प्रवासी संकट: पूर्व जजों और कानूनी बिरादरी की‌ प्रतिक्रिया का नतीजा, सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासी संकट का संज्ञान लिया

Update: 2020-05-27 10:07 GMT

मनु सेबे‌स्टियन

राष्ट्रीय स्तर पर लगाए गए लॉकडाउन के कारण दो महीनों से बहुत ही ज्यादा संकट का सामना कर रहे प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का संज्ञान अंततः सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 26 मई को ले लिया।

उल्लेखनीय है कि लॉकडाउन के कारण सैकड़ों प्रवासी मजदूरों को अपनी जान गंवानी पड़ी, जबकि सुप्रीम कोर्ट अब तक अ‌नभिज्ञता की मुद्रा में रहा है और सरकार के बयान को कि-सब ठीक है- को ही सही मानता रहा है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रवासी मजदूरों से संबंधित कई मुद्दों, जैसे कि मजदूरी का भुगतान, खाद्य सुरक्षा, आश्रय गृह, परिवहन की व्यवस्‍था आदि को उठाया गया है, लेकिन कोर्ट ने किसी भी मुद्दे पर प्रभावी आदेश दिए बिना, सभी को बंद कर दिया।

प्रवासी मजदूरों की कठिनाई जैसे अभूतपूर्व मानवीय संकट पर पर सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रिय प्रतिक्रिया और केंद्र सरकार के उदासीन रवैये की कई पूर्व न्यायाधीशों, वरिष्ठ अधिवक्ताओं, लॉ स्टूडेंट्स समेत कानूनी बिरादरी के कई सदस्यों ने कड़ी आलोचना की। आम नागरिकों ने सुप्रीम कोर्ट के की निष्क्रियता पर दुख व्यक्त किया।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस मदन बी लोकुर और वी गोपाला गौड़ा ने कोर्ट के व्यवहार की तुलना इमरजेंसी के दौर के सुप्रीम कोर्ट से की, जब कोर्ट ने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों के प्रति निराशाजनक उदासीनता का प्रदर्शन किया था। हाईकोर्ट के पूर्व जजों, जस्टिस एपी शाह और कैलाश गंभीर ने कोर्ट की अपनी जिम्मेदारियों को त्याग देने के रवैये की आलोचना की। इन सभी न्यायविदों ने एकमत से कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर संवैधानिक संकट के बीच प्रवासियों को निराश किया।

सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर निराशा व्यक्त करते हुए कहा- "जज नागरिकों के दुखों प्र‌ति आंखें मूंदकर हाथी दांत के महलों में बैठे नहीं रह सकते।"

सुप्रीम कोर्ट की निष्क्रियता पर नाराजगी व्यक्त करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट इस मौके पर "बहुत कुछ कर सकती था।" वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने कहा कि अदालत की निष्क्रियता 'हाशिये के इंसानों से सामाजिक दूरी' बरतने जैसी है।

कई प्रमुख वकीलों - पी चिदंबरम, आनंद ग्रोवर, इंदिरा जयसिंह, मोहन कटारकी, सिद्धार्थ लूथरा, संतोष पॉल, महालक्ष्मी पावनी, कपिल सिब्बल, चंदर उदय सिंह, विकास सिंह, प्रशांत भूषण, इकबाल चागला, अफी चिनॉय, मिहिर देसाई, जानकी देसाई, द्वारकादास, रजनी अय्यर, युसुफ मुच्‍छाला, राजीव पाटिल, नवरोज सरवाई, गायत्री सिंह और संजय सिंघवी - ने मुख्या न्यायधीश ने पत्र लिखकर प्रवासियों मजदूरों के मामले में सुप्रीम कोर्ट से तत्काल हस्तक्षेप करने की मांग की।

उच्च न्यायालयों ने दिखाया रास्ता

इस बीच, कई उच्च न्यायालयों ने सरकार की जवाबदेही सुनिश्च‌ित करने की अपनी संवैधानिक भूमिका का निर्वहन किया। संवैधान‌िक संकट से जूझ रही न्याय व्यवस्‍था को उन्होंने सही रास्ता दिखाया।

गुजरात हाईकोर्ट ने पेश किया जवाबदेही का मॉडल

गुजरात हाईकोर्ट ने COVID-19 और लॉकडाउन से संबंधित मुद्दों का स्वतः संज्ञान ‌लिया और सरकार की कार्य योजनाओं का स्पष्टीकरण मांगा। कोर्ट ने सरकार की कार्य योजनाओं में तभी हस्तक्षेप किया, जब उन्होंने पाया कि सरकार की प्रतिक्रियाएं अनुचित नहीं है या असंतोषजनक हैं। जस्टिस जेबी पारदीवाला और इलेश जे वोरा की बेंच ने राज्य सरकार द्वारा पर्याप्त संख्या में COVID -19 का टेस्ट नहीं करने के लिए दिए गए स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया।

गुजरात सरकार ने पीठ से कहा था कि ज्यादा टेस्ट करने से 70% आबादी कोरोना पॉजीटिव पाई जा सकती है, जिससे लोगों में "भय" पैदा हो सकता है। कोर्ट ने सरकार से कहा था कि यह टेस्ट कम करने का कारण नहीं हो सकता है।

कर्नाटक हाईकोर्ट ने सरकार को कार्रवाई करने को मजबूर किया

प्रवासियों के मुद्दों पर कर्नाटक हाईकोर्ट की प्रतिक्रिया भी ऐसी ही थी। हाईकोर्ट ने यह दिखाया कि कोर्ट सही सवाल पूछकर और उचित निगरानी कर सरकार को काम करने के लिए मजबूर कर सकता है। हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एएस ओका और जस्टिस बीवी नगरनाथ की पीठ ने कहा कि प्रवासी मजदूर द्वारा रेल किराया न दे पाना इस बात का आधार नहीं हो सकता है कि उन्हें उनके घरों तक न जाने द‌िया जाए।

कोर्ट ने कहा कि उनकी आमदनी में कमी लॉकडाउन के कारण हुई, जिसे सरकार ने लगाया है। इसलिए, राज्य का उनके कष्टों को कम करने का संवैधानिक दायित्व है।

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा, अगर कोर्ट चुप रहेगा तो अपनी भूमिका में विफल हो जाएगा

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा कि अगर वह प्रवासियों के मुद्दे पर चुप रहता है तो अपनी भूमिका में विफल हो जाएगा। जस्टिस डीवीएसएस सोमयाजुलु और जस्टिस ललिता कान्नेगंती की खंडपीठ ने प्रवासियों के लिए भोजन, शौचालय और चिकित्सा सहायता आदि की उचित उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए कई दिशा-निर्देश दिए।

चीफ जस्टिस जेके माहेश्वरी की अध्यक्षता वाली एक अन्य पीठ ने प्रवासियों के लिए अस्थायी शेड बनाने और पंजीकरण के 48 घंटे के भीतर बस/ ट्रेन द्वारा उनकी यात्रा सुनिश्चित करने के लिए दिशा-निर्देश पारित किए।

मद्रास हाईकोर्ट ने कहा, प्रवासियों की‌ स्थितियों पर दया आती है

मद्रास हाईकोर्ट स्वतः संज्ञान लेते हुए प्रवासियों मजदूरों की राहत के लिए उठाए गए कदमों पर राज्य सरकार और केंद्र से रिपोर्ट मांगी।

जस्टिस एन किरुबाकरन और आर हेमलता की पीठ ने कहा, "प्रवासी मज़दूरों को अपने घरों तक पहुंचने के लिए कई दिनों तक पैदल चलते हुए देखना दुख की बात है और इस प्रक्रिया में कई दुर्घटनाओं के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। सभी राज्यों के अधिकारियों को प्रवासी मजदूरों को अपनी मानव सेवाएं उपलब्‍ध करानी चाहिए।"

इसके अलावा, केरल हाईकोर्ट केरल सरकार द्वारा प्रवासी श्रमिकों को भोजन और आश्रय प्रदान करने के लिए उठाए गए कदमों की निगरानी कर रहा है। उड़ीसा हाईकोर्ट और बॉम्बे हाईकोर्ट ने प्रवासियों के मुद्दे पर आवश्यक दिशा-निर्देश पारित किए हैं।

तेलंगाना हाईकोर्ट ने एक तल्‍ख टिप्पणी में कहा कि मेडिकल इमर्जेंसी संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए अधिकारों को रौंदने का बहाना नहीं हो सकती है।

सार्वजनिक आलोचना का महत्व

मौजूदा हालात आपातकाल के दौर जैसे ही लग रहे हैं, जहां उच्च न्यायालयों ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी स्वतंत्र भूमिका के निर्वहन का प्रयास किया, जबकि सुप्रीम कोर्ट सरकार के सामने झुक गया। हालांकि, अब बढ़ती आलोचना के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे संज्ञान लिया है।

यह विकास लोकतंत्र में सूचित और रचनात्मक आलोचना की भूमिका को भी रेखांकित करता है।

सतर्क नागरिकों का समूह, जो लगातार सत्ता के केंद्रों की गतिविधियों की वैधता और औचित्य सुनिश्‍चित करने की कोश‌िश करता है, संस्थानों को उनके संवैधानिक कर्तव्यों के निर्वहन में विफल होने से रोक सकता है।

वरिष्ठ वकीलों द्वारा सीजेआई को भेजे गए पत्र को पढ़ने के लिए क्लिक करें



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