यौन उत्पीड़न के आरोपी को पीड़िता से राखी बंधवाने का निर्देश देने वाले एमपी हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के उस फैसले को रद्द कर दिया है,जिसमें अदालत ने आरोपी व्यक्ति (अपनी पड़ोसी की शालीनता को अपमानित करने का आरोपी) पर जमानत की शर्त लगाते हुए कहा था कि वह पीड़िता से अनुरोध करे कि वह उसकी कलाई पर राखी बांध दे।
जस्टिस एएम खानविल्कर और जस्टिस रवींद्र भट की बेंच ने लिंग संवेदनशीलता पर जजों और वकीलों के लिए दिशा-निर्देश भी जारी किए हैं।
सुप्रीम कोर्ट की अधिवक्ता अपर्णा भट और आठ अन्य महिला वकीलों ने (शीर्ष न्यायालय के समक्ष) 30 जुलाई को मध्य प्रदेश हाईकोर्ट द्वारा पारित जमानत आदेश में लगाई गई जमानत की शर्तों में से एक को चुनौती दी थी। जिसके तहत अदालत ने व्यक्ति (अपनी पड़ोसी की शालीनता को अपमानित करने का आरोपी) पर जमानत की शर्त लगाई थी कि वह पीड़िता से अनुरोध करे कि वह उसकी कलाई पर राखी बांध दे।
अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने भी जमानत की इस शर्त के खिलाफ कोर्ट का रुख किया था।
अधिवक्ता अपर्णा भट की याचिका में कहा गया है कि हाईकोर्ट ने यह शर्त लगाकर गलती की है क्योंकि खुद अदालत ने आरोपी को पीड़िता के साथ संपर्क स्थापित करने का निर्देश दे दिया है,जिससेे जमानत देने का उद्देश्य को पराजित हो रहा है। हाईकोर्ट इस तथ्य पर भी ध्यान देने में विफल रहा है कि यौन हिंसा के ज्यादातर मामलों में पीड़िता अपनी गवाही से मुकर जाती है और इनमें से कई मामलों में ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वह अभियुक्त के परिवार से भयभीत और/या प्रेरित होती है।
याचिका में कहा गया है कि हाईकोर्ट को इस तथ्य के बारे में अवगत और संवेदनशील होना चाहिए था कि इस मामले में एक महिला के खिलाफ यौन अपराध शामिल है; पीड़िता के लिए एफआईआर दर्ज करवाना और आरोपी के खिलाफ आपराधिक मामला शुरू करवाना बेहद मुश्किल होता है।
याचिका में आगे कहा गया है,
''रक्षाबंधन भाइयों और बहनों के बीच एक संरक्षकता का त्योहार है। इसलिए उक्त जमानत शर्त वर्तमान मामले में शिकायतकर्ता द्वारा झेेले गए आघात को पूरी तरह से महत्वहीन बनाने के समान है।'' (जोर देते हुए कहा गया)
महत्वपूर्ण बात यह है कि याचिका में यह भी कहा गया है,
''यह वर्तमान मामला विशेष रूप से चिंता का विषय है क्योंकि अदालतों द्वारा इसके हानिकारक दृष्टिकोण को कम करने में वर्षों का समय लगा है, जिनमें महिलाओं के खिलाफ यौन अपराधों से जुड़े मामलों में आरोपी और पीड़िता के बीच शादी करवाकर या मध्यस्थता के माध्यम से समझौता करवाने का प्रयास किया जाता है।''
यह दलील भी दी गई है कि आरोपी यानी प्रतिवादी नंबर 2 को जमानत की एक शर्त के अनुसार रक्षाबंधन के त्यौहार पर शिकायतकर्ता के घर जाना होगा और उससे अनुरोध करना होगा कि वह उसकी कलाई पर राखी बांध दे और साथ ही ''आने वाले समय में अपनी क्षमता के अनुसार उसकी रक्षा करने का वादा'' करना होगा। परंतु इसका परिणाम यह होगा कि पीड़िता का अपने ही घर में और ज्यादा उत्पीड़न होगा।
सुप्रीम कोर्ट से निर्देश मांगने वाले याचिकाकर्ताओं की तरफ से दायर एक आवेदन में कहा गया है कि आजकल ऐसे मामले लगातार सामने आ रहे हैं,जहां महिलाओं से संबंधित कई मामलों में असंगत शर्तें/अवलोकन किए जा रहे हैं, जो किए गए अपराधों का तुच्छीकरण करते हैं।
इसके अलावा, आवेदन में कहा गया है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा और विशेष रूप से महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा, बेहद गंभीर अपराध हैं और अदालतों द्वारा इससे सख्ती से निपटने की जरूरत है।
जैसा कि हाल के दिनों में देखा गया है कि हिंसा बढ़ रही है और अपराधों के अपराधी पूरी तरह से विश्वास के साथ काम कर रहे हैं कि कानून को लागू करना जटिल है और/ या इन शिकायतों को दबाने में एक इच्छुक प्रतिभागी है।
इस संदर्भ में, आवेदन में उन उदाहरणों को सूचीबद्ध किया गया है, जहां महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित मामलों में अवलोकन किए गए हैं, जिनमें यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (पाॅक्सो एक्ट) के तहत दर्ज मामले भी शामिल हैं, जो पूरी तरह से असंगत हैं और एक महिला द्वारा झेले गए आघात को तुच्छ करते हैं,जिससे आर्टिकल 21 द्वारा संरक्षित महिला की गरिमा का उल्लंघन होता है।
आवेदन में कहा गया है कि इनमें से कई मामलों में जैसे बलात्कार के मामलों व पाॅक्सो एक्ट के तहत दर्ज मामलों में अभियुक्तों को जमानत देते हुए, अदालतें आरोपी व पीड़िता के बीच हुए विवाह के तथ्य पर भरोसा करते हुए असंगत/असंबद्ध अवलोकन भी करती हैं।
आवेदन में यह भी कहा गया है कि कई मामलों में ये शर्तें वास्तव में समझौता करने जैसी होती हैं, जो किसी महिला की गरिमा के खिलाफ किए गए अपराध की जघन्यता को कम या पूरी तरह खत्म कर देती हैं।
ये अवलोकन,किसी भी तरह से आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 439 के तहत लगाई शर्तें नहीं हो सकती हैं और वास्तव में जमानत देने के लिए मापदंडों के प्रति असंगत हैं। इन टिप्पणियों का मुकदमे पर भी प्रभाव पड़ता है और कई मामलों में ऐसी टिप्पणियों के कारण अभियुक्तों को कम सजा मिलती है या उसे दोषमुक्त होने का लाभ मिल जाता है।
इसके बाद, आवेदन में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने विशाल क्षेत्राधिकार के भीतर निर्देश जारी कर सकता है और इस तरह के निर्देश जारी करने के लिए यह एक उपयुक्त मामला है, जैसा कि आवश्यक हो सकता है, यह माननीय न्यायालय भारत के संविधान के आर्टिकल 142 के तहत सभी हाईकोर्ट व सभी निचली अदालतों को बलात्कार व यौन उत्पीड़न के मामलों में ऐसी टिप्पणियां व शर्तें लगाने से रोक सकता है,जो पीड़ित के आघात को तुच्छ करती हों और आर्टिकल 21 के तहत उनकी मानवीय गरिमा का उल्लंघन करती हैं।
अंत में, आवेदन की प्रार्थना में कहा गया है,
''सभी हाईकोर्ट और निचली अदालतों को निर्देश दिया जाए कि कि बलात्कार व यौन उत्पीड़न के मामलों में न्यायिक कार्यवाहियों के दौरान किसी भी स्तर पर ऐसी टिप्पणियां करनेे और शर्तों को लागू करने से बचें, जो कि पीड़ितों द्वारा झेले गए आघात को तुच्छ करती हों और उनकी गरिमा को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करें,इसके अलावा आपराधिक न्याय के खिलाफ भी हों।''
अपर्णा भट बनाम मध्य प्रदेश राज्य