भारत का संविधान अपनी विविधता और समावेशिता में अद्वितीय, एक जीवंत दस्तावेज है, जो देश के विभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक भूगोल की ज़रूरतों के अनुरूप ढलने की क्षमता रखता है। इसी समावेशी भावना की एक मजबूत अभिव्यक्ति है संविधान की छठी अनुसूची (Sixth Schedule)। यह अनुसूची मुख्यतः देश के पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले जनजातीय समुदायों को स्वायत्तता प्रदान करने, उनकी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा करने और स्थानीय संसाधनों पर उनके अधिकार को सुनिश्चित करने का एक संवैधानिक ढांचा है। यह केवल एक प्रशासनिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और राजनीतिक ढाल है, जो छोटे और विशिष्ट समुदायों को बड़े बहुसंख्यक प्रभाव में विलीन होने से बचाती है।
वर्तमान समय में यह ढाल एक नए और सुदूर क्षेत्र लद्दाख के लिए एक मजबूत आकांक्षा का केंद्र बन गई है। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के तहत लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मिलने के बाद से यहां की मुख्य रूप से जनजातीय आबादी ने अपने भविष्य को लेकर गहरी चिंताएं और स्पष्ट मांगें रखी हैं। उनकी प्रमुख मांग है कि लद्दाख को भी छठी अनुसूची के दायरे में लाया जाए। यह मांग केवल एक प्रशासनिक बदलाव की इच्छा नहीं, बल्कि अपनी पारिस्थितिकी, संस्कृति, और पहचान के अस्तित्व की लड़ाई है। यह लेख छठी अनुसूची के ऐतिहासिक, सामाजिक और राजनीतिक पहलुओं की गहन समीक्षा करेगा और विश्लेषण करेगा कि लद्दाख के लिए यह मांग क्यों इतनी 'गूंजती' हुई और महत्वपूर्ण है।
छठी अनुसूची – ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और दर्शन
भारत की आज़ादी के ठीक बाद, देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी 500 से अधिक रियासतों का एकीकरण और सीमावर्ती क्षेत्रों का प्रबंधन। पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय बहुल क्षेत्रों ने एक अलग पहचान की मांग की थी। इन क्षेत्रों का इतिहास, सामाजिक ढाँचा और प्रशासनिक व्यवस्था मैदानी इलाकों से सर्वथा भिन्न थी। संविधान सभा में इन जनजातीय समुदायों की चिंताओं को गंभीरता से लिया गया। डॉ. भीमराव अंबेडकर की अध्यक्षता वाली प्रारूप समिति (Drafting Committee) ने महसूस किया कि इन क्षेत्रों पर बाहरी लोगों द्वारा थोपा गया एक समान कानून और प्रशासन उनके लिए अनुचित और हानिकारक होगा।
इसी सोच के तहत गोपीनाथ बारदोलोई समिति का गठन किया गया, जिसने असम के पहाड़ी जनजातीय क्षेत्रों के लिए स्वायत्त जिला परिषदों के गठन की सिफारिश की। यही सिफारिशें छठी अनुसूची के निर्माण की आधारशिला बनीं। इसका मुख्य दर्शन "सांस्कृतिक संरक्षण के साथ विकास" था। यह माना गया कि जनजातीय समुदायों को स्वयं अपने स्थानीय मामलों – जमीन, जंगल, जल, रीति-रिवाज, और न्याय – को नियंत्रित करने का अधिकार होना चाहिए। इससे न केवल उनकी पहचान सुरक्षित रहेगी, बल्कि उनकी सहमति के बिना बाहरी हस्तक्षेप भी रुकेगा।
छठी अनुसूची के प्रमुख प्रावधान
छठी अनुसूची मुख्य रूप से चार पूर्वोत्तर राज्यों – असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम – के कुछ निर्दिष्ट जनजातीय क्षेत्रों पर लागू होती है। इसके प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं:
स्वायत्त जिले और क्षेत्रीय परिषदों का गठन: अनुसूची के तहत स्वायत्त ज़िला परिषद (Autonomous District Councils - ADCs) और क्षेत्रीय परिषदों (Regional Councils) का गठन किया जाता है। इन परिषदों के सदस्यों का चुनाव स्थानीय लोग करते हैं, और उनके पास विधायी, न्यायिक और प्रशासनिक शक्तियाँ होती हैं।
a) विधायी शक्तियाँ: ये परिषदें स्थानीय मामलों पर कानून बना सकती हैं। इनके दायरे में आते हैं: -भूमि का प्रबंधन: जमीन का आवंटन, खेती की पद्धति, और भूमि हस्तांतरण पर नियंत्रण। यह सबसे महत्वपूर्ण शक्ति है, जो बाहरी लोगों द्वारा जनजातीय भूमि के अधिग्रहण को रोकती है। वन प्रबंधन: स्थानीय जंगलों, लकड़ी और अन्य वन संपदा का प्रबंधनI जल संसाधन: सिंचाई और मछली पालन जैसे मामले। सामाजिक-सांस्कृतिक मामले: रीति-रिवाज, समारोह, परंपरागत न्याय प्रणाली आदि का संरक्षण। शिक्षा: प्राथमिक शिक्षा का प्रबंधन। सड़कों का निर्माण और स्थानीय नगर पालिकाओं का गठन।
b) न्यायिक शक्तियाँ: परिषदों को सिविल और अपराधिक मामलों का निपटारा करने की सीमित न्यायिक शक्ति प्राप्त है। वे पारंपरिक कानूनों और रीति-रिवाजों के आधार पर न्याय कर सकती हैं।
c) वित्तीय शक्तियाँ: परिषदों को भूमि कर, मकान कर, व्यापार लाइसेंस आदि लगाने और वसूलने का अधिकार है, जिससे उन्हें वित्तीय स्वायत्तता मिलती है।
सफलताएं और चुनौतियां
छठी अनुसूची को पूर्वोत्तर में जनजातीय स्वायत्तता की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण सफलता माना जाता है।
1. सफलताएं:
1. सांस्कृतिक संरक्षण: इसने जनजातीय भाषाओं, परंपराओं और सामाजिक ढाँचे को बचाए रखने में अहम भूमिका निभाई है।
2. भूमि की सुरक्षा: बाहरी लोगों द्वारा जमीन के बड़े पैमाने पर खरीदे जाने पर रोक लगी है, जिससे स्थानीय लोगों के आजीविका के साधन सुरक्षित हुए हैं।
3. सशक्तिकरण: स्थानीय लोगों को अपने भाग्य का निर्णायक बनने का अवसर मिला है। इससे उनमें राजनीतिक चेतना और स्वाभिमान का विकास हुआ है।
4. शांति और स्थिरता: कई क्षेत्रों में, स्वायत्तता ने अलगाववादी आंदोलनों की आवाज़ को कमजोर किया है, क्योंकि लोगों की मांगें संवैधानिक ढांचे के भीतर पूरी होने लगीं।
2. चुनौतियां:
1. वित्तीय निर्भरता: अधिकांश परिषदें राज्य और केंद्र सरकारों से मिलने वाले अनुदान पर निर्भर हैं, जो उनकी वास्तविक स्वायत्तता को सीमित करता है।
2. भ्रष्टाचार और अक्षमता: कई बार परिषदों में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता के आरोप लगे हैं।
3. अधिकारों का दुरुपयोग: कभी-कभी, स्थानीय नेताओं द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग करके आंतरिक भेदभाव को बढ़ावा मिला है।
4. केंद्र और राज्य सरकारों के साथ तनाव: क्षेत्रीय परिषदों और राज्य सरकारों के बीच अधिकारों को लेकर टकराव की स्थिति बनी रहती है।
इसके बावजूद, छठी अनुसूची ने यह साबित किया है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में, विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन ही सबसे प्रभावी शासन का मॉडल हो सकता है।
लद्दाख – एक विशिष्ट क्षेत्र और उसकी बदलती राजनीतिक हैसियतI
लद्दाख भारत का एक ऐसा क्षेत्र है जो अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विशिष्टता के लिए जाना जाता है।
1. भौगोलिक विशेषताएँ: यह एक ठंडा रेगिस्तान (Cold Desert) है, जो समुद्र तल से 9,800 से 25,170 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ की जलवायु अत्यंत कठोर है और वनस्पति बहुत कम है। यह पारिस्थितिकी की दृष्टि से एक नाजुक और संवेदनशील क्षेत्र (Fragile Ecosystem) है।
2. सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान: लद्दाख की आबादी मुख्यतः जनजातीय समुदायों से बनी है, जिनमें बौद्ध और मुस्लिम (मुख्यतः शिया) बहुलता है। यहाँ की संस्कृति तिब्बती बौद्ध परंपरा से गहराई से जुड़ी हुई है। लद्दाखी भाषा, भोटी भाषा से मिलती-जुलती है।
3. अर्थव्यवस्था: लद्दाख की अर्थव्यवस्था मुख्यतः पारंपरिक कृषि (जौ आदि), पशुपालन (याक, बकरियाँ) और पर्यटन पर आधारित है। यह क्षेत्र संसाधनों की दृष्टि से समृद्ध है, लेकिन उनके दोहन पर स्थानीय नियंत्रण सीमित है।
इन विशेषताओं के कारण लद्दाख की ज़रूरतें और चुनौतियाँ देश के अन्य हिस्सों से पूरी तरह अलग हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ और राजनीतिक परिवर्तन
ऐतिहासिक रूप से, लद्दाख एक स्वतंत्र राज्य रहा है, जिस पर कभी तिब्बत का और कभी कश्मीर का प्रभाव रहा। 19वीं सदी में यह जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा बना। भारत की आज़ादी के बाद, जब जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा (अनुच्छेद 370) प्राप्त हुआ, तो लद्दाख भी उसी का एक हिस्सा बना रहा। हालाँकि, लद्दाख के लोगों ने हमेशा यह महसूस किया कि कश्मीर-केंद्रित राजनीति और प्रशासन में उनकी ज़रूरतों और आकांक्षाओं की अनदेखी की जाती रही है। वे लंबे समय से अधिक स्वायत्तता या केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा मांग रहे थे।
5 अगस्त, 2019 को एक ऐतिहासिक मोड़ आया। भारत सरकार ने अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करते हुए जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम पारित किया। इसके तहत जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों – जम्मू-कश्मीर (विधानसभा सहित) और लद्दाख (बिना विधानसभा के) – में विभाजित कर दिया गया।
शुरुआत में, लद्दाख में इस फैसले का स्वागत हुआ, क्योंकि यह उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग थी। लेकिन जल्द ही, एक नई चिंता ने जन्म लिया। बिना विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेश का मतलब था कि अब लद्दाख का प्रशासन सीधे उपराज्यपाल (Lieutenant Governor) के माध्यम से चलेगा। स्थानीय लोगों को डर सताने लगा कि इससे उन पर 'बाहरी शासन' थोप दिया जाएगा और उनकी सांस्कृतिक पहचान, भूमि के अधिकार, और नौकरियों के अवसर खतरे में पड़ जाएंगे।
लद्दाख की गूंजती मांग – छठी अनुसूची क्यों?
लद्दाख के लोगों की छठी अनुसूची की मांग कई गहरी और तर्कसंगत चिंताओं से उपजी है।
मुख्य चिंताएं और मांग के आधार
1. जनसांख्यिकीय और सांस्कृतिक पहचान का संकट: लद्दाख के लोगों को सबसे बड़ा डर है कि बिना किसी सुरक्षा के, बाहरी लोग बड़ी संख्या में आकर यहाँ बस सकते हैं। इससे स्थानीय जनजातीय आबादी एक अल्पसंख्यक में तब्दील हो सकती है। उनकी भाषा, बौद्ध धर्म और परंपराएँ खतरे में पड़ जाएंगी। छठी अनुसूची का भूमि हस्तांतरण पर नियंत्रण इस संकट से सीधे तौर पर बचाव करेगा।
2. भूमि और नौकरियों पर अधिकार का संकट: वर्तमान में, लद्दाख के लोगों के पास भूमि और नौकरियों पर पहले जैसा संरक्षण नहीं है। उन्हें डर है कि बाहरी लोग और बड़ी कंपनियाँ यहाँ की जमीन खरीदकर या पट्टे पर लेकर, स्थानीय लोगों को हाशिए पर धकेल देंगी। सरकारी नौकरियों में भी बाहरी लोगों को प्राथमिकता मिल सकती है। छठी अनुसूची की स्वायत्त परिषदें स्थानीय लोगों के लिए भूमि और नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित कर सकती हैं।
3. पर्यावरणीय संकट: लद्दाख का नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र बड़े पैमाने के औद्योगिक विकास को सहन नहीं कर सकता। स्थानीय लोग पर्यावरण के प्रति ज़्यादा जागरूक हैं और चाहते हैं कि विकास का मॉडल स्थायी (Sustainable) हो। छठी अनुसूची के तहत, स्थानीय परिषदें ऐसे नियम बना सकती हैं जो पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता दें।
4. विकास में भागीदारी का अधिकार: बिना विधानसभा के, लद्दाख के लोगों की सरकार में कोई सीधी भागीदारी नहीं है। उनका मानना है कि उनके भविष्य के बारे में फैसले दूर बैठे अधिकारी कर रहे हैं, जिन्हें स्थानीय ज़रूरतों की गहरी समझ नहीं है। छठी अनुसूची "स्थानीय लोगों के लिए, स्थानीय लोगों द्वारा शासन" का सिद्धांत लागू करेगी।
तर्क, विवाद और भविष्य की राह
कुछ लोग तर्क देते हैं कि क्या छठी अनुसूची ही लद्दाख के लिए एकमात्र विकल्प है? क्या अन्य मॉडल, जैसे कि पाँचवीं अनुसूची (Fifth Schedule) जो देश के मैदानी जनजातीय क्षेत्रों पर लागू होती है, या एक विशेष कानून बनाकर लद्दाख को स्वायत्तता देना बेहतर नहीं होगा?
• पाँचवी बनाम छठी अनुसूची: पाँचवी अनुसूची में जनजातीय सलाहकार परिषदें होती हैं, लेकिन उनके पास छठी अनुसूची जितनी विस्तृत विधायी और न्यायिक शक्तियाँ नहीं होतीं। लद्दाख की विशिष्ट भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों को देखते हुए, छठी अनुसूची का मॉडल ज़्यादा उपयुक्त लगता है, क्योंकि यह अधिक मजबूत स्वायत्तता प्रदान करता है।
• विशेष कानून: एक नया कानून बनाना भी एक विकल्प है। लेकिन लद्दाख के लोगों का मानना है कि छठी अनुसूची एक परीक्षित और सिद्ध संवैधानिक मॉडल है। एक नए कानून में समय लगेगा और उसकी शर्तें कमज़ोर हो सकती हैं।
संभावित लाभ और चुनौतियाँ
यदि लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो इसके कई सकारात्मक परिणाम हो सकते हैं:
a) लद्दाख की जनजातीय पहचान सुरक्षित रहेगी।
b) स्थानीय लोगों को अपने संसाधनों और विकास पर नियंत्रण मिलेगा।
c) इससे क्षेत्र में शांति और स्थिरता बढ़ेगी और अलगाववादी भावनाओं को बल नहीं मिलेगा।
d) यह देश के अन्य जनजातीय क्षेत्रों के लिए एक सकारात्मक उदाहरण साबित होगा।
हालाँकि, चुनौतियाँ भी हैं:
a) केंद्र सरकार को यह डर हो सकता है कि इससे अतिरिक्त स्वायत्तता की मांगें देश के अन्य हिस्सों में उठने लगेंगी।
b) स्वायत्त परिषदों के सुचारू संचालन और भ्रष्टाचार से बचाव की चुनौती बनी रहेगी।
c) लेह (बौद्ध बहुल) और कारगिल (मुस्लिम बहुल) के बीच सत्ता के बंटवारे को लेकर मतभेद उभर सकते हैं।
निष्कर्ष
छठी अनुसूची भारतीय संविधान की उदारता और दूरदर्शिता का एक प्रतीक है। यह मानती है कि एक राष्ट्र की एकता, उसकी विविधताओं को दबाकर नहीं, बल्कि उन्हें सुरक्षित और समृद्ध करके ही मजबूत होती है। लद्दाख की मांग इसी सिद्धांत पर आधारित है। यह अलगाववाद की मांग नहीं, बल्कि संवैधानिक ढांचे के भीतर एक न्यायसंगत भागीदारी की मांग है।
लद्दाख की आवाज़ केवल लद्दाख तक सीमित नहीं है। यह पूरे देश के उन सभी सीमांत और जनजातीय समुदायों की आवाज़ है, जो अपनी पहचान, अपनी जमीन और अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। केंद्र सरकार के सामने एक ऐतिहासिक अवसर है। यदि वह लद्दाख की इस गूंजती मांग को सुनती है और उसे छठी अनुसूची की ढाल प्रदान करती है, तो वह न केवल लद्दाख के लोगों का विश्वास जीतेगी, बल्कि यह साबित करेगी कि भारत का लोकतंत्र सच्चे अर्थों में 'लोक' (जनता) का तंत्र है, जहाँ हर वर्ग, हर समुदाय की आवाज़ सुनी जाती है और उसका सम्मान किया जाता है। लद्दाख की मांग को पूरा करना, भारत की अखंडता और विविधता दोनों को मजबूती प्रदान करने वाला कदम साबित होगा।
लेखक- निशिकांत प्रसाद। सहायक प्राध्यापक, इंस्टीट्यूट ऑफ लीगल स्टडीज, रांची यूनिवर्सिटी, रांची एवं शोध छात्र, उषा मार्टिन यूनिवर्सिटी, रांची।