वाईजैग गैस लीकः जानिए कठोर दायित्व (Strict Liability) सिद्धांत के बारे में ख़ास बातें
SPARSH UPADHYAY
9 May 2020 1:25 PM GMT
ध्यान रखा जाना चाहिए कि कठोर दायित्व, व्यक्ति की लापरवाही (Negligence) के बजाय उसकी गतिविधि की प्रकृति (Nature of Activity) पर ध्यान केंद्रित करता है, और यह भी देखा जाता है कि वह कार्य किस प्रकार से किया जा रहा है।
आंध्र प्रदेश के वाइजैग जिले में बीते गुरुवार (07-मई-2020) को तड़के हुए 'स्टाइरीन गैस' के रिसाव से अबतक 12 लोगों की मौत हो गई है, और 5,000 से अधिक लोगों के बीमार होने की आशंका है।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, गैस रिसाव से लगभग 3 किलोमीटर के दायरे में लोग प्रभावित हुए हैं। गैस रिसाव के ठीक बाद कई लोगों को सड़कों पर पड़े हुए देखा गया, जबकि कुछ को सांस लेने में कठिनाई हुई और उनके शरीर पर चकत्ते पड़ने के मामले भी सामने आये।
इसके ठीक बाद, आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने इस घटना पर स्वत: संज्ञान लिया और तमाम प्रकार के निर्देश जारी किये। वहीं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी इस मामले की मीडिया रिपोर्टों पर स्वतः संज्ञान लिया और मुख्य सचिव, आंध्र प्रदेश सरकार, पुलिस महानिदेशक, आंध्र प्रदेश और केंद्रीय कारपोरेट मामलों के मंत्रालय को भी विभिन्न बिन्दुओं पर नोटिस जारी किया।
एनजीटी ने एलजी पॉलिमर्स को दिया 50 करोड़ रुपए जमा करने का निर्देश
गौरतलब है कि 08-मई-2020 (शुक्रवार) को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी वाईजैग की रासायनिक गैस रिसाव की घटना के खिलाफ दर्ज एक सुओ मोटो मामले में, घटनास्थल के निरीक्षण के लिए 5 सदस्यीय समिति का गठन किया। इस समिति को 10 दिनों के भीतर रिपोर्ट प्रस्तुत करने को निर्देश दिया गया है।
जस्टिस आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता वाली पीठ, जिसके सदस्य जस्टिस श्यो कुमार सिंह (न्यायिक सदस्य) और डॉ नागिन नंदा (विशेषज्ञ सदस्य) हैं, ने एलजी पॉलीमर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड को जिलाधिकारी, विशाखापट्टनम के पास 50 करोड़ रुपए की राशि जमा करने का निर्देश दिया।
गौरतलब है कि इस मामले को लेकर की गयी एक टिपण्णी में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 'कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) का जिक्र किया, जिसके बारे में हम इस लेख में चर्चा करेंगे।
पीठ ने मुख्य रूप से कहा कि,
"ऐसे पैमाने पर खतरनाक गैस का रिसाव सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है, यह स्वाभाविक रूप से खतरनाक उद्योग के खिलाफ 'कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को आकर्षित करता है।"
ट्रिब्यूनल ने यह आदेश दिया है कि कंपनी के 'कठोर दायित्व' (Strict Liability) की पहचान के अलावा, इस तरह की गतिविधियों को अधिकृत और विनियमित करने के जिम्मेदार वैधानिक अधिकारी, यदि कोई हो तो, के खिलाफ भी चूक की रिपोर्ट समिति द्वारा दी जा सकती है।
कठोर दायित्व का सिद्धांत' (Strict Liability Principle) क्या होता है?
कठोर दायित्व एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी व्यक्ति/उद्योग/कंपनी पर नुकसान या क्षति के लिए कानूनी जिम्मेदारी डालता है, भले ही वह व्यक्ति/उद्योग/कंपनी (जिसे कठोर दायित्व का उत्तरदायी पाया गया है) उसने कोई भी गलती या लापरवाही के साथ कार्रवाई नहीं की। संक्षेप में, इस सिद्धांत के अंतर्गत बिना किसी दोष के भी दायित्व उत्पन्न होता है।
इस प्रकार, ऐसे मामलों में जहां कठोर दायित्व का सिद्धांत लागू होता है, वहां प्रतिवादी को (वादी को) हुई क्षति के लिए हर्जाना देना पड़ता है, भले ही प्रतिवादी ने किसी प्रकार की गलती न की हो - यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम प्रभाकरन विजय कुमार एवं अन्य Appeal (civil) 6898 of 2002।
ध्यान रखा जाना चाहिए कि कठोर दायित्व, व्यक्ति की लापरवाही (Negligence) के बजाय उसकी गतिविधि की प्रकृति (Nature of Activity) पर ध्यान केंद्रित करता है, और यह भी देखा जाता है कि वह कार्य किस प्रकार से किया जा रहा है। मसलन, यदि उसके कार्य की प्रकृति खतरनाक है, तो उसपर इस सिद्धांत को लागू किया जाता है।
ऐसी कई गतिविधियाँ हैं जो इतनी खतरनाक हैं कि वे किसी व्यक्ति या दूसरे की संपत्ति के लिए खतरा बन सकती हैं। जैसे कि एलजी पॉलिमर्स मामले में गैस के जरिये निर्माण का कार्य अपने आप में एक खतरनाक गतिविधि है और इसीलिए कठोर दायित्व के सिद्धांत के अनुसार, इन गतिविधियों के चलते उनकी ओर से किसी भी दोष के बावजूद, उससे होने वाले नुकसान की भरपाई करनी पड़ सकती है (हालाँकि फैक्ट फाइंडिंग टीम ने अभी इस सम्बन्ध में कोई रिपोर्ट नहीं दी है)।
हालाँकि, प्रतिवादी द्वारा कुछ डिफेन्स (बचाव के आधार) लिए जा सकते हैं जिसके आधार पर वह कठोर दायित्व से बच सकता है। उदाहरण के लिए, "कठोर दायित्व सिद्धांत" के तहत, एक पक्ष तब उत्तरदायी नहीं होगा जब कोई खतरनाक पदार्थ, दुर्घटना से या अन्य परिस्थितियों में "एक्ट ऑफ गॉड" के चलते उसके परिसर से बाहर निकल जाए और लोगों को क्षति पहुंचाए। ऐसी परिस्थति में उसे पीड़ित पक्ष को मुआवजे का भुगतान करने की आवश्यकता नहीं होती है।
इसके अलावा, यदि क्षति या नुकसान, वादी की स्वयं की गलती से हुआ या उस नुकसान या क्षति या उसके परिणाम सहने के लिए वादी ने स्वयं सहमती दी थी, या किसी तीसरे पक्ष के द्वारा की गयी गलती के चलते भी कठोर दायित्य से छूट प्रतिवादी द्वारा मांगी जा सकती है।
राइलैंड्स बनाम फ्लेचेर के वाद से निकला है कठोर दायित्व का सिद्धांत
खतरनाक गतिविधियों के लिए कठोर दायित्व का सिद्धांत, ब्रिटिश उच्च न्यायालय के जस्टिस ब्लैकबर्न के ऐतिहासिक फैसले राइलैंड्स बनाम फ्लेचेर 1866 एलआरआई पूर्व 265 से उत्पन्न हुआ था।
इस मामले में तथ्य यह थे कि प्रतिवादी, जो एक मिल के मालिक थे, ने मिल को पानी की आपूर्ति करने के लिए एक जलाशय (Reservoir) का निर्माण किया। इस जलाशय का निर्माण, पुरानी कोयला खदानों पर (के ऊपर) किया गया था, और मिल मालिक के पास यह संदेह करने का कोई कारण नहीं था कि इन पुरानी सुरंगों से होते हुए वादी की एक कार्यशील कोयले की खान जुडी हुई है।
गौरतलब है कि, इस जलाशय को स्वतंत्र कॉन्ट्रैक्टर्स ने बनाया था (जिन्होंने मिल मालिक को सुरंग वाली बात नहीं बताई थी)। जब इस जलाशय में पानी भरा गया तो पानी नीचे चला गया और सुरंग से होते हुए वादी की खदानों में बाढ़ आ गई।
जस्टिस ब्लैकबर्न ने मिल मालिक को इस सिद्धांत पर उत्तरदायी माना कि "वह व्यक्ति जो अपने उद्देश्यों के लिए, अपनी भूमि पर कुछ ऐसा लाता है और उसे इकट्ठा करता है, जो यदि वहां से एस्केप (escape) कर जाये तो रिष्टि/Mischief/नुकसान/क्षति पहुँचाने की संभावना रखता है, तो उस व्यक्ति को ऐसी चीज़ को अपनी जिम्मेदारी पर रखना चाहिए, और अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो सभी नुकसानों के लिए वह प्रथम दृष्टया जवाबदेह है, जो उस चीज़ के एस्केप करने का स्वाभाविक परिणाम होगा।
मामले की अपील [(1868) LR 3 HL 330] पर इस 'नो फाल्ट दायित्य' (जोकि बिना गलती के व्यक्ति को जवाबदेह बनता है) सिद्धांत की हाउस ऑफ लॉर्ड्स (जस्टिस केर्न्स) द्वारा पुष्टि की गई थी, हालाँकि इस सिद्धांत को केवल गैर-प्राकृतिक उपयोगकर्ताओं तक सीमित रखा था। यानी कि यहाँ प्रतिवादी ने चूँकि जलाशय ऐसी जगह बनाया था जो एक जलाशय बनाने के लिए उचित जगह नहीं तो यह एक गैर-प्राकृतिक उपयोग हुआ।
कठोर दायित्व सिद्धांत से पूर्ण दायित्व सिद्धांत की ओर
भारत में भी अदालतों द्वारा कठोर दायित्व का सिद्धांत उपयोग में लिया जाता था, जहाँ पर उद्योगों के मालिकों द्वारा गैर प्राकृतिक चीज़ों के अपने भूमि पर उपयोग पर यह सिद्धांत लागू किया जाता और उन्हें जवाबदेह बनाया जाता था, भले ही उनकी कोई गलती रही हो या नहीं।
हालाँकि, सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली के ओलियम गैस रिसाव मामले [एम. सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया AIR 1987 SC 1086] का फैसला करते हुए भारत जैसी औद्योगिक अर्थव्यवस्था में नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए, 'कठोर दायित्व सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को अपर्याप्त पाया था और इसे 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) के साथ बदल दिया था।
इस मामले में यह देखा गया था कि 'कठोर दायित्व' सिद्धांत (Strict Liability Principle), कंपनियों को अपने दायित्व/जवाबदेही से बचने के कई मौके प्रदान करता है, वहीँ पूर्ण दायित्व सिद्धांत, उन्हें बिना किसी बचाव या छूट के जवाबदेह बनाता है।
गौरतलब है कि ओलियम लीक मामले के बाद से भारत में 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) ने कठोर दायित्व के सिद्धांत' (Strict Liability Principle) को लगभग खत्म कर दिया [उद्योग द्वारा लापरवाही के मामलों में] और अब यह सिद्धांत गैस लीक जैसे मामलों में लागू करना उचित नहीं मालूम पड़ता है।
जैसा कि ओलियम लीक मामले में अदालत ने कहा था, कि एक खतरनाक उद्यम का "समुदाय के लिए प्रति पूर्ण कर्तव्य" होता है, वह यह दिखाता है कि एक खतरनाक उद्योग को किसी भी छूट का दावा करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। उसे अनिवार्य रूप से मुआवजे का भुगतान करना ही चाहिए, चाहे आपदा/नुकसान/क्षति उसकी लापरवाही के कारण हुई हो या नहीं।
अदालत ने ओलियम गैस लीक मामले में साफ़ कहा था कि, "यदि इस तरह की गतिविधि के कारण कोई नुकसान होता है, तो उद्यम को, इस तथ्य की परवाह किए बिना इस नुकसान की भरपाई करने के लिए पूरी तरह उत्तरदायी बनाया जाना चाहिए, कि उद्यम ने सभी उचित देखभाल की थी और यह नुकसान बिना किसी लापरवाही के हुआ।"
अंत में, यह कहा जा सकता है कि जहाँ देश में 1986 के बाद से ही अदालतों द्वारा 'पूर्ण दायित्व सिद्धांत' (Absolute Liability Principle) पर जोर दिया जाने लगा है, वहीँ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की वाईजैग गैस लीक मामले को लेकर की गयी टिपण्णी (उद्योग के कठोर दायित्व को लेकर) काफी हद तक चौंकाने वाली है।