आईपीसी की धारा 188 के तहत दर्ज एफआईआर की वैधता: क्या COVID 19 को नियंत्रित करने के लिए पुलिस के पास पर्याप्त कानूनी प्रावधान हैं?
ऐश्वर्य प्रताप सिंह
असाधारण समय में प्रायः ही असाधारण उपायों की आवश्यकता होती है। COVID 19 नामक वैश्विक महामारी का यह दौर, जिसने पूरी दुनिया को अपनी जकड़ में ले लिया है, हमारे देश समेत पूरी दुनिया के लिए ऐसा ही एक
असाधारण समय है, जिसमें निश्चित रूप से असाधारण उपायों की आवश्यकता है। यह सभी के लिए इम्तहान का वक्त है, विशेष रूप से कोरोना के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे कोरोना योद्धाओं जैसे डॉक्टर, चिकित्सा कर्मचारी, पुलिस, स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ता, आशा, आंगनवाड़ी, अन्य स्व-सहायता समूह। कोरोना के खिलाफ इस लड़ाई में फुट सोल्जर्स हैं।
आईपीसी की धारा 188 के तहत एफआईआर की वैधानिकता
माननीय सुप्रीम कोर्ट में हाल ही में दायर एक जनहित याचिका में आईपीसी की धारा 188 तहत दर्ज सभी एफआईआर को, प्रक्रियागत अनियमितता के कारण, रद्द करने की मांग की गई है। जनहित याचिका का मुख्य आधार यह है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 के प्रावधानों के साथ-साथ माननीय सुप्रीम कोर्ट और माननीय हाईकोर्ट के कई निर्णयों के प्रावधानों के अनुसार, आईपीसी की धारा 188 के तहत एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती है।
याचिकाकर्ता का कहना है कि कि आईपीसी की धारा 188 को सीआरपीसी के धारा 195 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जिसकेअनुसार एक मजिस्ट्रेट ही धारा 188 आईपीसी के तहत अपराध का संज्ञान ले सकता है और वह भी एक लोक सेवक की शिकायत पर।
महामारी के दौर में प्रासंगिक कानूनी प्रावधान
एपीडेमिक डिजीज एक्ट, 1897 एक्ट नंबर 3 ऑफ 1897 औपनिवेशिक युग का कानून है। यह महामारियों के प्रसार की रोकथाम के लिए बना एक अधिनियम है।
अधिनियम की धारा 2 में कहा गया है कि, राज्य सरकार को जब भी यह भरोसा हो जाता है कि पूरे राज्य में या उसके किसी हिस्से में महामारी फैल चुकी है और कानून के सामान्य प्रावधान उस समय के लिए अपर्याप्त हैं तो ऐसे अस्थायी विनियमों को लागू किया जाता है, जिन्हें महामारी को रोकने के लिए आवश्यक माना जाता है।
अधिनियम की धारा 3 में प्रावधान है कि इस अधिनियम के तहत किए गए किसी भी नियमन या आदेश की अवहेलना करना भारतीय दंड संहिता की धारा 188 (1860 का 45) के तहत दंडनीय अपराध माना जाएगा।
यह स्पष्ट है कि अधिनियम खुद पर्याप्त नहीं है, क्योंकि अधिनियम का दंड अनुभाग आईपीसी की धारा 188 के तहत उल्लंघन को दंडनीय बनाता है, और अधिनियम भी अपराध के संज्ञान के लिए प्रक्रिया प्रदान नहीं करता है।
सीआरपीसी की धारा 195 यह प्रावधान करता है कि कोई भी न्यायालय भारतीय दंड संहिता की धारा 172 से 188 के तहत किसी भी दंडनीय अपराध का संज्ञान नहीं लेगा, जब तक कि संबंधित लोक सेवक या किसी अन्य लोक सेवक, जिसका वह प्रशासनिक रूप से अधीनस्थ है, द्वारा लिखित शिकायत नहीं की गई हो।
उपरोक्त प्रावधानों के अध्ययन से स्पष्ट है कि यदि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धाराओं 172 से 188 के तहत कोई दंडनीय अपराध किया जाता है तो कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि संबंधित लोक सेवक द्वारा लिखित शिकायत नहीं दायर हुई है।
सी मुनियप्पन बनाम स्टेट ऑफ टीएन (2010) 9 एससीसी 567 के मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि सीआरपीसी की धारा 195 के प्रावधान अनिवार्य हैं और इनका गैर-अनुपालन अभियोजन और अन्य सभी परिणामी आदेशों को नष्ट कर देगा।
इस मामले में आगे यह कहा गया है कि अदालत इस तरह की मामलों में शिकायत के बिना संज्ञान नहीं ले सकती है और ऐसी शिकायत के अभाव में ट्रायल और दोष बिना अधिकार क्षेत्र के निरर्थक हो जाएगा।
उपरोक्त प्रावधान और न्यायिक आदेशों के विश्लेषण से स्पष्ट है कि आईपीसी की धारा 188 के तहत अपराध की शिकायत के अभाव में अन्य सभी परिणामी आदेश समाप्त हो जाएंगे।
रास्ता क्या है?
सवाल यह उठता है कि देश भर में आईपीसी की धारा 188 के तहत दर्ज की गई, और खासकर लॉकडाउन की अवधि में दर्ज की गई एफआईआर का हश्र क्या होगा। ऐसे मामलों को मोटे तौर पर दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है, जो निम्नानुसार हैं:
-जिन मामलों में आईपीसी की धारा 188 और कुछ अन्य धाराओं के तहत भी एफआईआर दर्ज की गई है जैसे: धारा 269 आईपीसी (लापरवाही के कृत्य जैसे संक्रमण फैलाना या अन्य जानलेवा बीमारी फैलाना); धारा 270 आईपीसी (घातक बीमारी का संक्रमण को फैलाना); धारा 271 आईपीसी (क्वारंटाइन नियमों की अवज्ञा)
-जिन मामलों में एफआईआर केवल धारा 188 आईपीसी के तहत दर्ज की गई है
जहां तक मामलों की पहली श्रेणी का सवाल है, पुलिस न्यायालय में आरोप पत्र दाखिल करने से पहले धारा 188 आईपीसी के तहत दर्ज अपराध को छोड़ सकती है और शेष धाराओं के तहत आरोप पत्र दायर किया जा सकता है।
यह एक तय कानून है कि अदालतें उन सभी अपराधों का संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं हैं, जिनके तहत पुलिस ने आरोप पत्र दायर किया है। वे अपने न्यायिक विवेक अनुसार अपराधों का संज्ञान ले सकती हैं।
सीआरपीसी की धारा 195, निर्दिष्ट अपराधों का संज्ञान लेने पर रोक लगाती है, न कि एफआईआर के पंजीकरण पर, इसलिए अदालतें पुलिस द्वारा आरोपपत्र दायर होने के बावजूद धारा 188 आईपीसी के तहत दर्ज अपराध का संज्ञान लेने के लिए बाध्य नहीं हैं।
हालांकि जहां तक दूसरी श्रेणी के मामलों का संबंध है, जहां केवल आईपीसी की धारा 188 के तहत ही एफआईआर दर्ज की गई है, वहां पुलिस के पास मामलों को छोड़ने और सक्षम न्यायालय के समक्ष एक नई शिकायत दर्ज करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
हालांकि प्रशासन के समक्ष एक व्यावहारिक कठिनाई यह है कि जब लॉकडाउन के कारण अधिकांश कोर्ट बंद हैं तब यदि कोई अपराध एपीडेमिक डिजीज एक्ट, 1897, आईपीसी की धारा 188 के साथ पढ़ें, के तहत दर्ज भी होता है तब भी उस मामले में कानून कैसे अपना काम कर पाएगा?
(ये व्यक्तिगत विचार हैं।)
(ऐश्वर्य प्रताप सिंह कानुपर नगर में अतिरिक्त मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट हैं।)