न्यायिक सेवा के लिए अधिवक्ता के रूप में न्यूनतम प्रैक्टिस की आवश्यकता: नई बहस
शशांक पांडेय
"जजों का काम आसान नहीं है। वे बार-बार वही काम करते हैं, जिसे करना हममें से कई लोग टाल देते हैं; यानी फैसले करना" - प्रोफेस पैन्निक, जजेज़।
आंध्र प्रदेश राज्य न्यायिक सेवा नियम, 2007 के नियम 5 (2) (a) (i) को हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी। उक्त नियम के तहत राज्य में सिविल जज परीक्षा में शामिल होने के लिए वकील के रूप तीन साल की प्रैक्टिस पूर्व शर्त के रूप अनिवार्य कर दी गई है। 2 जनवरी को, बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) ने कहा कि वह ऑल इंडिया जजेज़ एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2002 (2002 AIJA केस) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संशोधित कराने के सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक आवदेन दायर करेगी। उक्त फैसले के तहत राज्य न्यायिक सेवा परीक्षा के लिए वकालत के 3 साल के अनुभव की पात्रता के मानदंड को खारिज कर दिया गया था।
बीसीआई के इस कदम ने सो चुकी एक बहस दोबारा जगा दिया है, क्या वकालत का न्यूनतम अभ्यास न्यायिक सेवा में प्रवेश के लिए पूर्व-शर्त होनी चाहिए, भले ही यह न्यायिक सेवा के न्यूनतम स्तर यानी अधीनस्थ न्यायपालिका की परीक्षा हो। चूंकि अधीनस्थ न्यायपालिका हमारी न्यायिक प्रणाली नींव मानी जाती है, इसलिए यह मुद्दा महत्वपूर्ण है। इस तथ्य से इनकार नहीं है कि ताजा कानून स्नातकों के पास व्यावहारिक अनुभव की कमी होती है। उनका ज्ञान सिद्धांतों, प्रावधानों और आदर्शवाद तक सीमित होता है, जो अदालत के भीतर कानून के कामकाज को समझने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है।
दुविधा
न्यायिक अधिकारियों की न्यूनतम पात्रता पर बहस लंबी है और ज्यादातर उस दौर से तय हुई है, जब इस पर निर्णय/ सुझाव दिए गए थे। इस बहस के इतिहास को विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की रिपोर्ट "स्कूलिंग द जजेज़: द सिलेक्शन एंड ट्रेनिंग ऑफ सिविल जज और ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट" [3]
मौजूदा संविधान लागू होने से पहले, 1924 में रैंकिन कमिशन ने तीन साल के अनुभव की आवश्यकता के मुद्दे पर विचार किया था, जिसमें कहा गया था कि "कुछ प्रांतों में लागू नियम, जिसके तहत उम्मीदवारों को तीन साल या उससे अधिक की अवधि के लिए वकालत का अभ्यास करना आवश्यक है, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि उम्मीदवार ने वास्तव में उपयोगी अनुभव प्राप्त किया है।"
स्वतंत्रता के बाद, हमारे संविधान में अनुच्छेद 234 को शामिल किया गया था, जिसने जिला न्यायाधीश के नीचे न्यायिक अधिकारियों की भर्ती को अधिकृत किया था, हालांकि संविधान सभा में इस अनुच्छेद पर दृढ़ता से बहस नहीं हुई थी। हालांकि, भारत में सिविल जजों और न्यायिक मजिस्ट्रेटों के लिए एक अर्हता स्नातक के बाद कोर्ट में तीन साल की प्रैक्टिस की आवश्यकता रही है, साथ में उच्च न्यायालय के परामर्श से राज्य लोक राज्य आयोग द्वारा आयोजित एक परीक्षा और एक साक्षात्कार आवश्यक रहा है।[4]
भारतीय विधि आयोग (LCI) ने अपनी 14 वीं रिपोर्ट में रैंकिन आयोग के पद चिन्हों पर चलते हुए जब यह देखा कि कानूनी पेशे में प्रचलित स्थितियों के तहत किसी व्यक्ति के लिए तीन से पांच सालों की अवधि में कोई भी सार्थक अनुभव या प्रशिक्षण प्राप्त करना लगभग असंभव है। हालांकि, अपने निष्कर्ष में, LCI ने तीन साल के अनुभव मानदंड को बरकरार रखने के पक्ष में मत दिया, क्योंकि यह नए कानून स्नातकों को अदालतों में कानून के कामकाज के सबंध में कुछ अनुभव प्रदान करता है।
LCI ने अपनी रिपोर्ट में उप-समन्वित न्यायपालिका में सुधार के लिए कई सिफारिशें की थीं -
-भारतीय विधि आयोग की 114 वीं रिपोर्ट- ग्राम न्यायलयों की स्थापना
-भारतीय विधि आयोग की 116 वीं रिपोर्ट- अखिल भारतीय न्यायिक सेवाओं की स्थापना
-भारतीय विधि आयोग की 117 वीं रिपोर्ट- सभी स्तरों पर न्यायिक अधिकारियों के प्रशिक्षण के लिए एक अकादमी की स्थापना
-भारतीय विधि आयोग की 118 वीं रिपोर्ट- अधीनस्थ न्यायालयों / अधीनस्थ न्यायपालिका के लिए नियुक्ति की प्रणाली
116 वीं और 117वीं रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया था कि 2 से 3 साल की प्रैक्टिस पर्याप्त अनुभव नहीं देती और किसी व्यक्ति को शायद ही इतना योग्य बनाती है कि वह एक बेहतर जज बन पाए। हालांकि, 118 वीं रिपोर्ट अपने निष्कर्ष में तीन साल के अनुभव की आवश्यकता को बरकारर रखने सहमत हुई थी।
ये उलझन अनसुलझी ही रहीं और इसी बीच, राज्य सरकारों ने पात्रता मानदंड में संशोधन करने के लिए अपने न्यायिक सेवा नियमों को संशोधित किया। कुछ राज्यों ने तीन साल के अनुभव की आवश्यकता को खत्म कर दिया, जबकि कुछ ने इसे बरकरार रखा। यह तब ही था कि जब सुप्रीम कोर्ट ऑल इंडिया जजेज़ एसोसिशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1993 AIJA केस) में शामिल हुआ कुछ एकरूपता लाने का प्रयास किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को तीन साल के अनुभव की आवश्यकता के मानदंडों को फिर से लागू करने के लिए कहा था क्योंकि ".. किसी भी प्रशिक्षण या स्तर की पृष्ठभूमि के बिना न्यायिक अधिकारियों के रूप में कानून स्नातकों की भर्ती सफल प्रयोग नहीं साबित हुई है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पद ग्रहण करने के पहले दिन से, जज को जीवन, स्वतंत्रता, संपत्ति और वादियों की प्रतिष्ठा का फैसला करना होता है, विश्वविद्यालयों के ताजा स्नातकों को ऐसी ताकतवर सीटों बिठाना न तो विवेकपूर्ण है और न ही वांछनीय है। "(पैरा 20)
सुप्रीम कोर्ट ने भी एकरूपता की विशेषता पर जोर दिया और देखा कि चूंकि जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को पात्रता मानदंड को पूरा करने के लिए एक वकील के रूप में न्यूनतम अवधि के अनुभव की आवश्यकता होती है, इसलिए इसे अधीनस्थ न्यायपालिका में भी लागू किया जाना चाहिए।
2002 में सुप्रीम कोर्ट ने 2002 के एआईजेए मामले में जस्टिस शेट्टी कमीशन की रिपोर्ट का संज्ञान लेते हुए 1993 के अपने पहले के फैसले को उलट दिया और न्यूनतम अनुभव की आवश्यकता को खत्म करने के लिए कहा। तर्क, शेट्टी आयोग के अवलोकन पर आधारित था कि इस आवश्यकता के कारण, प्रतिभाशाली युवा दिमाग न्यायिक सेवाओं से दूर हो रहे हैं। प्रोफेसर माधव मेनन द्वारा एकीकृत लॉ डिग्री और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटीज़ (NLUs) के रूप में शुरू किए गए क्रांतिकारी कदम का अदालत ने संज्ञान लेने में विफल रही। कानूनी शिक्षा केवल कर्षण प्राप्त कर रही थी और स्वैच्छिक रूप से अधिक युवा दिमागों द्वारा फील्ड को अपनाने के कारण अधिक प्रतिस्पर्धी बन गई थी।
किसी अन्य प्रमुख सामान्य कानून देश ने न्यूनतम अभ्यास की आवश्यकता के मानदंडों को नहीं हटाया है। यूनाइटेड किंगडम के पास एक जटिल न्यायिक संरचना है, क्योंकि यह 1,000 साल के विकास का उपोत्पाद है। विभिन्न प्रकार के मामले विशिष्ट अदालतों में निपटाए जाते हैं: उदाहरण के लिए, सभी आपराधिक मामले मजिस्ट्रेट कोर्ट में शुरू होते हैं, लेकिन अधिक गंभीर आपराधिक मामले क्राउन कोर्ट में भेजे जाते हैं। क्राउन कोर्ट से अपील हाईकोर्ट और संभावित रूप से कोर्ट ऑफ अपील में जाती है या सुप्रीम कोर्ट में जाती है। दीवानी मामलों को कभी-कभी मजिस्ट्रेट द्वारा निपटाया जाता है, लेकिन अच्छी तरह यह काउंटी कोर्ट में जाती हैं। फिर, अपील उच्च न्यायालय और फिर कोर्ट ऑफ अपील में- यद्यपि उन अदालतों के विभिन्न प्रभागों में जाती है।
न्यायिक नियुक्ति आयोग इन मजिस्ट्रेट अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जिम्मेदार है। कानूनी रूप से योग्य उम्मीदवारों के लिए पात्रता मानदंड में, कानूनी रूप से योग्य पदों के लिए कम से कम 5 या 7 साल उत्तर योग्यता अनुभव (PQE) की वैधानिक आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में अलग-अलग राज्यों के अपने पात्रता मानदंड हैं, उदाहरण के लिए, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में एक व्यक्ति अदालत के मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त करने के लिए योग्य है यदि उसके पास कम से कम पांच साल का कानूनी अनुभव है। दक्षिण ऑस्ट्रेलिया में मजिस्ट्रेट कोर्ट में नियुक्ति के लिए कम से कम पांच साल की प्रैक्टिस आवश्यक है।
संतरे के साथ सेब की तुलना न करें
बीसीआई के प्रस्ताव के खिलाफ उठाया गया स्पष्ट विवाद, न्यायिक सेवाओं और कार्यकारी सेवा, संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आवंटित विशिष्ट सेवाओं, के बीच समानांतर स्थापित करना होगा। यदि कोई व्यक्ति 21 वर्ष की आयु में भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बन सकता है तो इसी उम्र में कोई व्यक्ति न्यायाधीश क्यों नहीं बन सकता है? यहां अंतर्निहित अनुमान यह है कि दोनों सेवाएं रोजगार की प्रकृति के संदर्भ में समान हैं। इस परिकल्पना की पुष्टि करने के लिए महीन जांच की आवश्यकता है।
चूंकि संविधान सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के लिए रोजगार, पात्रता और अन्य आवश्यकताओं की विस्तृत प्रक्रिया प्रदान करता है, इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये संवैधानिक पद हैं और आगे स्पष्टीकरण की कोई आवश्यकता नहीं है। रोजगार की प्रकृति का मुद्दा निचली न्यायपालिका में पैदा होता है, जहां राज्य के सभी कार्यकारी और न्यायिक अंग न्यायाधीशों की नियुक्ति में शमिल होते हैं और सेवा शर्तों को तय करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 236 में न्यायिक सेवाओं को परिभाषित किया गया है, जिसका अर्थ है "जिला न्यायाधीश और इसके नीचे के अन्य सिविल न्यायिक पदों को भरने के इरादे से विशेष रूप से शामिल एक सेवा।"
ऑल इंडिया जजेज़ एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1993) में सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से यह कहा है कि न्यायिक सेवा रोजगार की दृष्टि से सेवा नहीं है और न्यायाधीश कर्मचारी नहीं हैं। जस्टिस सावंत ने दोनों के बीच अंतर्निहित अंतर को स्पष्ट किया है। पैराग्राफ स्व-व्याख्यात्मक है और नीचे पुन: प्रस्तुत किया गया है:
".... न्यायिक सेवा 'रोजगार' के अर्थ में सेवा नहीं है। न्यायाधीश कर्मचारी नहीं हैं। न्यायपालिका के सदस्य के रूप में, वे राज्य की संप्रभु न्यायिक शक्ति का उपयोग करते हैं। वे सार्वजनिक कार्यालयों के उसी प्रकार धारक हैं, जिस प्रकार मंत्रिपरिषद के सदस्यों और विधायिका के सदस्य हैं। जब यह कहा जाता है कि हमारे जैसे लोकतंत्र में, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका राज्य के तीन स्तंभों का गठन करते हैं, तो इसका तात्पर्य यह होता कि राज्य के तीन आवश्यक कार्य राज्य के तीन अंगों को सौंपे गए हैं और इनमें से प्रत्येक, इसके बदले में, राज्य के अधिकार का प्रतिनिधित्व करता है। हालांकि, राज्य-सत्ता का उपयोग मंत्री, विधायक और न्यायाधीश करते हैं, उनके स्टाफ के सदस्य, जिन्हें निर्णयों को लागू करना या सहायता करना, वे नहीं करते हैं। मंत्रियों की परिषद या राजनीतिक कार्यकारिणी सचिवीय कर्मचारियों या प्रशासनिक कार्यकारिणी से अलग होती है, जो राजनीतिक कार्यकारिणी के निर्णय क्रियान्वित करती है। इसी तरह, विधायक विधायी कर्मचारियों से अलग होते हैं, वैसे ही न्यायिक कर्मचारियों से न्यायाधीश अलग होते हैं। राजनीतिक कार्यकारिणी, विधायकों और न्यायाधीशों के बीच समता होती है, न कि न्यायाधीशों और प्रशासनिक कार्यारिणी के बीच …… न्यायाधीश, जिस भी स्तर पर हो, प्रशासनिक कार्यकारिणी या अन्य सेवाओं के सदस्यों के विपरीत राज्य और उसके अधिकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसलिए अन्य सेवाओं के सदस्यों को न्यायपालिका के सदस्यों के साथ, संवैधानिक या कार्यात्मक रूप से नहीं रखा जा सकता है। "(जोर देकर कहा गया)
भारत के विधि आयोग ने अपनी 14 वीं रिपोर्ट में न्यायिक अधिकारियों के महत्व पर भी जोर दिया, जो उनके अलग कद को दर्शाता है:
"... जिस बड़ी जिम्मेदारी के काम को काम को न्यायिक अधिकारी करते हैं उस पर जोर देने की जरूरत नहीं है। न्यायिक ईमानदारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है ...
..अगर जनता को न्यायाधीशों को गहरा सम्मान देना है, तो जजों को अपने आचरण द्वारा इसका पालन करना चाहिए। उन्हें शब्द या कर्म लोगों को कारण नहीं देना चाहिए कि वे उस पद के लायक नहीं हैं, जिस पर हम उम्मीद करते हैं कि जनता उन्हें जगह देगी। "(जोर देकर कहा)
न्यायाधीशों द्वारा निर्वहित भूमिका और कर्तव्य निम्न कार्यकारी द्वारा निर्वहित प्रशासनिक कर्तव्यों के विपरीत हैं। पूरे न्यायिक ढांचे में न्यायाधीशों में निहित कर्तव्यों और जिम्मेदारी समान है, केवल अधिकार क्षेत्र में भिन्न है। सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में एआईजेए मामले, हाईकोर्ट ऑफ ज्यूडिकेचर, बॉम्बे, रजिस्ट्रार के जरिए, बनाम शिरिष कुमार रंगराओ पाटिल, में निम्नलिखित शब्दों में निचली न्यायपालिका की भूमिका पर प्रकाश डाला है-
"न्याय के प्रशासन की पदानुक्रमित प्रणाली में ट्रायल जज की मुख्या भूमिका है। वह अदालत में दिन-प्रतिदिन की कार्यवाही के दौरान वादकारी के सीधे संपर्क में रहता है। उस पर न्याय के वितरण का गंभीर माहौल बनाने की जिम्मेदारी होती है, व्यक्तित्व, ज्ञान, न्यायिक संयम, गरिमा, चरित्र, आचरण को बरकरार रखने की जिम्मेदारी होती है.... "(पैरा 13)
विवाद के कई मुद्दे
इस तथ्य के बाद भी कि बीसीआई का संकल्प सराहनीय है, यह दोषरहित नहीं है। यह 3 साल के अनुभव पात्रता को दोबार पेश करने का प्रस्ताव देती है। विस्तृत प्रस्ताव की जानकरी बीसीई द्वारा आवेदन दायर आवेदन के तर्क के चरण में ही हो सकती है। हालांकि, कुछ मुहत्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करना अनिवार्य है,जिन्हें बीसीआई द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिए अन्यथा इस कदम से कानूनी पेशे में बदलाव का पहिया उलट जाएगा।
न्यायिक सेवा आम तौर पर पहली पीढ़ी के वकीलों की पसंदीदा पसंद होती है, और यह उम्मीदवार के योग्यता के वस्तुगत मूल्यांकन के कारण है, जिसमें आपको कानूनी बिरादरी में "संपर्क" रखने की आवश्यकता नहीं होती है।
LCI ने अपनी 14 वीं रिपोर्ट में कहा है: "केवल असाधारण युवा है, अनुकूल स्थितियों में, और बार में किसी वरिष्ठ सदस्य की रूचि होने की स्थिति में ही इतने कम समय में बार के अनुभव को इकट्ठा कर पाता है। ऐसा असाधारण व्यक्ति स्वाभाविक रूप से अधीनस्थ न्यायिक सेवा में प्रतियोगी होने की परवाह नहीं करेगा। "
न्यायपालिका के लिए इतने सारे पहली पीढ़ी के वकीलों क्यों प्रयास करते हैं, इसका कारण यह है कि वकील के चैंबर में कानून के नए स्नातकों को मिलने वाली वेतन की मामूली राशि है। विधी सेंटर फॉर लीगल रिसर्च अध्ययन से पता चला कि 2 साल से कम अनुभव वाले 79% अधिवक्ता 10,000 रुपए से कम कमाते हैं। जूनियर अधिवक्ताओं के लिए न्यूनतम मजदूरी की मांग की गई है ताकि वह रोज कमाने और खाने की स्थिति से उबर सकें।
बीसीआई को शेट्टी आयोग द्वारा बताई गई चिंताओं पर विचार करने आवश्यकता है कि "... कानूनी अभ्यास के शुरुआती तीन वर्षों में, वकील न तो कोई अनुभव प्राप्त करते हैं और काम के अभाव में कुछ कमा भी नहीं पाते हैं"। आयोग यह बताने में सही था कि किसी भी काम के अभाव में नए कानून स्नातक निराश हो सकते हैं और न्यायिक सेवाओं से दूर हो सकते हैं। बीसीआई कानूनी पेशे की नियामक भी है और नामांकित अधिवक्ताओं के पेशेवर मानक को निर्धारित करता है।
इसके अतिरिक्त, बीसीआई ने यह भी उल्लेख किया कि अधिकांश न्यायिक अधिकारी अभद्र और अधीर हैं। बीसीआई ने भारत में कानूनी शिक्षा को विनियमित किया और व्यावसायिक नैतिकता और मूट कोर्ट / क्लिनिकल ट्रायल को अनिवार्य विषय बनाया है। ये अवलोकन आवश्यक गुणों को प्रदान करने के लिए इस प्रकार पहलकदमियों की विफलता की स्वीकृति हैं। बीसीआई और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन (UGC) भारत में कानूनी शिक्षा में नियामक एजेंसियां हैं। UGC कानूनी शिक्षा के मानकों को निर्धारित करता है और इसने कानूनी शिक्षा पर एक पैनल स्थापित किया है, BCI को पेशेवर कानूनी शिक्षा के मानकों को निर्धारित करने का अधिकार है। इस प्रकार, एक तरफ, बीसीआई ट्रस्ट विशेष रूप से कानूनी शिक्षा और पेशे में वकीलों के प्रवेश की निगरानी करता है और दूसरी तरफ UGC है, जो विशेष रूप से कानून में उच्च अध्ययन से संबंधित कानूनी संस्थानों द्वारा प्रदान की गई डिग्री को मान्यता देता है।
हालांकि, इन नियामकों द्वारा अनुमानित कानूनी शिक्षा के उद्देश्यों और लक्ष्यों में एकरूपता का अभाव है और इस एकाधिक नियामकों की दुविधा को कानूनी शिक्षा के उप-मानक के लिए दोषी नहीं ठहराया जाता है।
यहां यह भी उल्लेख किया जाना चाहिए कि कई कानून के छात्रो "अव्यवहारिक" इसलिए दिखाई देते हैं क्योंकि वे इंटर्नशिप करने में सक्षम नहीं हैं, क्योंकि यह अवैतनिक और इसलिए वे इसका बोझ नहीं उठा सकते हैं। [5] मैंने एक अध्ययन किया था, जिसमें यह पता चला था कि अधिकांश छात्रों को भत्ता नहीं मिलता है और मिलता भी है तो बहुत मामुली होता है। महंगी कानूनी शिक्षा और अवैतनिक इंटर्नशिप के कारण कई छात्र एक न्यायिक अधिकारी होने के लिए वांछित व्यावहारिक अनुभव नहीं जुटा पाते हैं।
कुछ विचार
बीसीआई संभवतः उन विनियमन एजेंसियों में से है, जो कानून के छात्रों की वास्तविकताओं से पूरी तरह से अलग होकर निर्णय लेती है। कानून के छात्रों और बीसीआई के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है और न ही निर्णय लेने से पहले कोई परामर्श तंत्र है।
पिछले दो दशकों में कानूनी शिक्षा ने बहुत बड़ा बदलाव देखा है। शेट्टी आयोग और ऑल इंडिया जजेज़ एसोसिएशन के निर्णय (2002) के अवलोकनों के पुनरीक्षण की निश्चित रूप से आवश्यकता है। हालांकि, इस पुनरीक्षण को शिक्षा में आए बदलाव से पैदा हुई नई स्थितियों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।
लॉर्ड देवलिन ने कहा था, "अगर हमारी व्यापार प्रणानी उतनी ही पुरानी होती, जितनी की हमारी कानूनी प्रणाली तो हम बहुत पहले दिवालिया राष्ट्र बन गए होते"।
इस बौद्धिक दिवालिएपन में खुद को फिसलने से रोकने के लिए BCI कदम कुछ राहत प्रदान करता है। इसका प्रवर्तन कुछ ऐसा है, जिसे हम तब तक नहीं जानते, जब तक हम जानते हैं।
(लेखक डॉ आरएमएलएनएलयू में कानून के छात्र हैं। उनसे यहां संपर्क किया जा सकता है)
[1] जैसा कि मध्य प्रदेश में उपयोग किया जाता है।
[2] जैसा कि तमिलनाडु में उपयोग किया जाता है।
[3] दूसरा अध्याय: सिविल न्यायाधीशों और न्यायिक मजिस्ट्रेटों के लिए अभ्यास की आवश्यकता पर बहस
[4] ibid
[5] बार काउंसिल ऑफ इंडिया रूल्स 2007, के नियम 25 में कहा गया है कि प्रत्येक पंजीकृत लॉ छात्र को शैक्षणिक वर्ष के दौरान इंटर्न करना आवश्यक है।