पूर्व जजों, वकीलों ने रोहिंग्याओं पर टिप्पणियों पर आपत्ति जताते हुए CJI सूर्यकांत को लिखा पत्र
पूर्व जजों, प्रैक्टिशनर वकीलों और कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी एंड रिफॉर्म्स ने चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) सूर्यकांत को एक खुला लेटर लिखा, जिसमें उन्होंने हाल ही में हुई सुनवाई में CJI की बेंच द्वारा रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में की गई “बेबुनियाद टिप्पणियों” पर अपनी चिंता जताई।
बता दें, 2 दिसंबर को रोहिंग्याओं के संबंध में दायर याचिका पर तीखी प्रतिक्रिया देते हुए CJI कांत की अगुवाई वाली बेंच ने पूछा था कि क्या भारत सरकार ने रोहिंग्याओं को 'शरणार्थी' घोषित करने का कोई आदेश जारी किया।
CJI ने कहा,
"भारत सरकार का उन्हें (रोहिंग्याओं को) रिफ्यूजी घोषित करने का ऑर्डर कहां है? रिफ्यूजी एक अच्छी तरह से तय कानूनी शब्द है और उन्हें घोषित करने के लिए सरकार की तरफ से एक तय अथॉरिटी है। अगर किसी रिफ्यूजी का कोई कानूनी स्टेटस नहीं है, और कोई घुसपैठिया है, और वह गैर-कानूनी तरीके से घुसता है तो क्या हमारी यह ज़िम्मेदारी है कि हम उसे यहां रखें?"
इन बातों पर, खासकर रोहिंग्या रिफ्यूजियों को भारत में घुसने के लिए “गैर-कानूनी घुसपैठिए खोदने वाले” मानने पर पूर्व जजों ने CJI कांत को लिखा, जिसमें कहा गया,
“बेंच की बातें बुनियादी संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ हैं। इनका असर रोहिंग्या रिफ्यूजियों को अमानवीय बनाने वाला रहा है, जिनकी बराबर इंसानियत और बराबर मानवाधिकार संविधान, हमारे कानूनों और इंटरनेशनल कानूनों से सुरक्षित हैं।”
बेंच के कथित बयानों पर खास तौर पर आपत्ति जताई गई, जिसमें रोहिंग्या के रिफ्यूजी के तौर पर कानूनी दर्जे पर सवाल उठाए गए, उनकी तुलना भारत में गैर-कानूनी तरीके से घुसने वाले घुसपैठियों से की गई, उन लोगों का ज़िक्र किया गया, जो गैर-कानूनी तरीके से घुसने के लिए सुरंग खोदते हैं, यह सवाल किया गया कि क्या ऐसे लोग खाना, रहने की जगह और पढ़ाई के हकदार हैं, रिफ्यूजी को संविधान से मिले बुनियादी हकों से इनकार करने के लिए घरेलू गरीबी का हवाला दिया गया और यह सुझाव दिया गया कि भारत में उनके साथ होने वाले बर्ताव में उन्हें थर्ड डिग्री के तरीकों से बचाया जाए।
पूर्व जजों, वकीलों और CJAR ने रोहिंग्याओं की बुरी हालत पर रोशनी डाली और बताया कि यूनाइटेड नेशंस ने रोहिंग्या को “दुनिया में सबसे ज़्यादा सताया जाने वाला माइनॉरिटी” बताया।
पत्र में कहा गया,
“वे बौद्ध बहुल म्यांमार में एक एथनिक माइनॉरिटी हैं, जिन्होंने दशकों तक हिंसा और भेदभाव सहा है। नागरिकता न मिलने के कारण रोहिंग्या बिना देश के हैं। वे पिछले कई सालों में लहरों की तरह पड़ोसी देशों में भागे हैं, जिसे इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस ने सेना के हाथों एथनिक क्लींजिंग और नरसंहार बताया। वे भारत भाग रहे हैं, जैसे उनके पहले के सदियों के रिफ्यूजी, बेसिक सुरक्षा की तलाश में।”
पत्र में कहा गया कि CJI सिर्फ़ एक कानूनी अधिकारी ही नहीं हैं, बल्कि गरीबों के अधिकारों के कस्टोडियन और आखिरी फैसला सुनाने वाले भी हैं, जिनकी बातों का देश की सोच में वज़न होता है और उनका असर दूर तक होता है।
पत्र में आगे कहा गया,
“ज्यूडिशियरी के हेड के तौर पर चीफ जस्टिस सिर्फ़ लीगल ऑफिसर नहीं हैं — बल्कि गरीबों, बेसहारा लोगों और हाशिए पर पड़े लोगों के अधिकारों के कस्टोडियन और आखिरी जज भी हैं। आपके शब्दों का सिर्फ़ कोर्टरूम में ही नहीं बल्कि देश की अंतरात्मा में भी वज़न होता है और इसका हाईकोर्ट, लोअर ज्यूडिशियरी और दूसरी सरकारी अथॉरिटीज़ पर सीधा असर पड़ता है।”
पूर्व जजों के मुताबिक, 2 दिसंबर को की गई बातें नरसंहार के ज़ुल्म से भाग रहे लोगों को अमानवीय बनाती हैं और ज्यूडिशियरी की नैतिक अथॉरिटी को कमज़ोर करती हैं।
पत्र में कहा गया,
“रोहिंग्या, असल में भारत में रहने वाले किसी भी व्यक्ति की तरह आर्टिकल 21 के तहत सुरक्षा के हकदार हैं, न कि सिर्फ़ “थर्ड डिग्री उपायों” से सुरक्षा के। यह मौलिक अधिकार किसी भी नागरिक या भारत में रहने वाले किसी भी अन्य व्यक्ति को मिलता है। NHRC बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य, 1996 SCC (1) 742 में इस माननीय कोर्ट ने माना कि, “राज्य हर इंसान की ज़िंदगी और आज़ादी की रक्षा करने के लिए बाध्य है, चाहे वह नागरिक हो या कोई और।”
पत्र में आगे कहा गया कि ये टिप्पणियां CJI बेंच की तरफ से भेदभाव की आशंका का एक वाजिब आधार देती हैं।
कहा गया,
“ऐसी टिप्पणियां रोहिंग्या शरणार्थियों के अधिकारों के खिलाफ बेंच की तरफ से भेदभाव की आशंका का एक वाजिब आधार देती हैं और इस चिंता का भी कि वे हमारे बीच सबसे कमज़ोर लोगों के अधिकारों की रक्षा के मामले में न्यायपालिका में जनता के भरोसे और विश्वास पर बुरा असर डालेंगी।”
आखिर में, पत्र में CJI से अपील की गई कि वे पब्लिक बयानों में इंसानी गरिमा और सभी के लिए न्याय पर आधारित संवैधानिक नैतिकता के प्रति अपने कमिटमेंट को फिर से पक्का करें।
इसमें कहा गया,
“सुप्रीम कोर्ट और आपके ऑफिस की शान सिर्फ़ फैसलों या एडमिनिस्ट्रेटिव उपायों की संख्या से नहीं, बल्कि उस इंसानियत से मापी जाती है, जिसके साथ वे फैसले सुनाए जाते हैं और उन पर विचार किया जाता है।”
पत्र में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि रोहिंग्या सिर्फ़ गैर-कानूनी इमिग्रेंट्स के तौर पर नहीं, बल्कि रिफ्यूजी के तौर पर एक अलग कानूनी जगह रखते हैं। रिफ्यूजी का स्टेटस डिक्लेरेटरी होता है, जिसका मतलब है कि लोगों को रिफ्यूजी इसलिए माना जाता है, क्योंकि वे पहले से ही क्राइटेरिया को पूरा करते हैं, न कि इसलिए कि सरकार स्टेटस देती है। इसलिए नॉन-रिफाउलमेंट के कस्टमरी इंटरनेशनल लॉ प्रिंसिपल के तहत, जिसे भारतीय अदालतों ने आर्टिकल 21 में पढ़ा है, किसी भी रिफ्यूजी को उनके दावे के पर्सनल और फॉर्मल असेसमेंट के बिना डिपोर्ट, डिटेन या जेल नहीं किया जा सकता है।
यह बताया गया कि रिफ्यूजी होने का दावा करने वाले विदेशी नागरिकों के लिए भारत का अपना स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर (2011, अपडेटेड 2019) इंटरनेशनल नॉर्म्स के मुताबिक है। इसमें रिफ्यूजी को ऐसा व्यक्ति बताया गया, जिसे नस्ल, धर्म, लिंग, राष्ट्रीयता, जातीय पहचान, किसी सामाजिक समूह की सदस्यता या राजनीतिक राय के आधार पर उत्पीड़न का पक्का डर हो, जो आम अंतरराष्ट्रीय कानून और घरेलू व्यवहार के बीच तालमेल दिखाता है।
साइन करने वालों का कहना है कि भारत में रिफ्यूजी को माइग्रेंट्स से अलग कैटेगरी के तौर पर पहचानने की पुरानी परंपरा रही है। देश ने तिब्बतियों, श्रीलंकाई तमिलों और ऐतिहासिक रूप से 1970-71 में पूर्वी पाकिस्तान से उत्पीड़न के कारण भाग रहे लाखों लोगों को मानवीय सुरक्षा दी। इसी तरह नागरिकता संशोधन एक्ट कुछ सताए गए धार्मिक अल्पसंख्यकों को छूट देता है। हालांकि इसके बहिष्कार वाले डिज़ाइन को सुप्रीम कोर्ट में लंबित संवैधानिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।
साइन करने वालों में शामिल हैं:
जस्टिस एपी शाह, पूर्व चीफ जस्टिस, दिल्ली हाईकोर्ट
जस्टिस के. चंद्रू, पूर्व जज, मद्रास हाईकोर्ट
जस्टिस अंजना प्रकाश, पूर्व जज, पटना हाईकोर्ट
प्रो. मोहन गोपाल, पूर्व डायरेक्टर, नेशनल ज्यूडिशियल एकेडमी
डॉ. राजीव धवन, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
मिस्टर चंदर उदय सिंह, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
मिस्टर कॉलिन गोंजाल्विस, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
सुश्री कामिनी जायसवाल, एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
मि. मिहिर देसाई, सीनियर एडवोकेट, बॉम्बे हाईकोर्ट
मि. गोपाल शंकर नारायण, सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
मि. गौतम भाटिया, एडवोकेट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
सुश्री शाहरुख आलम, एडवोकेट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
वर्किंग ग्रुप, CJAR
प्रशांत भूषण - एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
निखिल डे - RTI एक्टिविस्ट और को-फाउंडर मजदूर किसान शक्ति संगठन
आलोक प्रसन्ना कुमार - एडवोकेट और को-फ़ाउंडर, विधि सेंटर फ़ॉर लीगल पॉलिसी
वेंकटेश सुंदरम - लोक राज संगठन
इंदु प्रकाश सिंह - कन्वीनर, नेशनल फ़ोरम फ़ॉर हाउसिंग राइट्स
अंजलि भारद्वाज - ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट, सतार्क नागरिक संगठन की फ़ाउंडर और को-कन्वीनर, नेशनल कैंपेन फ़ॉर पीपल्स राइट टू इन्फ़ॉर्मेशन (NCPRI)
अमृता जोहरी - ट्रांसपेरेंसी एक्टिविस्ट और वर्किंग कमेटी मेंबर, NCPRI
एनी राजा - नेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन विमेन
बीना पल्लिकल- बीना- नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स
चेरिल डिसूज़ा - एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
इंदिरा उन्नीनायर - एडवोकेट, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
सिद्धार्थ शर्मा - एडवोकेट
देवव्रत - एडवोकेट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट
विजयन एमजे - पॉलिसी एनालिस्ट, इंडिपेंडेंट रिसर्चर और राइटर
विपुल मुद्गल - डायरेक्टर, कॉमन कॉज़
कोनिनिका रे - नेशनल फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया विमेन
मीरा संघमित्रा - कन्वीनर, नेशनल अलायंस ऑफ़ पीपल्स मूवमेंट्स
अपार गुप्ता - एडवोकेट और को-फ़ाउंडर और फ़ाउंडर डायरेक्टर, इंटरनेट फ़्रीडम फ़ाउंडेशन
अनुराग तिवारी - एडवोकेट, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट