मृतक कर्मचारी के उत्तराधिकारियों को परिसीमा जैसे तकनीकी आधार पर मेडिकल बिलों की प्रतिपूर्ति से वंचित नहीं किया जाना चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट

मेडिकल बिलों की प्रतिपूर्ति के मुद्दे पर विचार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने माना कि जहां सेवा के आकस्मिक लाभों की पात्रता है, वहां कानून में देरी और सीमा के आधार पर उन्हें अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता विधवा ने अपने पति के चिकित्सा बिलों की प्रतिपूर्ति के लिए नियोक्ता से संपर्क किया। सीमा द्वारा वर्जित होने के कारण उसका दावा खारिज कर दिया गया। तदनुसार, उसने भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट से संपर्क किया और दलील दी कि वह विधवा है और अपने पति की मृत्यु से सदमे में है। वह अपने ठीक होने के बाद ही प्राधिकरण से संपर्क कर सकती है।
न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता के दावे को निर्धारित नियमों के अनुसार 90 दिनों के भीतर दायर नहीं किए जाने के आधार पर खारिज कर दिया गया था।
जस्टिस अजीत कुमार ने कहा,
“यदि किसी कर्मचारी की उपचार के दौरान मृत्यु हो जाती है तो उसकी पत्नी/उत्तराधिकारियों को तकनीकी कारणों से परेशान नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिपूर्ति के लिए मेडिकल बिल प्रस्तुत करने के लिए निर्धारित ऐसा नियम कभी-कभी कर्मचारी के जीवित रहने पर सख्ती से लागू किया जा सकता है, लेकिन वारिसों के मामले में जहां कर्मचारी की उपचार के दौरान मृत्यु हो जाती है, ऐसे नियमों को मेडिकल बिलों के वास्तविक दावों की प्रतिपूर्ति के रास्ते में आने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यह प्रावधान निर्देशिका प्रकृति का है।”
न्यायालय ने माना कि दावों के लिए 90 दिन की अवधि निर्धारित करने वाला प्रावधान निर्देशिका प्रकृति का है। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, जो उक्त अवधि के बाद उठाए गए सभी दावों को “अनिवार्य रूप से” रोकता हो।
तदनुसार, न्यायालय ने याचिकाकर्ता को मेडिकल बिल फिर से प्रस्तुत करने का निर्देश दिया और संबंधित प्राधिकारी को कानून के अनुसार बिलों का निपटान करने का निर्देश दिया।
केस टाइटल: मैमुना बेगम बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 5 अन्य [रिट - ए संख्या - 122/2025]