वाईजैग गैस लीक मामला: पूर्ण दायित्व सिद्धांत से कठोर दायित्व सिद्धांत की ओर
आलोक चौहान
भारत के विधि आयोग ने अपनी 186वीं (2003) रिपोर्ट में पर्यावरण न्यायालय बनाए जाने का प्रस्ताव रखा था। सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग को इस पर सुझाव देने से पहले ही इन तीन फैसलों, आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम एम वी नायडू (1999), एम सी मेहता बनाम भारत संघ (1986) और इंडियन काउंसिल फॉर एन्वायरो - लीगल एक्शन बनाम भारत संघ (1996) में पर्यावरण न्यायालय के स्थापित किए जाने की आवश्यकता की ओर इंगित किया था।
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी NGT) को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 के अन्तर्गत स्थापित किया गया था। एनजीटी का उद्देश्य पर्यावरण सुरक्षा से जुडे़ मुद्दों का अविलंब और प्रभावी निस्तारण करना था।
हाल ही में न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली एनजीटी की पीठ ने एल जी पॉलिमर इंडिया पर आंध्र प्रदेश के विशाखाट्टनम (वाइजैग) में हुए स्टायरीन गैस के रिसाव की घटना को मद्देनजर रखते हुए 50 करोड़ का जुर्माना लगाया जिसमें 12 लोगों की मृत्यु हुई थी, काफी लोग घायल हुए और पर्यावरण को भी भारी क्षति हुई।
एनजीटी के फैसले में यह भी उल्लेख है की "इतनी हानिकारक गैस का इतनी बड़ी मात्रा में रिसाव आमजन के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए अत्यंत हानिकारक है और यह साफ तौर पर खतरनाक या अपने आप में ही खतरनाक उद्योग में प्रवत उद्यम के विरूद्ध कठोर दायित्व के सिद्धांत (strict liability principal) को आकर्षित करता है।"
पर्यावरण न्यायालय की आवश्यकता
आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बनाम एम वी नायडू (1999) और आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड II बनाम एम वी नायडू (2001), इन फैसलों में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जल अधिनियम (1974) और वायु अधिनियम (1981) के अन्तर्गत अपीलीय प्राधिकारी के गठन में हुई गंभीर असमानताओं का उल्लेख किया। ज्यादातर राज्यों में अपीलीय प्राधिकारी सिर्फ ब्यूरोक्रेट लोगों द्वारा ही प्रशासित थी और इन प्राधिकरणों में न्यायिक सदस्य और पर्यावरण विशषज्ञ दोनों ही नहीं थे, इसलिए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने विधि आयोग को इन अर्ध न्यायिक प्राधिकारों के गठन में हुई असमानताओं को जांचने की मांग की ओर साथ ही इनके ढांचे में समानता लाने के लिए सुझाव मांगे जिसमें प्रशासनिक, सरकारी अधिकारियों और सरकारी आदेशों के संबंध में पर्यवेक्षणीय शक्तियां हो।
इससे पहले दो प्राधिकार थे, एक राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकार जिसका गठन राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण अधिनियम 1997 के तहत हुआ था जिसमें 2000 से लेकर इसके गैर कार्यरत होने तक कोई भी न्यायिक सदस्य को नियुक्त नहीं किया गया। और दूसरा राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायाधिकरण अधिनियम 1995 जिसको आठ साल तक सूचित तक नहीं किया गया और इस न्यायाधिकरण का गठन भी नही हुआ ये प्राधिकार भी गैर कार्यरत हो गया।
सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण (1999) मामले में लॉर्ड वूल्फ के युनाइटेड किंगडम पर्यावरण कानून एसोसिऐशन को दिए गए गार्नर संबोधन का उल्लेख किया है जिसमें उन्होंने " एक बहुआयामी, बहुकुशल प्राधिकार की जरूरत की ओर इंगित किया जिसमें मौजूदा न्यायालय, न्यायाधिकरण और पर्यावरण क्षेत्र के निरीक्षक की सारी सेवाएं सम्मिलित हो और 2001 के इसी फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक सदस्यों के अतिरिक्त पर्यावरण वैज्ञानिकों और पर्यावरण विशेषज्ञों को शामिल करते हुए पर्यावरण न्यायालयों के गठन को लेकर संदर्भित किया था।
कठोर दायित्व का सिद्धांत
कठोर दायित्व सिद्धांत को सर्वप्रथम रिलेंड बनाम फ्लेचर (1868) मे अपनाया गया था। जस्टिस ब्लैकबर्न ने इन शब्दों में कठोर दायित्व के सिद्धांत को परिभाषित किया कि सही रूप में विधि का शासन यही है कि जो व्यक्ति अपने उद्देश्य के लिए अपनी भूमि पर कुछ भी लाता है या एकत्रित करता है जिसके निकास से नुकसान होने की संभावना हो, वो व्यक्ति उसे खुद के जोखिम पर वहां रखे, अगर वह ऐसा नहीं करता है तो प्रथम दृष्टया वह व्यक्ति उस चीज के निकास के प्राकृतिक परिणाम से होने वाले सम्पूर्ण नुकसान के लिए ज़िम्मेदार होगा।
कठोर दायित्व सिद्धांत के अन्तर्गत कोई भी व्यक्ति अपनी भूमि पर लाई गई खतरनाक चीज के निकास के कारण हुए नुकसान के लिए ज़िम्मेदार होगा और इसमें उस व्यक्ति के द्वारा उस चीज को रखने में लापरवाह ना होना भी मायने नहीं रखता। यहां दायित्व खतरनाक चीज को अपनी भूमि पर रखने मात्र से ही उत्पन्न होता है जिसके निकास के कारण नुकसान हो।
इस सिद्धांत को लागू करने के लिए कुछ जरूरी बातों खतरनाक चीज, उसका निकास, भूमि का अप्राकृतिक उपयोग और निकटस्थ क्षति का होना आवश्यक है यहां खतरनाक चीज से तात्पर्य उस चीज के निकास के कारण नुकसान करने की संभावना है लेकिन इस सिद्धांत के कुछ अपवाद भी हैं जैसे भूमि के प्राकृतिक उपयोग से हुए नुकसान, वादी की सहमति, खुद वादी का दोष, किसी अजनबी का कृत्य और भगवान का कृत्य (Act of God)।
कठोर दायित्व के सिद्धांत को भारत में भी लागू किया जाता था, लेकिन जब एम सी मेहता बनाम भारत संघ (1986) (ओलियम गैस रिसाव) मामले में दिल्ली स्थित श्री राम फूड एंड फर्टिलाइजर इंडस्ट्री की एक इकाई में ओलियम गैस के रिसाव के कारण कई लोगो की मृत्यु हुई थी तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इंग्लिश न्यायालय (यूनाइटेड किंगडम) के रेलेंड बनाम फ्लेचर मामले में लागू किया गया कठोर दायित्व सिद्धांत उस समय के कानून की आवश्यकताओं के अनुसार सही था और इस फैसले का सिद्धांत भारतीय सरकार को इसे मानने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।
इसलिए न्यायमूर्ति पी एन भगवती की अध्यक्षता वाली संवैधानिक पीठ ने कहा कि
" भारत में हम अपने हाथ बांधे नहीं रख सकते और हम दायित्व के एक नए सिद्धांत को विकसित करने का कार्य करने जा रहे हैं जो कि इंग्लिश न्यायालयों ने नहीं किया। इन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने लिए पूर्ण दायित्व के सिद्धांत (absolute liability) का प्रतिपादन किया जिसके अनुसार खतरनाक उद्यम की समाज के प्रति पूर्ण रूप से गैर प्रतिनिधि (non- delegable duty) का कर्तव्य होगा।
न्यायमूर्ति भगवती के शब्दों में,
"अगर इस प्रकार की किसी गतिविधी से कोई हानि होती है तो वह उद्यम पूर्ण रूप से ऐसी हानि की क्षतिपूर्ति करने के लिए जिम्मेदार होगा भले ही उस उद्यम ने सारी सावधानी बरती हो और हानि में उसकी तरफ से कोई लापरवाही न बरती गई हो।"
यह सिद्धांत सुप्रीम कोर्ट द्वारा यूनियन कार्बाइड बनाम भारत संघ (1991) मामले में दोहराया गया जिसको भोपाल गैस रिसाव कांड के नाम से भी जाना जाता है, जहां भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कंपनी से एक खतरनाक गैस ((methyl-iso-cyanide MIC) ) के रिसाव कारण कई लोगों की जानें गई और पर्यावरण को भी भारी नुकसान हुआ।
मुख्य सिद्धांत से दूरी
एनजीटी अधिनियम सिर्फ पूर्ण या निर्दोष दायित्व को ही मानता है। और इसी सिद्धांत का उल्लेख अधिनियम की धारा 17 (3) में है जो कि निर्धारित करता है कि किसी भी दुर्घटना में न्यायाधिकरण निर्दोष दायित्व को लागू करे। निर्दोष दायित्व के सिद्धांत का उल्लेख राष्ट्रीय पर्यावरण न्यायाधिकरण (1995) में भी था लेकिन वह गैर कार्यरत हो गई।
लेकिन एनजीटी अपने इस मूल सिद्धांत से अलग हुआ और कठोर दायित्व के सिद्धांत को वाइजैग गैस रिसाव मामले में लागू किया। कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं जो कि इस प्रकार हैं-
1. जिस गैस का रिसाव हुआ था वह गैस एक हानिकारक रसायन है जिसका उल्लेख खतरनाक रसायनों के निर्माण, भंडारण और आयात नियम 1995 की धारा 2(e) के अधिसुची I में है।
2. इस गैस के रिसाव के कारण 12 लोगों की जान गई और कई लोग घायल हुए। और साथ ही पर्यावरण को भी काफी नुकसान हुआ।
3. अपने आप में खतरनाक उद्यम।
4. फैक्ट्री में काम करने वाले और आस पास के लोगों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को एक संभावित ख़तरा।
ये विचारणीय क्यों ?
कठोर दायित्व सिद्धांत के अपवाद हैं जो कि दोषी व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी से हटने का मौका देते हैं, लेकिन पूर्ण दायित्व में ऐसा कोई भी अपवाद नहीं है। इसलिए वाइजैग मामले में कठोर दायित्व का लागू किया जाना कानून कि स्थाई स्थिति पर सवाल उठता है, क्योंकि पूर्व के मामलों का कानून यही कहता है कि मुख्यतया गैस रिसाव मामलों में कठोर दायित्व सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता और अगर यदि ऐसा होता है तो गैस या हानिकारक पदार्थों वाले उद्यमों द्वारा इसको गलत तरीके से लिया जाएगा और दुरुपयोग होगा। इसके कारण उद्यमी, लोगों के स्वास्थ्य के प्रति कोई जिम्मेदारी नहीं समझेंगे और यदि कोई दुर्घटना होती है तो वे लोग किसी अपवाद का हवाला देकर एवं होने वाली क्षतिपूर्ति का भुगतान करके अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं।
गैस रिसाव मामलों में कठोर दायित्व के सिद्धांत को लागू करना संवैधानिक सिद्धांतों के विरूद्ध है जैसे कि अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार है), अनुच्छेद 42 (जो कि काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाएं है), अनुच्छेद 47, 48 A और 51 A (g)। सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा ही अनुच्छेद 21 का पूर्ण रूप से लाभ लेने लिए के लिए प्रदूषण मुक्त जल और वायु का भोग जरूरी है जो कि जीवन का अधिकार है।
पर्यावरण संरक्षण और जन स्वास्थ्य अत्यंत महत्वपूर्ण विषय हैं और कठोर दायित्व के सिद्धांत को लागू करना इनके महत्व को कम कर देता है।
पर्यावरण न्यायालयों को सतत विकास (sustainable development) और उद्यमों द्वारा होने वाले प्रदूषण के नियंत्रण अथवा विनियमन में सामंजस्य स्थापित करना होगा और निष्पक्ष, तेज एवं संतोषजनक न्यायिक प्रक्रिया द्वारा भारतीय संविधान में निहित उद्देश्यों को प्राप्त करना होगा।
लेखक राजस्थान हाईकोर्ट में वकालत करते हैं।