स्वीकृत लोन का भुगतान न करना आत्महत्या के लिए उकसाने के समान नहीं: बॉम्बे हाईकोर्ट
औरंगाबाद स्थित बॉम्बे हाईकोर्ट की खंडपीठ ने हाल ही में यह निर्णय दिया कि केवल इसलिए कि वित्तीय कंपनी ने प्रक्रियागत आवश्यकताओं के अभाव में स्वीकृत लोन राशि का भुगतान नहीं किया और/या प्रसंस्करण शुल्क की मांग की या एक किस्त अग्रिम ले ली। लोन आवेदक आत्महत्या कर लेता है तो उक्त फर्म या उसके कर्मचारियों पर आत्महत्या के लिए उकसाने या मानहानि का मामला दर्ज नहीं किया जा सकता।
जस्टिस विभा कंकनवाड़ी और जस्टिस हितेन वेनेगावकर की खंडपीठ ने कहा कि वित्तीय कंपनी के कर्मचारियों का कृत्य 'उकसाने' के समान नहीं हो सकता।
जजों ने 4 सितंबर को दिए गए फैसले में कहा,
"याचिकाकर्ताओं पर आरोप है कि उन्होंने लोन वितरण में देरी की और लोन प्रसंस्करण शुल्क व पहली किस्त के रूप में जमा राशि की मांग की। हालांकि, ये कृत्य भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 107 के अर्थ में उकसावे यानी 'उकसाने' के महत्वपूर्ण तत्व का गठन नहीं करते।"
खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ ऐसा कोई आरोप नहीं है कि उन्होंने ऐसा कोई शब्द कहा हो या कोई सकारात्मक कार्य किया हो, जिसके बारे में कहा जा सके कि उनका उद्देश्य मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाना या मजबूर करना था।
खंडपीठ ने कहा,
"इसके विपरीत, रिकॉर्ड से पता चलता है कि लोन प्रस्ताव तीसरे पक्ष के सत्यापन के लिए प्रस्तुत किया गया और उसे निगेटिव रिपोर्ट मिली। यह लोन राशि का वितरण न किए जाने को उचित ठहराता है। हालांकि, मृतक द्वारा आत्महत्या करना अपने आप में दुखद प्रतीत होता है, क्योंकि यह उसकी हताशा का एक स्वतंत्र निर्णय था। यदि धन की अनुपलब्धता के कारण घर का निर्माण अधूरा रह जाता है तो यह आत्महत्या के लिए उकसाने का कारण नहीं बन सकता। मृतक अन्य स्रोतों से धन जुटा सकता था। स्वीकृत लोन का वितरण न करना मानहानि का कारण नहीं बन सकता।"
अभियोजन पक्ष के अनुसार, निवारा हाउसिंग फाइनेंस नामक कंपनी के चार कर्मचारियों अर्थात् याचिकाकर्ताओं पर कृष्णा माने नामक व्यक्ति की विधवा द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत के आधार पर मामला दर्ज किया गया, जिसने आत्महत्या कर ली है, क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने मृतक द्वारा घर निर्माण के लिए आवेदन की गई 6.50 लाख रुपये की लोन राशि का वितरण नहीं किया। यह आरोप लगाया गया कि याचिकाकर्ताओं ने लोन स्वीकृति पत्र जारी करने के बाद भी राशि का वितरण नहीं किया। इसके बजाय ऋण प्रसंस्करण शुल्क और अग्रिम किस्त की मांग की।
शिकायत में आरोप लगाया गया कि मृतक ने लोन प्रसंस्करण शुल्क के रूप में 70,000 रुपये और अग्रिम किस्त के रूप में 1,600 रुपये का भुगतान किया। फिर भी उन्हें लोन राशि नहीं दी गई। इस भुगतान न होने के कारण मकान का निर्माण अधूरा रह गया, जिससे समाज में मृतक का अपमान हुआ। उसे असहनीय मानसिक पीड़ा हुई, जिसके कारण 26 मार्च, 2023 को मृतक ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
मामले के तथ्यों पर गौर करते हुए खंडपीठ ने कहा कि इस मामले में FIR दर्ज करने में दो महीने की देरी से पता चलता है कि आपराधिक शिकायत सोच-विचार के बाद दर्ज की गई। इसलिए साक्ष्य की तात्कालिक और स्पष्ट सच्चाई को प्रस्तुत नहीं कर सकती।
जस्टिस वेनेगावकर द्वारा लिखे गए आदेश में कहा गया,
"आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप को बनाए रखने के लिए जानबूझकर सहायता या प्रत्यक्ष उकसावे का होना आवश्यक है। याचिकाकर्ता जो किसी वित्तीय कंपनी में केवल कर्मचारी हैं और प्रक्रियात्मक आवश्यकताओं के आलोक में ऋण न देने, या यहां तक कि प्रसंस्करण शुल्क की मांग करने, या लोन की एक किस्त अग्रिम लेने के आरोपों को उकसाने के रूप में नहीं देखा जा सकता। जांच पूरी होने और आरोप पत्र दाखिल होने के बाद रिकॉर्ड में ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं है, जिससे दूर-दूर तक यह पता चले कि किसी भी याचिकाकर्ता ने उकसाने की कोई प्रत्यक्ष मंशा या प्रत्यक्ष कृत्य किया था।"
आदेश में आगे कहा गया,
"याचिकाकर्ताओं ने न तो मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाया और न ही जानबूझकर सहायता करने की साजिश रची। उनके कृत्यों और आत्महत्या के बीच कोई कारणात्मक संबंध नहीं है। इसलिए हमारा मानना है कि यदि याचिकाकर्ताओं के खिलाफ अभियोजन जारी रखने की अनुमति दी जाती है तो यह कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।"
इन टिप्पणियों के साथ खंडपीठ ने FIR रद्द कर दी।