क्या साध्य, साधन की पवित्रता तय करेंगे? पोलिश छात्र के मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय की हानिप्रद व्याख्या
(स्वप्निल त्रिपाठी)
कलकत्ता उच्च न्यायालय ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया, जिसमें विदेशियों के क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय, कोलकाता की ओर से भारत में पढ़ रहे एक पोलिश नागरिक को दिए गए भारत छोड़ने के नोटिस ( Leave India Notice या LIN) को रद्द कर दिया।
पोलिश नागरिक को हालिया नागरिक संशोधन कानून के विरोध में आयोजित राजनीतिक रैलियों में शामिल होने के कारण कथित रूप से वीजा शर्तों का उल्लंघन करने के आरोप में भारत छोड़ने का नोटिस दिया गया था, जिसे उसने उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। उसका तर्क था कि उसे दी गई नोटिस में भारत छोड़ने की नोटिस देने के कारण नहीं दिए गए थे। साथ ही उसे नोटिस देने से पहले उचित सुनवाई का मौका नहीं दी गया।
उच्च न्यायालय नोटिस रद्द करने का फैसला साध्य के रूप में सराहनीय है, हालांकि साध्य तक पहुंचने के लिए अपनाए गए साधन संदिग्ध प्रतीत होते हैं।
मौजूदा आलेख में मैं उच्च न्यायलय के फैसलों के महत्वपूर्ण पर आशयों और उनकी समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए उक्त अवलोकन पर विस्तार से चर्चा करूंगा। पहले दोनों पक्षों की दलीलों और उस पर न्यायालय के निष्कर्षों समेत फैसले का संक्षिप्त अवलोकन प्रदान करूंगा। इसके बाद विस्तार से निर्णय का विश्लेषण करूंगा। इससे पहले कि निर्णय पर चर्चा कि जाए, उन अवधारणाओं की संक्षिप्त जानकारी दे रहा हूं, ,जिनकी चर्चा होगी-
भारत में छात्र वीजा की शर्तें-
फॉरेनर्स एक्ट, 1946 की धारा 3 केंद्र सरकार को भारत में विदेशी नागरिकों के प्रवेश को विनियमित करने, सीमित करने या प्रतिबंधित करने का आदेश देने का अधिकार प्रदान करती है। यह धारा केंद्र सरकार को उन शर्तों को तय करने की अनुमति भी देती है, जिन्हें एक विदेशी नागरिक भारत में रहने के दरमियान पालन करने के लिए बाध्य होता है। दूसरे शब्दों में यह वीजा को नियंत्रित करने की शर्तें होती हैं।
उक्त धारा के तहत जारी किए गए केंद्र सरकार के आदेशों के अनुसार, एक विदेशी नागरिक को अपनी यात्रा के उद्देश्य का कड़ाई से पालन करना होता है। उदाहरण के लिए, एक पर्यटक वीजा पर आए एक विदेशी नागरिक को केवल मनोरंजन, पर्यटन स्थल-दर्शन, मित्रों या रिश्तेदारों से मिलने आदि की अनुमति है; और किसी अन्य उद्देश्य/ गतिविधि की इजाजत नहीं होती है। इसी प्रकार, छात्र वीजा पर एक विदेशी नागरिक को केवल ऑन कैंपस अध्ययन की अनुमति होती है, किसी भी अन्य गतिविधि में शामिल होने की अनुमति नहीं होती है। (खंड 10)
लीव इंडिया नोटिस-
यदि कोई विदेशी नागरिक वीजा की शर्तों का उल्लंघन करता है तो संबंधित विदेशियों के क्षेत्रीय पंजीकरण कार्यालय (एफआरआरओ) उसे भारत छोड़ने को नोटिस जारी करने का अधिकार रखता है। उसका भारतीय वीजा रद्द करने का भी अधिकार रखता है। ऐसे मामलों में, एफआरआरओ को सबसे पहले संबंधित विदेशी नागरिकों को कारणों के साथ नोटिस जारी करना होता है और उसका जवाब मांगना होता है। उत्तर पर विचार करने के बाद एफआरआरओ वीजा रद्द कर सकता है या नोटिस को वापस ले सकता है।
उच्च न्यायालय का फैसला-
याचिकाकर्ता कामिल सिडक्जाइनस्की एक पोलिश नागरिक हैं, अगस्त 2020 तक वैध छात्र वीजा पर जादवपुर यूनविर्सिटी से तुलनात्मक साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएट कर रहे हैं। शिक्षा में उनका उत्कृष्ट रिकॉर्ड और वह शानदार स्टूडेंट हैं।
दिसंबर 2019 में, उन्होंने संसद द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 के खिलाफ आयोजित एक राजनीतिक रैली में हिस्सा लिया था। जिसके बाद, 14 फरवरी 2020 को उन्हें भारत छोड़ने की नोटिस जारी की गई। नोटिस का आधार यह था कि उन्होंने राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा लिया है और अपनी वीजा शर्तों का उल्लंघन किया है। याचिकाकर्ता ने नोटिस को कलकत्ता उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
याचिकाकर्ता ने नोटिस को दो प्राथमिक आधारों पर चुनौती दी थी। पहला- नोटिस में कोई कारण नहीं दिया गया है और दूसरा- उसे नोटिस जारी करने से पहले पहले सुनवाई का मौका नहीं दिया गया। सरकार ने नोटिस का यह कहते हुए बचाव किया कि किसी विदेश नागरिक को निष्कासन का आदेश देने से पहले किसी भी कारण सुनवाई की आवश्यकता नहीं है।
सरकार ने कहा था कि भारत छोड़ने नोटिस एक गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर जारी की गई थी, जिसके मुताबिक, याचिकाकर्ता सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हुए थे, जिनसे उनकी वीजा शर्तों का उल्लंघन हो रहा था।
न्यायालय ने सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया और कहा कि उपलब्ध रिकॉर्डों में याचिकाकर्ता के निष्कासन का कोई वैध आधार मौजूद नहीं था। कोर्ट ने यह भी कहा कि नोटिस ने Audi Altarem Partem यानी दूसरी पक्ष की सुनवाई के सिद्घांत का उल्लंघन किया है, क्योंकि नोटिस जारी करने से पहले याचिकाकर्ता के पक्ष को नहीं सुना गया।
निर्णय के महत्वपूर्ण बिंदु-
उपरोक्त निष्कर्षों के अलावा कोर्ट ने कई अवलोकन किए, जो भविष्य में ऐसे मामलों के लिए प्रासंगिक होंगे-
धारा 3 के तहत आदेशों में पूर्व सुनवाई की आवश्यकता
सामान्य परिपाटी के अनुसार, एक विदेशी नागरिक को सुनवाई का मौका 'भारत छोड़ो नोटिस' जारी किए जाने के बाद ही दिया जाता है। इस प्रथा को न्यायिक मान्यता भी प्राप्त है। वर्तमान मामले में, न्यायालय ने इस दृष्टिकोण को संशोधित किया है और माना है कि नोटिस जारी करने से पहले ही विदेशी नागरिक को उचित सुनवाई का मौका देना होगा। दूसरे शब्दों में, कोर्ट ने नोटिस की पूर्व सूचना को अनिवार्य कर दिया है।
1. वीजा स्थितियों की उदार और हानिप्रद व्याख्या -
जैसा कि पहले चर्चा की गई है, छात्र वीजा पर एक विदेशी नागरिक केवल अपने अध्ययन से संबंधित ऑन-कैंपस गतिविधियों में शमिल हो सकता है। अतीत में भी अदालतों ने किसी विदेशी नागरिक को निष्कासित करने के सरकार के फैसले पर असहमति जताई है, क्योंकि यह माना जाता है कि भारत से एक विदेशी नागरिक को निष्कासित करने के लिए सरकार के पास पूर्ण और अनियंत्रित विवेकाधिकार है। हालांकि कोर्ट ने केवल उन्हीं मामलों में हस्तक्षेप किया है, जिसमें नियत प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था।
लेकिन, वर्तमान मामले में न्यायालय ने इस विवेकाधिकार में हस्तक्षेप किया है और वीजा शर्तों में सुधार किया है। कोर्ट ने माना है कि याचिकाकर्ता के वीजा को केवल तभी नकारा जा सकता है, जब उसने ऐसे अपराध को अंजाम दिया है, जिसके दंडात्मक परिणाम हो सकते हैं।
यहां ध्यान दिया जाना चाहिए कि वास्तव में अदालत ने छात्र वीजा को रद्द करने के अधिकार को उन मामलों तक सीमित कर दिया है, जहां विदेशी नागरिक अपराध करते हैं। जबकि पहले किसी भी गैर-परिसर गतिविधि या पढ़ाई के इतर अन्य गतिविधियों में लिप्त होने के कारण वीजा रद्द किया जा सकता था।
न्यायालय ने इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 यानी जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर भरोसा किया है। यह माना जाता है कि एक विदेशी नागरिक के पास स्वस्थ मानव अस्तित्व का संरक्षित अधिकार है। इस तरह की व्याख्या एक स्वागत योग्य कदम है, क्योंकि यह भारत में विदेशी नागरिकों के लिए उपलब्ध अधिकारों के दायरे का विस्तार करती है।
फैसले का समस्याग्रस्त क्षेत्र-
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का पालन करने के लिए बाध्य है। कोई भी निर्णय जो इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है, वह कानूनन गलत है।
मेरी राय में, वर्तमान मामले में माननीय न्यायालय भारत छोड़ने की नोटिस को बोनाफाइड कारणों की कमी के आधार पर रद्द कर सकता था। हालांकि, कोर्ट उससे आगे बढ़ गया और नोटिस को रद्द करने के लिए उसे कई नए तर्क/ व्याख्याएं प्रस्तुत की और ऐसा करने में उसने कई ऐसे फैसलों की अनदेखी की, जिनके पालन के लिए वह बाध्य था।
अनुच्छेद 19 के तहत विरोध के अधिकार का पठन-
यह स्थापित कानूनी स्थिति है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत गारंटीकृत अधिकार न केवल भारतीय नागरिकों के लिए उपलब्ध हैं, बल्कि विदेशी नागरिकों के लिए भी उपलब्ध हैं।
अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार ऐसा ही एक अधिकार है। कोर्ट ने माना है कि इस अनुच्छेद के तहत सभी प्रकार के भाषण और अभिव्यक्ति संरक्षित हैं, जिसमें सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन यानी राइट टू प्रोटेस्ट भी शामिल है।
इसलिए, यदि हम स्थापित न्यायशास्त्र के अनुसार विचार करते हैं तो भारत में 'विरोध प्रदर्शन का अधिकार' या 'भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' किसी विदेशी नागरिक के लिए उपलब्ध नहीं है। दिलचस्प बात यह है कि वर्तमान मामले में अदालत ने अनुच्छेद 19 के खिलाफ अनुच्छेद 21 के तहत एक विदेशी नागरिक को राजनीतिक रैलियों में भाग लेने/ विरोध करने का अधिकार दिया है।
कोर्ट ने कहा,
"एक राजनीतिक रैली में भागीदारी की गतिविधि मात्र जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार में शामिल है, विशेष रूप से शानदार अकादमिक कैरियर के के छात्र के संबंध में, जिसकी चेतना सामान्य से ऊपर और उसे सुसंस्कृत होना आवश्यकहै ...
82. राजनीतिक गतिविधि खुद, किसी भी ऐसे विशिष्ट आरोप के अभाव में, जिसमें याचिकाकर्ता किसी राजनीतिक दल के साथ सक्रिय रूप से शामिल रहा हो, जो भारत में प्रतिबंधित है, उन अधिकारों का हिस्सा है, जो जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ आता है।
किसी भी जाति, पंथ और रंग के भारतीयों के साथ, किसी भी रूप, भागीदार और बातचीत के जरिए,किसी व्यक्ति की स्वतंत्र इच्छा की अभिव्यक्ति, उसकी जो भी सामाजिक‐राजनीतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि हो, एक स्वस्थ जीवन का एक हिस्सा है और संविधान का अनुच्छेद 21 के इसे व्यापक दायरे में पढ़ा जाना है।"
न्यायालय ने अनुच्छेद 21 के अंतर्गत राजनीतिक गतिविधि की व्याख्या यह कहते हुए कि है कि स्वतंत्र इच्छा की अभिव्यक्ति, दूसरों के साथ संपर्क एक स्वस्थ जीवन का हिस्सा है और इसलिए जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार द्वारा संरक्षित है। यह दृष्टिकोण समस्याग्रस्त है क्योंकि कोर्ट अनुच्छेद 19 के तहत उपलब्ध अधिकारों, जो कि केवल भारतीय नागरिकों को उपलब्ध हैं, को अनुच्छेद 21 के जरिए एक विदेशी नागरिक को दे रहा है। ऐसा कार्य, जो न प्रत्यक्ष रूप से किया जा सकता है और न अप्रत्यक्ष रूप से, उसका शायद यह एक क्लासिक मामला है।
नीतिगत निर्णय लेना और सरकार के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण
जैसा कि पहले चर्चा की गई थी, भारत में एक विदेशी के प्रवेश के लिए शर्तें रखने का विवेकाधिकार केंद्र सरकार के पास है। इसके अलावा, केंद्र सरकार ने वीजा शर्तों को तय किया है, जिसमें कहा गया है कि छात्र वीजा पर एक विदेशी नागरिक को केवल अपने अध्ययन से संबंधित गतिविधियों में संलग्न होना है। वर्तमान फैसले में कोर्ट ने खुद वीजा शर्तों को तय किया है और केवल उन कृत्यों पर रोक लगाई है जो कानून में ऐसे अपराध हैं, जिनके दंडात्मक परिणाम हैं।
कोर्ट ने माना कि,
"83. वर्तमान मामले में, निष्कासन के आदेश में कारण नहीं बताया गया है। यहां तक कि उत्तरदाताओं की ओर से दायर गोपनीय रिपोर्ट में दिए गए आधार में यह नहीं बताया गया है कि याचिकाकर्ता किसी भी अवैध गतिविधि में शामिल था या भारतीय कानून के तहत कोई अपराध किया है। याचिकाकर्ता के खिलाफ किसी ऐसे विशिष्ट अपराध के अभाव में, जिसके दंडनीय परिणाम हों, याचिकाकर्ता को भारत से निष्कासित कर उसका वैध वीजा नकारा नहीं जा सकता है।"
वीजा की शर्तों को तय कर कोर्ट ने संभवतः नीतिगत निर्णय किया हैऔर इस प्रकार केंद्र सरकार के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप किया है।
उपसंहार-
मेरी राय में, कोर्ट ने याचिकाकर्ता को उससे अधिक दिया है, जितना उसने मांगा था। याचिकाकर्ता ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के उल्लंघन के आधार पर भारत छोड़ने की नोटिस को रद्द करने की मांग की थी, जबकि कोर्ट ने आगे बढ़कर उसे और भी बहुत कुछ दिया। यह उदारता सुप्रीम कोर्ट के समक्ष फैसले को चुनौती देने का संभावित कारण हो सकती है, विशेषकर अनुच्छेद 19 और 21 की व्याख्या के लिए और खुद ही नीतिगत फैसले ने लेने के कारण।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि याचिकाकर्ता के शैक्षणिक साख ने कोर्ट के अंतिम फैसले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कोर्ट ने टिप्पणी की,
"इसके अलावा, याचिकाकर्ता के राजनीतिक स्थितियों और दक्षिण एशिया के सामाजिक, सांस्कृतिक मुद्दों के ज्ञान मद्देनजर, उस पर यह प्रतिबंध अनुचित होगा कि उसे राजनीतिक रैलियों में भाग लेने से रोका जाए, जब तक कि उसकी गतिविधि राष्ट्रद्रोह या भारतीय कानून में परिकल्पित अन्य अपराध के बराबर न हो।"
मेरी राय में, कोर्ट की उक्त टिप्पणियां निर्णय को तथ्य विशिष्ट बनाती हैं, जिसे कानून के सामान्य सिद्धांतों को चुनना बहुत मुश्किल हो जाता है, जिनका भविष्य में अदालतों द्वारा पालन किया जा सकता है।
-लेखक नई दिल्ली में अधिवक्ता हैं। यह आलेख उन्हीं के ब्लॉग "द बेसिक 'स्ट्रक्चर" पर पहली बार प्रकाशित हुआ था।