स्वप्निल त्रिपाठी
[यह आलेख केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले के 47 वर्ष पूरा होने के अवसर पर आयोजित विशेष सीरीज़ का हिस्सा है। उक्त फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' का निर्धारण किया था।]
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) 4 SCC 225 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मूल संरचना सिद्धांत का निर्धारण किया था, जिसके अनुसार संसद कुछ मूलभूत विशेषताओं को छोड़कर संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है। इस फैसले से श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली सरकार खुश नहीं हुई।
दो साल बाद, श्रीमती गांधी को एक और झटका लगा, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चुनावी कदाचार की बिनाह पर रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से उनका चुनाव रद्द कर दिया। श्रीमती गांधी ने सुप्रीम कोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर स्टे प्राप्त कर लिया, और इसके तुरंत बाद राष्ट्रपति ने, सरकार की मदद और मशविरे पर, देश में आपातकाल घोषित कर दिया।
इसके बाद, सरकार ने 39 वां संवैधानिक संशोधन पारित किया, जिसमें कहा गया था कि राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री या सदन के अध्यक्ष के चुनाव से संबंधित किसी भी विवाद पर एक उपयुक्त मंच फैसला लेगा, न कि कोर्ट ऑफ लॉ। संशोधन ने कोर्ट के समक्ष उपरोक्त चुनावों से संबंधित किसी भी लंबित कार्यवाही को भी अमान्य घोषित कर दिया। संशोधन ने श्रीमती इंदिरा गांधी के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट में लंबित अपील को भी रद्द करार दे दिया।
(केशवानंद भारती केस): प्रोफेसर कॉनराड, जो मूल संरचना सिद्धांत की प्रेरणा थे
उक्त संशोधन को इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (AIR 1975 SC 2299) मामले में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष चुनौती दी गई थी।
7 नवंबर 1975 को सुप्रीम कोर्ट केशवानंद भारती के मामले में प्रतिपादित मूल संरचना सिद्धांत का उपयोग करते हुए 39 वें संवैधानिक संशोधन को रद्द कर दिया। कोर्ट के अनुसार, संशोधन न्यायालय की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को सीमित करता है, जो कि मूल संरचना का हिस्सा है।
हालांकि सरकार को यह फैसला रास नहीं आया, और फैसले के कुछ दिनों के बाद ही चीफ जस्टिस रे ने केशवानंद भारती (केशवानंद-2) के फैसले की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के सभी 13 जजों के साथ एक विशेष पीठ का गठन किया। किसी को पता नहीं था कि इस स्पेशल बेंच का गठन कैसे हुआ। दिलचस्प बात यह है कि 13 में से 8 जज नए थे और केशवानंद मामले की बेंच का हिस्सा नहीं थे।
श्री नानी पालखीवाला ने 13 जजों के समक्ष लगातार दो दिनों तक केशवानंद भारती के फैसले का बचाव करते हुए तर्क दिया। जस्टिस आरएफ नरीमन ने पालखीवाला पर व्याख्यान देते हुए कहा था कि केशवानंद-2 मामले में बहस करते हुए, पालखीवाला के पास प्रस्तावित 41 वें संशोधन विधेयक की एक प्रति थी, जो अभी तक कानून नहीं बनी थी।
संशोधन विधेयक में प्रस्ताव दिया गया था कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या राज्यपाल के पद पर बैठ चुके व्यक्ति के खिलाफ भारत के न्यायालयों में किसी भी अपराध के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है।
पालखीवाला ने यह कहते हुए कानून की विसंगति की ओर इशारा किया कि भले ही एक व्यक्ति, केवल एक दिन के लिए इन संवैधानिक पदों पर बैठा हो, उस पर जीवन भर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। उन्होंने ऐसे संशोधनों पर नियंत्रण के लिए मूल संरचना सिद्धांत की आवश्यकता पर जोर दिया।
सुनवाई के दरमियान, किसी ने पूछा कि पीठ का गठन किसने किया है? चीफ जस्टिस रे ने पलखीवाला को देखा और कहा, आपने किया। पालखीवाला ने अपने जवाब में जोरदार तरीके से नहीं कहा और पूछा कि अपने पक्ष में आए हुए फैसले को मैं चुनौती क्यों दूंगा।
जस्टिस रे ने तब कहा था कि तमिलनाडु ने फैसले की समीक्षा की अपील की थी, जिसके जवाब में तमिलनाडु के महाधिवक्ता (जो संयोग से कोर्ट में ही उपस्थित थे) ने कहा कि राज्य फैसले के पक्ष में है। ऐसा ही प्रतिक्रिया गुजरात राज्य के महाधिवक्ता ने दी। इस आदान-प्रदान ने अन्य न्यायाधीशों को यह एहसास करवाया कि बेंच का गठन स्वयं जस्टिस रे के इशारे पर किया गया था, जो यकीनन चाहते थे कि केशवानंद भारती का फैसला खत्म हो जाए। सुनवाई के तीसरे दिन चीफ जस्टिस रे कोर्ट रूम में आए और बस 'बेंच डिसॉल्व्ड' की घोषणा की और बाहर चले गए।
अपने इस्तीफे के बाद जस्टिस एचआर खन्ना ने (जो कि केशवानंद-2 में खंडपीठ के सदस्य थे) ने केशवानंद- 2 मामले में नानी पालखीवाला की वकालत की प्रशंसा की और टिप्पणी की 'यह नानी नहीं थे, जो बोल रहे थे। उनके जरिए भगवान बोल रहा था।' उन्होंने आगे कहा था कि उनकी राय को उनके सभी भाई जजों ने साझा किया।
जस्टिस खन्ना ने इस निर्णय को भी केशवानंद-1 जितना ही महत्वपूर्ण बताया था कि क्योंकि इसने मूल संरचना सिद्धांत पर अंतिम निर्धारित हमले को चिह्नित किया था और भारत में संवैधानिक कानून पर इसके प्रभाव की शुरुआत को चिह्नित किया था।
अफसोस की बात यह है कि केशवानंद- 2 के नतीजे को किसी भी रिपोर्ट किए गए फैसले में जगह नहीं मिलती क्योंकि इससे पहले कि कोई आदेश सुनाया जाता, जस्टिस रे ने, 'द बेंच इस डिसॉल्व्ड' कहा था और बाहर चले गए थे।
केशवानंद-2 का एक तात्कालिक परिणाम कुख्यात 42 वां संवैधानिक संशोधन था, जिसमें संसद ने केशवानंद-1 के फैसले के प्रभाव का प्रतिकार करने का प्रयास किया था। हालांकि, उस संशोधन को मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (AIR 1980 SC 1789) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने काफी हद तक रद्द कर दिया था। बाद में संसद (श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में) ने 44 वें संविधान संशोधन के जरिए उक्त संशोधन के अधिकांश हिस्से को निरस्त कर दिया।
केशवानंद भारती-2 एक ऐसा मामला था, जिसमें भारतीय लोकतंत्र को दूसरी बार बचाया गया। यह हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है और भारत के प्रत्येक नागरिक को इसकी जानकारी होनी चाहिए।
(लेखक नई दिल्ली में वकील हैं। यह आलेख उनके निजी ब्लॉग "द बेसिक 'स्ट्रक्चर" पर प्रकाशित हो चुका है। आलेख का उद्देश्य कानून बिरादरी के किसी भी सदस्य को आहत करना नहीं है। आलेख में दिए गए तथ्य और घटनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं।)