(केशवानंद भारती केस): प्रोफेसर कॉनराड, जो मूल संरचना सिद्धांत की प्रेरणा थे
LiveLaw News Network
24 April 2020 4:07 PM IST
स्वप्निल त्रिपाठी
[यह आलेख केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले के 47 वर्ष पूरा होने के मौके पर लिखी जा रही सीरीज़ का हिस्सा है। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 'मूल संरचना सिद्धांत' निर्धारित किया था।]
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य [(1973) 4 SCC 225] मामले में दिया गया फैसला यकीनन भारत की सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया सबसे महत्वपूर्ण फैसला है। उक्त फैसले में यह निर्धारित किया गया है कि यद्यपि संसद के पास संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने, जोड़ने, सुधार करने या निरस्त करने की शक्ति है, लेकिन इस शक्ति की कुछ सीमाएं हैं।संविधान में संशोधन करते समय संसद संविधान की अनिवार्य विशेषताओं में परिवर्तन नहीं कर सकती है। कोर्ट ने इस सिद्धांत को मूल संरचना सिद्धांत कहा था। इस आलेख में उस फैसले पर विस्तार से चर्चा की गई है।
विद्वानों ने अक्सर कहा है कि मूल संरचना सिद्धांत के जरिए सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय लोकतंत्र को बचाया था और भविष्य की भारत की संवैधानिक पहचान को बदलने की किसी भी कोशिश पर रोक लगा दी थी। फैसले की चर्चा करते मामले में वकील नानी पालखीवाला और जज जस्टिस एचआर खन्ना के प्रयासों की सराहना की जा सकती है। जस्टिस खन्ना के स्विंग वोट कारण ही सिद्धांत के पक्ष 7:6 से फैसला हो सका था।
हालांकि, यह जानना दिलचस्प होगा कि मूल संरचना सिद्धांत के लेखक न तो श्री पालखीवाला हैं और न ही न्यायमूर्ति खन्ना। यह सिद्धांत प्रसिद्ध जर्मन विद्वान, प्रो डिट्रिच कॉनराड का दिया हुआ, जिनका निहित सीमा का सिद्धांत को भारत में मूल संरचना सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया।
वर्तमान आलेख में मैंने सिद्धांत की उत्पत्ति और सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कैसे संदर्भित किया गया था, की चर्चा करके प्रो कॉनराड को श्रद्धांजलि अर्पित की है।
कॉनराड की पृष्ठभूमि और प्रेरणा-
कॉनराड जर्मनी के हीडलबर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशिया संस्थान में प्रोफेसर थे। नाजी जर्मनी के दौर में एडोल्फ हिटलर द्वारा वीमर संविधान (1919-1949 तक जर्मनी पर शासन करने के लिए बना संविधान) के दुरुपयोग ने कॉनराड पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला था। उन्होंने बाद में निहित सीमाओं के अपने सिद्धांत को विकसित करने में उन अनुभवों का उपयोग किया।
यदि संसद के 2/3 सदस्यों ने संविधान संशोधन के पक्ष में मतदान किया हो तो वीमर संविधान संसद को संविधान संशोधन करने की अनुमति देता था। (अनुच्छेद 76)
दूसरे शब्दों में, 2/3 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया हो तो विधानमंडल संविधान के किसी भी हिस्से को बदल सकता था। 1933 में, हिटलर को जर्मनी का चांसलर नियुक्त किया गया और उसने इस प्रावधान का इस्तेमाल पूरे संविधान को खत्म किया और जनता के अधिकारों को मनमाने तरीके से छीन लिया।
नियुक्ति के महीने भर के भीतर हिटलर ने आपातकाल की घोषणा की और नागरिक अधिकारों की संवैधानिक सुरक्षा अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता, संबंद्घता, आवास और बंदी प्रत्यक्षीकरण जैसे अधिकारों को निलंबित कर दिया।
इसके बाद संसद ने सक्षम अधिनियम पारित किए, जिसके बाद संसद के साथ ही अलावा सरकार/ कार्यकारी को भी कानून पारित करने का अधिकार हासिल हो गया। सरकार को कानून पारित करने के लिए संविधान की प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं का पालन करने की बाध्यता नहीं रही, जबकि ससंद को अनुपालन करना था।
कानून के शुरुआती शब्दों थे कि यह कानून संवैधानिक संशोधन की आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद पारित किया गया है। सक्षम अधिनियम ने संविधान में औपचारिक संशोधन नहीं किया, लेकिन इसे मृतप्राय छोड़ दिया।
इसके बाद हिटलर ने सक्षम अधिनियम का इस्तेमाल ऐसे कानून लागू किए जिसने उसे अपार शक्तियां दी और बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति दी।
इस अनुभव ने जर्मनों को एक महत्वपूर्ण सबक सिखाया कि संशोधन पर प्रक्रियात्मक सीमाएं संवैधान विरोधी शक्तियों के खिलाफ पर्याप्त सुरक्षात्मक उपाय नहीं हैं। उक्त प्रक्रिया का पालन करके बुराई को लागू किया जा सकता है।
इसलिए, जब फेडरल रिपब्लिक ऑफ जर्मनी ने जब अपने नए संविधान, जिन्हें बेसिक लॉ कहा जाता है, का मसौदा तैयार किया तो उसने संशोधन की शक्ति पर ठोस सीमाएं लागू की, जिनमें स्पष्ठ रूप से कुछ हिस्से तय किए गए, जिन्हें संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता था।
बेसिक लॉ का अनुच्छेद 79 (3) ने अनुच्छेद 1 से 20.9 तक में निर्धारित बुनियादी सिद्धांतों के प्रावधानों में किसी भी संशोधन पर स्पष्ट रूप से रोक लगाता है, जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ संघवाद, लोकतंत्र, कानून का शासन, शक्तियों के पृथक्करण आदि के सिद्धांत शामिल किए गए हैं। इस क्लॉज को 'इटरनिटी क्लॉज' भी कहा जाता है।
निहित सीमा सिद्धांत और भारत में उसका प्रयोग
फरवरी 1965 में प्रो कोनराड को भारत में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में एक व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया था, जिसमें उन्होंने 'संशोधन की शक्ति की निहित सीमा' विषय पर बात की थी।
उन्होंने नाजी शासन का हवाला देते हुए बताया था कि कैसे उसने सत्ता पाने की हनक में वीमर संविधान को बर्बाद कर दिया था और आसानी से बदले जाने योग्य संविधान के खतरों को उजागर किया था। कॉनराड के अनुसार, संशोधन के लिए जिम्मदार निकाय चाहे कितना भी शक्तिशाली हो, मूल संरचना को नहीं बदल सकता है, जोकि उसके संवैधानिक अधिकार का समर्थन करता है।
दूसरे शब्दों में, संशोधन के लिए जिम्मेदार निकाय (यानी संसद) मूल संविधान और इसके प्रावधानों को नहीं बदल सकती है, जिसने उसे संशोधन की शक्ति दी है। संशोधन के लिए जिम्मेदार निकाय पर कुछ निहित सीमाएं लागू होती हैं, जिनके अनुसार संविधान के कुछ हिस्से या सिद्धांत उसकी पहुंच से परे होते हैं। इसे डॉक्ट्रिन ऑफ लिमिटेशन कहा जाने लगा।
इसके बाद, कॉनराड ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 पर चर्चा की, जिसके अनुसार संसद संविधान में संशोधन कर सकती है। इसके लिए प्रत्येक सदन में संशोधन विधेयक बहुमत से पारित करना होता है।
उन्होंने काल्पनिक प्रश्न रखा था कि क्या अनुच्छेद 368 का प्रयोग करके संसद अनुच्छेद 1 में संशोधन कर सकती है और भारत के संघ को तमिलनाडु और हिंदुस्तान में विभाजित कर सकती है? क्या यह अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त कर सकती है? क्या सत्तारूढ़ पार्टी, बहुमत घटते देखकर, अनुच्छेद 368 में संशोधन करके सारी शक्तियों को राष्ट्रपति में समाहित कर सकती है, जो कि प्रधानमंत्री की सलाह पर काम करता है।
क्या संशोधन की शक्ति के जरिए संविधान को समाप्त किया जा सकता है और राजशाही को लागू किया जा सकता है? उत्तर स्पष्ट नहीं था, क्योंकि इस तरह के व्यापक बदलाव भारत के लोकतंत्र को नष्ट कर देंगे और इसे तानाशाही में बदल देंगे। इसलिए, कॉनराड ने तर्क दिया था कि हर संविधान में निहित सीमाओं की आवश्यकता होती है।
व्याख्यान के विषय पर एक पेपर लिखा गया था, जिसे श्री एमके नांबियार (एक संवैधानिक वकील) ने देखा था। श्री नांबियार सिद्धांत और संभावित प्रश्नों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य, (AIR 1967 SC 1643) के मामले में सुप्रीम कोर्ट में बहस करते हुए उन पर भरोसा किया।
कोर्ट ने सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया। हालांकि अधिकांशा ने माना कि तर्क ठोस हैं और अगर ऐसे हालात बनते हैं, जहां संसद संविधान के ढांचे को नष्ट करने का प्रयास करती है, तो उन्हें दोबारा देखा जा सकता है।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में ऐसे हालात उभर आए, जिसमें संविधान में 24 वें संवैधानिक संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
उस संशोधन ने व्यावहारिक रूप से संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को जोड़ने, संशोधित करने या निरस्त करने की अनुमति दी, जब तक कि इसे अपेक्षित बहुमत के साथ पारित किया गया हो। इस मामले में बहस करते हुए श्री नानी पालखीवाला ने कॉनराड का हवाला दिया और संसद की संशोधन की शक्ति पर निहित सीमाओं का तर्क दिया।
उन्होंने अदालत को आश्वस्त किया कि संविधान की कुछ बुनियादी विशेषताएं हैं, जिन्हें संसद संशोधित नहीं कर सकती है। कोर्ट ने इस सिद्धांत को, मूल संरचना का सिद्धांत कहा, जो कि कॉनराड के निहित सीमा का ही एक उपनाम था।
जस्टिस नरीमन ने एक व्याख्यान में केशवानंद के मामले में सुनवाई के बारे में एक दिलचस्प किस्सा साझा किया। उन्होंने बताया कि श्री पालकीवाला निहित सीमा पर अपने पक्ष मे समर्थ में बिना कोई सपोर्टिंग जजमेंट या केस लॉ के अदालत गए थे।
श्री पालखीवाला के पास एकमात्र आधार प्रो कॉनराड का आलेख था। यह प्रो कॉनराड और श्री पालखीवाला की प्रतिभा को दर्शाता है। श्री पालखीवाला ने अपनी दलीलों से 13 में से 7 जजों को अपना पक्ष समझा दिया था।
पोस्ट स्क्रिप्ट-
एक ऐसा धड़ा भी है, जो ये मानता है कि कॉनराड इस सिद्घांत की प्रेरणा नहीं थी। प्रख्यात विद्वान फली एस नरीमन के अनुसार, जस्टिस मुधोलकर ने सज्जन सिंह बनाम राजस्थान राज्य (AIR 1965 SC 845) के मामले में सबसे पहले 'बुनियादी विशेषता' वाक्यांश का इस्तेमाल किया था।
जस्टिस मुधोलकर को पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एआर कूहेलियस के एक फैसले से बुनियादी विशेषता का विचार आया था। चीफ जस्टिस एआर कूहेलियस ने अपने फैसले में कहा था कि 1956 के संविधान के तहत पाकिस्तान के राष्ट्रपति के पास, हालांकि संविधान की कठिनाइयों को दूर करने का अधिकार है, लेकिन उनके पास संविधान की मूलभूत विशेषता को हटाने की शक्ति नहीं है। (फज़लुल क़ादर चौधरी बनाम मोहम्मद अब्दुल हक, पीएलडी 1963 एससी 486)।
हालांक प्रो कॉनराड को निहित सीमा के सिद्घांत की प्रेरणा मानने वालों की संख्या ज्यादा है, जबकि दूसरे धड़े के समर्थन में कम लोग हैं।
(लेखक नई दिल्ली में वकील हैं। यह आलेख पहली बार उनके निजी ब्लॉग "द बेसिक 'स्ट्रक्चर" पर प्रकाशित हुआ था। आलेख का उद्देश्य कानून बिरादरी के किसी भी सदस्य को आहत करना नहीं है। इसमें दिए गए तथ्य और घटनाएं सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं।)