मजिस्ट्रेटों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता में लापरवाह तरीके से कटौती नहीं करनी चाहिए': जस्टिस दीपक गुप्ता

Update: 2022-07-06 14:40 GMT

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने लाइव लॉ के मैनेजिंग एडिटर मनु सेबेस्टियन के साथ एक साक्षात्कार में फैक्ट-चेकर मोहम्मद जुबैर के खिलाफ मामले के बारे में अपनी राय साझा की और उचित जांच के बिना जमानत से इनकार करने वाली अदालतों की प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने कहा कि कई जज जनता की राय के डर से जमानत देने से डरते हैं और कहा कि न्यायिक अकादमियों, जो मजिस्ट्रेटों को प्रशिक्षित करती हैं, उन्हें अपने दिमाग में यह डालना चाहिए कि वे नागरिकों के मौलिक अधिकारों से निपट रहे हैं। पूर्व जज ने मीडिया ट्रायल के खतरों और जजों पर सोशल मीडिया कमेंट्री द्वारा बनाए गए दबाव पर भी बात की।

मोहम्‍मद जुबैर के मसले पर जस्टिस गुप्ता से पूछा गया कि ... क्या भी मानते हैं कि यह मामला जुबैर की गतिविध‌ियों और पत्रकारिता को लक्षित करने के लिए लक्षित करने के लिए मनगढ़ंत तथ्यों पर आधारित एक दुर्भावनापूर्ण मामला है?"

जस्टिस गुप्ता ने जवाब में कहा, "मैं 'दुर्भावनापूर्ण' नहीं कह पाऊंगा। दरअसल कानून में दुर्भावनापूर्ण का आशय कुछ अलग है। हालांकि मुझे निश्चित रूप से लगता है कि मामले में कुछ गड़बड़ है।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, मैं कुछ हद तक सहमत हो सकता हूं कि जब पत्रकारों, फैक्ट-चेकरों का एलाइनमेंट किसी विशेष विचारधारा या वैचारिक समूह के साथ होता है तो उन्हें टारगेट किया जाता है। यह मानव स्वभाव है। हालांकि कानून (अस्पष्ट) नहीं होना चाहिए ... हम अलग-अलग विचारधारा से संबंधित हो सकते हैं, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि पुलिस और और उससे ऊपर की संस्‍थाएं ऐसे किसी भी वैचारिक आधार के बिना व्यवहार करेंगी।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, जुबैर ही नहीं देश में कई ऐसे मामले हुए हैं, जिन्होंने दुखी किया है। उन्होंने कहा, "जुबैर के मामले में ही नहीं बल्कि अन्य मामलों में भी जो कुछ भी हो रहा है, उससे मैं बहुत दुखी हूं। हम उस महिला (मराठी एक्ट्रेस केतकी चिताले) का मामला लें, जिन्होंने शरद पवार के खिलाफ एक ट्वीट किया और उन्होंने लगभग 20 दिन जेल में बिताना पड़ा।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, चूंकि जुबैर की एक एक सार्वजनिक छवि है इसलिए उसका मामला उठाया गया है। लेकिन महिला का मामला नहीं उठाया गया।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, चिंता की बात यह है कि अदालतें इस तरह के मामलों में पुलिस रिमांड या न्यायिक हिरासत देने को तैयार हैं, यहां तक कि यह भी जांच नहीं करती है कि पुलिस रिमांड या न्यायिक हिरासत का मामला बनता है या नहीं।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, मुझे यह कहते हुए खेद है और बार-बार मैं यह कह रहा हूं लेकिन मजिस्ट्रेट छोटे से छोटे अपराधों में भी जमानत देने से कतराते हैं। और अगर यह लोगों की नजर में बहुत ऊंचा अपराध है, तो कई जज जमानत देने से डरते हैं कि अगर हम जमानत दे देंगे तो लोग क्या सोचेंगे।

जस्टिस गुप्ता ने अपने साक्षात्कार में आगे कहा कि मुझे लगता है कि हमें मानसिकता बदलने की जरूरत है और हमें जजों के दिमाग में एक बार फिर यह लाने की जरूरत है कि इस देश का नियम क्या है- जैसा कि जस्टिस अय्यर ने कहा था- जमानत नियम है, न कि जेल।

उन्होंने कहा, कुछ न्यायिक अकादमियों में जहां ये मजिस्ट्रेट प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, उन्हें यह बताना चाहिए कि हम एक नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता से निपट रहे हैं। संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन्हें एक संवैधानिक अधिकार, स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है।

उन्होंने कहा, किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को कानून के अनुसार कम किया जा सकता है और वह कानून सीआरपीसी की धारा 167 या कुछ अन्य प्रावधान हैं।

जस्टिस गुप्ता ने कहा, किसी की स्वतंत्रता में कटौती करना एक संवैधानिक कार्य है। स्वतंत्रता का अधिकार सभी अधिकारों में सबसे मौलिक है। इसलिए इसे बहुत ही लापरवाह तरीके से नहीं करना चाहिए। आज हर मामले में ऐसा लगता है कि गिरफ्तारी ही नियम है और सालों तक जमानत नहीं दी जाती। हम कहते हैं कि त्वरित न्याय हमारा मौलिक अधिकार है लेकिन लोग पांच साल, सात साल, आठ साल से सलाखों के पीछे हैं और मुकदमे भी शुरू नहीं हुए हैं। मुझे तो यह भी नहीं पता कि हम किधर जा रहे हैं।

जस्टिस गुप्ता का पूरा इंटरव्यू यहां देखें-

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