समाधान से पहले लंबित मूल्यांकन को समाधान योजना की स्वीकृति के बाद परिमाणित नहीं किया जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि समाधान योजना की स्वीकृति के बाद समाधान आवेदक पर नए दावों का बोझ नहीं डाला जा सकता।
जस्टिस शेखर बी. सराफ और जस्टिस विपिन चंद्र दीक्षित की पीठ ने माना कि दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता 2016 का मूल सिद्धांत सफल समाधान आवेदक को एक नई शुरुआत देना है।
उन्होंने माना कि उपर्युक्त सिद्धांत को बाधित करने वाली कोई भी कार्रवाई अवैध है और संहिता की लक्ष्मण रेखा से परे है। यह तर्क कि किसी मूल्यांकन को पहले की अवधि के लिए लंबित रखा गया। समाधान योजना की स्वीकृति के बाद परिमाणित किया गया, एक कुतर्कपूर्ण तर्क है।
यदि यह तर्क स्वीकार कर लिया जाता है तो सभी अधिकारी समाधान योजना के पूरा होने तक मूल्यांकन/पुनर्मूल्यांकन को लंबित रखने की स्थिति में होंगे। उसके बाद इसे समाप्त कर सफल समाधान आवेदक पर अज्ञात बोझ डाल देंगे। इस तरह की कार्रवाई को स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह संहिता के तहत दिए गए स्थगन के मूल सिद्धांतों के लिए अभिशाप होगा।
पूरा मामला
याचिकाकर्ता पूर्ववर्ती कंपनी थी, जो दिवालियेपन की कार्यवाही से गुज़री थी। इसमें आयकर विभाग ने भी अपना दावा पेश किया। 02.02.2021 को समाधान योजना के अनुमोदन पर विभाग ने आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 144बी के साथ धारा 144 के तहत दिनांक 28.04.2021 को एक मूल्यांकन आदेश पारित किया। आदेश से व्यथित होकर याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।
याचिकाकर्ता के वकील ने प्रस्तुत किया कि विभाग को दिनांक 08.03.2021 के पत्र द्वारा सफल समाधान के बारे में सूचित किया गया। यह तर्क दिया गया कि संहिता की धारा 31 के कारण पूरी कार्यवाही कानून में आधारहीन थी। यह भी प्रस्तुत किया गया कि समाधान योजना के तहत सभी लंबित कार्यवाही समाप्त कर दी गई।
प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि विभाग को समाधान कार्यवाही की कोई सूचना नहीं थी। आगे यह तर्क दिया गया कि धारा 14 के तहत स्थगन लागू होने के बाद शुरू की गई नई कार्यवाही का सवाल न तो उठाया गया और न ही इसका उत्तर दिया गया है और इसलिए यह एकीकृत है।
हाईकोर्ट का फैसला
उत्तम गैल्वा मेटालिक्स लिमिटेड और श्री सुबोध करमाकर बनाम सहायक आयकर आयुक्त भारत संघ में बॉम्बे हाईकोर्ट ने माना कि समाधान योजना से पहले की अवधि के लिए कोई बकाया नहीं मांगा जा सकता, अगर वह उसी का हिस्सा न हो।
प्रतिवादी की दलीलों पर विचार करते हुए कोर्ट ने पाया कि विभाग ने दावा दायर करके समाधान प्रक्रिया में भाग लिया और उसे 08.03.2021 के पत्र द्वारा पहले ही सूचित कर दिया गया। भले ही विभाग कार्यवाही से अनभिज्ञ था लेकिन यह माना गया कि समाधान आवेदक पर लगाए गए नए दावों के बारे में कानून स्पष्ट है।
कोर्ट ने कहा कि यदि समाधान योजना के अनुमोदन के बाद दावों को लंबित रखने और मात्रा निर्धारित करने के बारे में विभाग का तर्क स्वीकार कर लिया जाता है तो कोई भी प्राधिकरण ऐसा कर सकता है और समाधान आवेदक पर अज्ञात बोझ डाल सकता है।
न्यायालय ने कहा,
“कानून को इस तरह से नहीं पढ़ा जा सकता कि इसमें अवरोधों और बांधों के निर्माण द्वारा इसके प्रवाह को बाधित करके संहिता की मूल संरचना का उल्लंघन किया जाता है - संहिता का अंतर्निहित सिद्धांत समाधान आवेदक को नई शुरुआत देना है। समाधान योजना के अनुमोदन के बाद कोई भी नई देयता स्वाभाविक रूप से और स्पष्ट रूप से अवैध होगी और संहिता की लक्ष्मण रेखा से परे होगी।”
न्यायालय ने मूल्यांकन आदेश रद्द किया, याचिकाकर्ता को शुरू की गई दंड कार्यवाही को चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान की, यदि कोई हो।
केस टाइटल: एनएस पेपर्स लिमिटेड और अन्य बनाम भारत संघ सचिव और अन्य के माध्यम से