'वे पति-पत्नी के रूप में साथ रहते थे': इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 'लिव-इन' पार्टनर की दहेज हत्या के आरोपी को राहत देने से इनकार किया
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में इस दृष्टिकोण का समर्थन किया कि आईपीसी की धारा 304-बी और 498-ए के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए यह दिखाना पर्याप्त है कि पीड़ित महिला और आरोपी पति प्रासंगिक समय पर पति-पत्नी के रूप में रह रहे थे।
जस्टिस राजबीर सिंह की पीठ ने प्रयागराज सेशन कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाले व्यक्ति द्वारा दायर याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की, जिसने उसके कथित लिव-इन पार्टनर की दहेज हत्या के मामले में आरोप मुक्त करने की उसकी याचिका खारिज कर दी।
न्यायालय के समक्ष आवेदक ने तर्क दिया कि मृतक उसके साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहने लगा था। उनके बीच कोई विवाह नहीं हुआ था। वास्तव में मृतक ने रोहित यादव से विवाह किया और उक्त विवाह को एक वर्ष भी नहीं बीता था।
इसके मद्देनजर, यह तर्क दिया गया कि मृतका आवेदक की कानूनी रूप से विवाहित पत्नी नहीं थी। इस प्रकार, धारा 304-बी आईपीसी के तहत कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता।
दूसरी ओर, एजीए ने आवेदन का विरोध किया। कहा कि एफआईआर में उल्लेख किया गया कि मृतका की रोहित यादव से शादी के बाद उसने उसे तलाक दिया। उसके बाद मृतका का आवेदक से विवाह न्यायालय के माध्यम से हुआ। आवेदक उसे दहेज के लिए परेशान करता था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली।
यह भी प्रस्तुत किया गया कि मृतका और आवेदक के बीच विवाह वैध था या नहीं, यह तथ्य का प्रश्न है जिसकी जांच केवल मुकदमे के दौरान ही की जा सकती है।
एजीए के तर्क से सहमत होते हुए न्यायालय ने कहा कि एफआईआर में स्पष्ट रूप से कहा गया कि मृतका और आवेदक के बीच वास्तव में विवाह हुआ थता। यह भी निर्विवाद है कि वह घटना के समय आवेदक के साथ रह रही थी।
अन्यथा, न्यायालय ने कहा कि मृतक आवेदक की पत्नी से कानूनी रूप से विवाहित था या नहीं, यह धारा 482 CrPC के तहत इन कार्यवाहियों में तय नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा,
“इस स्तर पर एक छोटा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है और न्यायालय सीमित उद्देश्य के लिए साक्ष्यों को बदल सकता है। उनका मूल्यांकन कर सकता है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि अभियुक्त के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है या नहीं। जहां रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री अभियुक्त के खिलाफ गंभीर संदेह प्रकट करती है, जिसे ठीक से स्पष्ट नहीं किया गया, न्यायालय द्वारा आरोपमुक्ति के लिए आवेदन को खारिज करना पूरी तरह से उचित होगा। न्यायालय को साक्ष्यों को एकत्रित करके छोटा मुकदमा नहीं चलाना चाहिए।”
इसके अलावा, रीमा अग्रवाल बनाम अनुपम और अन्य 2004 के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर एकल जज ने राहत दी, जिसमें यह माना गया कि एक पुरुष जो अपनी भूमिका और "पति" के रूप में स्थिति के कथित प्रयोग में ऐसी महिला के साथ सहवास करता है, उसे धारा 304बी या 498ए आईपीसी के दायरे से बाहर नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने मोहितराम बनाम छत्तीसगढ़ राज्य 2004 के मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के निर्णय पर भी भरोसा किया, जिसमें यह माना गया कि धारा-304-बी आईपीसी के प्रावधानों को शामिल करने के पीछे विधायिका की मंशा यह थी कि दहेज हत्या के लिए जिम्मेदार पति और उसके रिश्तेदारों को दहेज हत्या के अपराध में लाया जाना चाहिए, चाहे संबंधित विवाह वैध हो या नहीं।
इस मामले में यह भी देखा गया कि आईपीसी की धारा-304-बी और 498-ए के प्रावधानों को आकर्षित करने के लिए यह दर्शाना पर्याप्त है कि पीड़ित महिला और आरोपी पति प्रासंगिक समय पर पति और पत्नी के रूप में रह रहे थे।
एकल न्यायाधीश ने आगे कहा,
“इस मामले में तर्कों के लिए भले ही यह मान लिया जाए कि मृतक कानूनी रूप से विवाहित पत्नी के दायरे में नहीं आता है, रिकॉर्ड पर पर्याप्त सबूत हैं कि आवेदक और मृतक प्रासंगिक समय पर पति और पत्नी के रूप में एक साथ रह रहे थे।”
इसे देखते हुए न्यायालय तर्क खारिज किया कि धारा 304-बी आईपीसी के प्रावधान इस मामले पर लागू नहीं होंगे। इसलिए धारा 482 CrPC के तहत याचिका खारिज कर दी गई।
केस टाइटल- आदर्श यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य