सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ एकजुट हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज, चीफ जस्टिस से की यह मांग
एक सशक्त और अभूतपूर्व कदम उठाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के कम-से-कम 13 जजों ने हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को पत्र लिखकर उनसे फुल कोर्ट बुलाने का आग्रह किया ताकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा 4 अगस्त को जारी किए गए कुछ निर्देशों को लागू न करने पर विचार किया जा सके, जिसमें जस्टिस प्रशांत कुमार की रिटायरमेंट तक उनकी आपराधिक सूची हटा दी गई थी।
पत्र में निम्नलिखित प्रस्ताव पर विचार करने का अनुरोध किया गया:
"फुल कोर्ट यह प्रस्ताव पारित करे कि 4 अगस्त, 2025 के विषयगत आदेश के अनुच्छेद 24 से 26 में दिए गए निर्देशों का पालन नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के पास हाईकोर्ट पर प्रशासनिक अधीक्षण नहीं है। इसके अलावा, फुल कोर्ट उक्त आदेश के स्वर और भाव के संबंध में अपनी व्यथा व्यक्त करता है।"
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कुमार द्वारा पारित एक आदेश की कड़ी आलोचना की थी। कोर्ट ने हाईकोर्ट चीफ जस्टिस को निर्देश दिया था कि उन्हें खंडपीठ में एक सीनियर जज के साथ बैठाया जाए। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट जज को कोई भी आपराधिक मामला आवंटित नहीं किया जाना चाहिए।
7 अगस्त, 2025 के पत्र में जस्टिस अरिंदम सिन्हा ने अपनी व्यक्तिगत हैसियत से इलाहाबाद हाईकोर्ट नियम, 1952 के अध्याय III, नियम 9 के तहत समर्थन के लिए पत्र प्रसारित किया, जिस पर हाईकोर्ट के कम से कम 12 अन्य न्यायाधीशों ने हस्ताक्षर किए हैं।
पत्र में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस कुमार को नोटिस जारी किए बिना या उन्हें अपना बचाव करने का अवसर दिए बिना उनके बारे में तीखी टिप्पणी की।
पत्र में आगे कहा गया कि ऐसी टिप्पणियां अमर पाल सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 2012 मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वयं निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, जिसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि हाईकोर्ट को उन न्यायिक अधिकारियों पर टिप्पणी करते समय संयम बरतना चाहिए, जो अपना बचाव करने के लिए उपस्थित नहीं होते:
पत्र में कहा गया,
"4 अगस्त, 2025 का विषयगत आदेश नोटिस जारी करने के निर्देश के बिना दिया गया। इसमें जज के विरुद्ध स्पष्टतः निराधार निष्कर्षों पर तीखी टिप्पणियां शामिल हैं।"
पत्र में जस्टिस कुमार के आदेश का बचाव करते हुए कहा गया कि यह आदेश ली कुन ही बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और सैयद अस्करी हादी अली ऑगस्टीन इमाम बनाम राज्य (दिल्ली प्रशासन) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर आधारित है।
इसमें आगे कहा गया कि सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी, जिसमें 'आश्चर्य' व्यक्त किया गया कि क्या आदेश "कुछ बाहरी विचारों" या "सरासर अज्ञानता" के कारण पारित किया गया था, जज पर एक गंभीर अभियोग है, जो निराधार और निराधार प्रतीत होता है।
पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले जज हैं:
जस्टिस कृष्ण पहल, जस्टिस समीर जैन, जस्टिस अनीश कुमार गुप्ता, जस्टिस मनीष निगम, जस्टिस सौरभ श्याम समशेरी, जस्टिस गौतम चौधरी, जस्टिस दोनादी रमेश, जस्टिस शेखर सराफ, जस्टिस मनोज बजाज, जस्टिस क्षितिज शैलेंद्र, जस्टिस सौरभ श्रीवास्तव, जस्टिस पीके गिरी।
बता दें, सुप्रीम कोर्ट के उक्त आदेश की आलोचना हुई थी कि यह न्यायिक शक्तियों का अतिक्रमण और हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की रोस्टर शक्तियों में हस्तक्षेप था।
दिलचस्प बात यह है कि आज पहले यह बताया गया कि सुप्रीम कोर्ट शुक्रवार को इस मामले की फिर से सुनवाई करेगा। 4 अगस्त को पारित कठोर आदेश द्वारा निपटाए गए इस मामले को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ के समक्ष शुक्रवार के लिए फिर से सूचीबद्ध किया गया।
यह मामला शुक्रवार को "निर्देश मामले" शीर्षक के अंतर्गत सूचीबद्ध है। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर मामले की स्थिति अब "पेंडिंग" दिखाई जा रही है।
संक्षेप में मामला
4 अगस्त को जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की खंडपीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस कुमार द्वारा पारित आदेश पर आपत्ति जताई, जिसमें आपराधिक शिकायत को यह कहते हुए रद्द करने से इनकार कर दिया गया कि धन की वसूली के लिए दीवानी मुकदमे का उपाय प्रभावी नहीं था।
यह देखा गया कि जज ने "न्याय का मखौल" उड़ाया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था,
"संबंधित जज ने न केवल खुद को एक दयनीय स्थिति में पहुंचाया है, बल्कि न्याय का भी मखौल उड़ाया है। हम यह समझने में असमर्थ हैं कि हाईकोर्ट के स्तर पर भारतीय न्यायपालिका में क्या गड़बड़ है। कई बार हम यह सोचकर हैरान रह जाते हैं कि क्या ऐसे आदेश किसी बाहरी विचार पर पारित किए जाते हैं या यह कानून की सरासर अज्ञानता है। जो भी हो, ऐसे बेतुके और गलत आदेश पारित करना अक्षम्य है।"