साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत सर्टिफिकेट इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य की स्वीकार्यता की पूर्व शर्त है : सुप्रीम कोर्ट

“एक संदर्भ का जवाब देते हुए तीन-सदस्यीय बेंच ने व्यवस्था दी है कि ‘अनवर पीवी बनाम पीके बशीर’ मामले में दिये गये आदेश पर फिर से विचार करने की जरूरत नहीं है।”

Update: 2020-07-15 09:48 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत आवश्यक प्रमाण पत्र इलेक्टॉनिक रिकॉर्ड के माध्यम से साक्ष्य की स्वीकार्यता की पूर्व शर्त है।

न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने आगे कहा कि तथ्यपरक परिस्थितियों के तहत यदि संबंधित व्यक्ति अथवा अधिकारी से अपेक्षित प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया गया है और संबंधित व्यक्ति या अधिकारी प्रमाण पत्र देने से इनकार करता है अथवा आवेदन का जवाब नहीं देता तो प्रमाण पत्र की मांग करने वाली पार्टी साक्ष्य अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान के तहत या नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) अथवा अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत कोर्ट से इसे उपलब्ध कराने के लिए आवेदन कर सकती है।

पीठ ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि मूल दस्तावेज पहले से ही मौजूद हैं तो साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उपरोक्त स्पष्टीकरण के मद्देनजर 'अनवर पी. वी. बनाम पी. के. बशीर एवं अन्य (2014) 10 एससीसी 473' के मामले में दिये गये आदेश पर फिर से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति आर एफ नरीमन, न्यायमूर्ति एस रवीन्द्र भट और न्यायमूर्ति वी रमासुब्रमण्यम की तीन-सदस्यीय खंडपीठ ने इस पर एक संदर्भ पर अपना फैसला सुनाया कि "क्या इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य पेश करने के लिए साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत प्रमाण पत्र अनिवार्य है?" (अर्जुन पंडितराव खोटकर बनाम कैलाश किशनराव गोरनत्याल एवं अन्य)।

संदर्भ

न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की दो-सदस्यीय खंडपीठ ने 'शफी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार' और 'अनवर पी. वी. बनाम पी. के. बशीर' के आदेशों में विरोधाभासों के मद्देनजर उक्त प्रश्न संदर्भित किया था। 'शफी मोहम्मद बनाम हिमाचल प्रदेश सरकार' मामले में व्यवस्था दी गयी थी कि जिस उपकरण से इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज तैयार किया गया है और वह उपकरण यदि पार्टी के कब्जे में नहीं है तो उसे साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत प्रमाण पत्र पेश करने की आवश्यकता नहीं है। वैसी स्थिति में बेंच इस मुद्दे पर विचार कर रही थी कि क्या संग्रहित साक्ष्य पर भरोसा दिलाने के लिए जांच के दौरान अपराध स्थल या रिकवरी के दृश्य की वीडियोग्राफी आवश्यक होनी चाहिए? 'अनवर पी. वी. बनाम पी. के. बशीर' मामले में कहा गया था कि द्वितीयक साक्ष्य के तौर पर इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड साक्ष्य में तब तक दर्ज नहीं किया जाएगा जब तक कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 65बी के तहत शर्तें पूरी नहीं हो जातीं। इस प्रकार, साक्ष्य के तौर पर सीडी, वीसीडी, चिप आदि सौंपे जाने के मामलों में धारा 65बी की शर्तों के तहत उनके साथ सर्टिफिकेट का होना जरूरी है। फैसले में कहा गया था कि सर्टिफिकेट के बिना इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से संबंधित द्वितीयक साक्ष्य स्वीकारने योग्य नहीं होता है।

संदर्भ का जवाब देते हुए बेंच ने निम्नलिखित बातें कहीं :

यदि मूल दस्तावेज ही पेश किया जाता है तो 65(बी)(4) के तहत प्रमाण पत्र अनावश्यक है।

"ऐसा लैपटॉप कम्प्यूटर, कम्प्यूटर टैबलेट या मोबाइल फोन का मालिक भी विटनेस बॉक्स में आकर साबित कर सकता है कि जिस डिवाइस पर मूल जानकारी संरक्षित की गयी है, वह उसी का है या उसके द्वारा संचालित है। वैसे मामलों में जहां 'कम्प्यूटर' किसी कम्प्यूटर सिस्टमया कम्प्यूटर नेटवर्क का हिस्सा होता है और उस सिस्टम और नेटवर्क को कोर्ट में भौतिक तौर पर लाना असंभव होता है, तब ऐसे इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में निहित जानकारी केवल 65(बी)(1) के तहत ही दी जा सकती है और इसके साथ धारा 65(बी)(4) के प्रावधानों के तहत जरूरी सर्टिफिकेट भी लगाना होता है। 'अनवर पी वी' मामले की अंतिम पंक्ति, 'यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड साक्ष्य अधिनियम की धारा 62 के तहत प्रथम साक्ष्य के तौर पर इस्तेमाल होता है', पूरी तरह स्पष्ट है कि इसे 'साक्ष्य अधिनियम की धारा 62 के तहत' जैसे शब्दों के बिना पढ़ा जाएगा। बेंच ने कहा, "इस स्पष्टीकरण के साथ ही, 'अनवर पी वी' मामले के 24वें पैरा में वर्णित कानून पर फिर से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।"

संबंधित व्यक्ति द्वारा इस तरह के प्रमाण पत्र जारी करने से इनकार करने पर कोर्ट के समक्ष आवेदन किया जा सकता है

कोर्ट ने कहा कि 'शफी मोहम्मद' मामले का प्रमुख आधार यह है कि इस तरह के प्रमाण पत्र उन लोगों द्वारा सुरक्षित नहीं किये जा सकते जिनके कब्जे में इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस नहीं होते हैं, लेकिन यह पूरी तरह गलत है। ऐसे मामलों में धारा 65(बी)(4) के तहत संबंधित व्यक्ति से प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए जज के पास आवेदन किया जा सकता है।

तथ्यपरक परिस्थितियों के तहत यदि संबंधित व्यक्ति अथवा अधिकारी से अपेक्षित प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया गया है और संबंधित व्यक्ति या अधिकारी प्रमाण पत्र देने से इनकार करता है अथवा आवेदन का जवाब नहीं देता तो प्रमाण पत्र की मांग करने वाली पार्टी साक्ष्य अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान के तहत या नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) अथवा अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के प्रावधानों के तहत कोर्ट से इसे उपलब्ध कराने के लिए आवेदन कर सकती है। एक बार जब ऐसा आवेदन न्यायालय में किया जाता है तब न्यायालय संबंधित व्यक्ति को प्रमाण पत्र जारी करने के लिए समन भेजता है। यदि सर्टिफिकेट की मांग करने वाली पार्टी ने यह सब किया होता है तो उसे संभवत: आवश्यक प्रमाण पत्र मिल सकता है।

कोर्ट उपयुक्त मामलों में अभियोजन पक्ष को बाद में इस तरह के प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकता है

'अनवर पी वी' मामले में यह कहा गया था कि जब इलेकट्रॉनिक रिकॉर्ड को साक्ष्य के तौर पर पेश किया जाता है तो उसके साथ प्रमाण पत्र होना आवश्यक है। इस मामले में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि,

"हम केवल यह जोड़ सकते हैं कि ऐसा उन मामलों में है जहां इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड पर भरोसा को लेकर संबंधित व्यक्ति इस तरह के प्रमाण पत्र खरीद भी सकता है। हालांकि, वैसे मामलों में जहां या तो दोषपूर्ण प्रमाण पत्र दिये गये हों या जहां प्रमाण पत्र मांगे जाने के बावजूद संबंधित व्यक्ति द्वारा नहीं दिये गये हैं तो ट्रायल करने वाला जज को साक्ष्य अधिनियम की धारा 65(बी)(4) के तहत संबंधित व्यक्ति/ व्यक्तियों को समन अवश्य करना चाहिए और उन्हें प्रमाण पत्र देने का आदेश देना चाहिए। ट्रायल जज को ऐसा तब करना चाहिए जब साक्ष्य के तौर पर उसके पास इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य पेश किये गये हों और उपरोक्त परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यक प्रमाण पत्र संलग्न न किया गया हो। निश्चित तौर पर यह प्रत्येक दीवानी मामले में न्याय के लिए तथ्यों की जरूरतों के अनुरूप और कानून के तहत विवेक के अधीन होता है। जहां तक आपराधिक मामलों का संबंध है, तो इस सामान्य सिद्धांत को ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है कि ट्रायल शुरू होने से पहले अभियोजन पक्ष को वे सारे दस्तावेज अभियुक्त को दिया जाना चाहिए, जिसके आधार पर सीआरपीसी की प्रासंगिक धाराओं के तहत वह अभियुक्त से जवाब चाहता है।"

"सामान्य प्रक्रिया के संदर्भ में अभियोजन पक्ष ट्रायल शुरू होने से पहले उन सभी दस्तावेजों की आपूर्त्ति को बाध्य है, जिसके आधार पर अभियुक्त के खिलाफ मुकदमा चलाया जाना है। इस प्रकार आपराधिक मामलों में बाद के चरण में साक्ष्य पेश करने की अनुमति देने के कोर्ट के अधिकार के इस्तेमाल को गंभीर या अभियुक्त के प्रति पूर्वग्रह के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए। सीआरपीसी की धाराएं 91 अथवा 311 या साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत अभियोजन पक्ष के किसी भी अनुरोध की जांच के दौरान कोर्ट द्वारा पार्टियों के अधिकारों में संतुलन बनाने का कार्य किया जाता है। प्रत्येक मामले के तथ्यों पर ध्यान देते हुए और यह देखने के बाद कि निष्पक्ष ट्रायल को लेकर अभियुक्त पूर्वग्रह से ग्रसित नहीं है तो कोर्ट अभियोजन पक्ष को बाद में इस तरह के प्रमाण पत्र पेश करने की अनुमति दे सकता है। यदि आरोपी अपेक्षित प्रमाण पत्र अपने बचाव में पेश करना चाहता है तो यह मामले में न्याय के लिए कानून के दायरे में कोर्ट के विशेषाधिकार पर निर्भर होगा।"

सीडीआर को बनाये रखने के लिए सेलुलर कंपनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को सामान्य जारी किये जाते हैं

कोर्ट ने यह भी कहा कि सेलुलर कंपनियों और इंटरनेट सेवा प्रदाताओं को भी (साक्ष्य अधिनियम की धारा 39 के तहत) निर्देश जारी किये जाते हैं कि किसी अवधि में जांच के दौरान जब्त किये गये सीडीआर या अन्य प्रासंगिक रिकॉर्ड को सुरक्षित रखा जाये।

बेंच ने कहा,

"संबंधित पक्ष डिफेंस एविडेंस के चरण में ऐसे दस्तावेज मांग सकता है या किसी खास गवाह से क्रॉस एक्जाम की आवश्यकता होने पर इस तरह के डाटा की जरूरत हो सकती है। यह दिशानिर्देश आपराधिक मामलों की सुनवाई में तब तक लागू होगा जब तक लाइसेंस की प्रासंगिक शर्तों या सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 67सी के तहत उपयुक्त दिशानिर्देश जारी रहता है।"

कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 67सी में प्रदत्त अधिकारों के तहत उपयुक्त नियम दिशानिर्देश तय किये जाने चाहिए। कोर्ट ने आपराधिक मामलों के ट्रायल और अपील की सम्पूर्ण अवधि के लिए संबंधित डाटा सुरक्षित रखने, उसके पृथक्करण, डाटा को कस्टडी में रखने के नियम, स्टाम्पिंग एवं रिकॉर्ड रखरखाव तथा भ्रष्टाचार से निजात के लिए मेटा डाटा संरक्षरण के वास्ते उपयुक्त नियम बनाने के निर्देश दिये। कोर्ट ने कहा कि इसी तरह, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड के संरक्षण, पुनर्प्राप्ति और प्रोडक्शन के लिए उचित नियम तैयार किये जाने चाहिए। 

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