप्लीकेशन सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (11 नवंबर) को वोटर लिस्ट में एक ही व्यक्ति की कई प्रविष्टियों की पहचान के लिए डी-डुप्लीकेशन सॉफ़्टवेयर के इस्तेमाल के सुझाव का मौखिक रूप से समर्थन किया।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स द्वारा दायर आवेदन पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें भारत के चुनाव आयोग (ECI) को कई राज्यों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) के दौरान कुछ निर्देश देने की मांग की गई।
NGO की ओर से वकील प्रशांत भूषण ने पीठ को बताया कि डी-डुप्लीकेशन सॉफ़्टवेयर है, जिसका इस्तेमाल चुनाव आयोग कई प्रविष्टियों को हटाने के लिए कर सकता है।
जस्टिस कांत ने कहा,
"यह एक अच्छा सुझाव है; इसमें कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।"
आवेदन में एक और निर्देश यह मांगा गया कि चुनाव आयोग को SIR के ज़रिए मतदाताओं की नागरिकता का निर्धारण न करने का निर्देश दिया जाए, क्योंकि चुनाव आयोग के पास नागरिकता सत्यापन का अधिकार नहीं है।
जस्टिस कांत ने कहा,
"अगर उनके पास शक्ति है तो वे निर्णय लेंगे। अगर नहीं तो वे नहीं लेंगे। यह मुद्दा अंतिम सुनवाई में उठेगा।"
आवेदन में अगला निर्देश यह मांगा गया कि चुनाव आयोग को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया जाए कि गणना फॉर्म जमा करने वाले सभी मतदाताओं को पावती पर्ची दी जाए।
भूषण ने कहा,
"ये फॉर्म वेबसाइटों पर अपलोड नहीं किए जा रहे हैं। इसलिए लोगों के पास इस बात का प्रमाण नहीं है कि उन्होंने गणना फॉर्म जमा किया।"
इसके बाद, भूषण ने आग्रह किया कि चुनाव आयोग को 2002 की मतदाता सूची को मशीन-पठनीय रूप में उपलब्ध कराना चाहिए ताकि मतदाता 2002 की मतदाता सूची में अपने माता-पिता के नाम आसानी से खोज सकें। इस बिंदु पर खंडपीठ ने कमलनाथ मामले में 2018 के आदेश का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि मतदाता सूची को मशीन-पठनीय रूप में प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस बागची ने कहा कि गोपनीयता और डेटा सुरक्षा का प्रश्न भी इसमें शामिल है, क्योंकि सूची को मशीन-पठनीय बनाने से तीसरे पक्ष द्वारा "डेटा-माइनिंग" हो सकती है।
जस्टिस बागची ने कहा,
"भारतीय नागरिकों के डेटा की सामूहिक सुरक्षा...डेटा सुरक्षा का मुद्दा है। डेटा अपने आप में एक मूल्यवान संपत्ति है और चुनाव आयोग इसे अपने भरोसे में रखता है।"
जस्टिस बागची ने सुझाव दिया कि ऐसी व्यवस्था हो सकती है, जिससे प्रत्येक व्यक्ति की प्रविष्टि पासवर्ड द्वारा सुरक्षित रहे।
उन्होंने आगे कहा,
"इसके बजाय, चुनाव आयोग के एन्क्रिप्टेड डेटाबेस पर डेटा सत्यापित करने के लिए व्यक्ति को पासवर्ड दिया जा सकता है।"
भूषण ने पूछा,
"मशीन-पठनीय प्रारूप में क्या समस्या है? अगर बड़े कंप्यूटर संसाधनों वाले लोग सूची को मशीन-पठनीय रूप में परिवर्तित कर सकते हैं तो चुनाव आयोग द्वारा उस रूप में सूची देने में क्या समस्या है?"
जस्टिस बागची ने पूछा,
"आप अपने घर पर ताला लगाते हैं, लेकिन फिर भी उसे तोड़ा जा सकता है। क्या इसे ताला न लगाने का कोई उचित कारण है?"
अंततः, खंडपीठ ने ADR के आवेदन पर चुनाव आयोग से जवाब मांगा। खंडपीठ ने भूषण से सूची में पासवर्ड-संरक्षित प्रविष्टि रखने के सुझाव पर विचार-विमर्श करने को भी कहा।
अदालत इस मामले पर 26 नवंबर को पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में SIR को चुनौती देने वाली अन्य याचिकाओं के साथ सुनवाई करेगी।
Case : Association for Democratic Reforms and Ors. v. Election Commission of India, W.P.(C) No. 640/2025