हर हिरासत और गिरफ्तारी हिरासत में यातना के बराबर नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2024-10-31 11:23 GMT

इस बात पर जोर देते हुए कि हर गिरफ्तारी और हिरासत हिरासत में यातना के बराबर नहीं होती, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि जब हिरासत में यातना के आरोपों का समर्थन किसी मेडिकल रिपोर्ट या अन्य पुष्टिकारी साक्ष्य द्वारा नहीं किया जाता तो न्यायालय को इस तरह की कार्यवाही पर विचार नहीं करना चाहिए।

जस्टिस महेश चंद्र त्रिपाठी और जस्टिस प्रशांत कुमार की खंडपीठ ने कहा कि हिरासत में किसी भी तरह की यातना के शिकार लोगों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए न्यायालय को समाज के हित में सभी झूठे, प्रेरित और तुच्छ दावों के खिलाफ भी खड़ा होना चाहिए। पुलिस को निडरता और प्रभावी ढंग से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में सक्षम बनाना चाहिए।

यह टिप्पणी खंडपीठ ने शाह फैजल नामक व्यक्ति द्वारा दायर आपराधिक रिट याचिका खारिज करते हुए की, जिसमें बिना किसी कारण के उसे पुलिस हिरासत में बंद करके हिरासत में यातना देने के आरोप में दो पुलिस अधिकारियों के खिलाफ मुआवजे और कार्रवाई की मांग की गई थी।

संक्षेप में मामला

याचिकाकर्ता का मामला यह था कि उसे 14 फरवरी, 2021 को परतावल चौकी से पुलिस कांस्टेबलों ने कथित तौर पर झूठे बहाने से हिरासत में लिया और सब इंस्पेक्टर और पुलिस कांस्टेबल ने उसे धमकाया और उसके पिता से ₹50,000 की मांग की। याचिकाकर्ता ने आगे आरोप लगाया कि रिश्वत देने से इनकार करने पर उसे पुलिस हिरासत में पीटा गया और जब उसने पुलिस अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग की तो स्थानीय पुलिस ने उसकी शिकायत दर्ज करने से इनकार कर दिया।

यह भी प्रस्तुत किया गया कि याचिकाकर्ता ने बाद में IGRS पोर्टल और 19 फरवरी को पुलिस अधीक्षक के माध्यम से शिकायत दर्ज की। फिर भी शामिल अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। दूसरी ओर, राज्य की ओर से पेश एजीए ने यह प्रस्तुत करते हुए रिट याचिका का विरोध किया कि याचिकाकर्ता ने अवैध हिरासत/यातना के संबंध में झूठे और अतिरंजित दावे किए थे। हिरासत में यातना के बारे में कोई स्पष्ट या निर्विवाद सबूत नहीं था और न ही याचिकाकर्ता को किसी भी चोट या दिव्यांगता का कोई मेडिकल रिपोर्ट था।

इन दलीलों की पृष्ठभूमि में न्यायालय ने शुरू में ही टिप्पणी की कि हिरासत में यातना के मामले में संविधान के अनुच्छेद 32 या 226 के तहत कार्यवाही तभी शुरू की जा सकती है, जब हिरासत में यातना के पर्याप्त सबूत हों। न्यायालय ने आगे कहा कि मुआवज़ा देने के लिए नियमित रूप से आपराधिक रिकॉर्ड रखने वाले व्यक्तियों द्वारा मानवाधिकार उल्लंघन के दावों को स्वीकार करना विवेकपूर्ण नहीं हो सकता है।

न्यायालय ने टिप्पणी की,

"अगर इसकी अनुमति दी जाती है तो यह गलत प्रवृत्ति को जन्म देगा और गिरफ्तार या पूछताछ किए जाने वाला हर अपराधी पुलिस अधिकारियों की कार्रवाई के खिलाफ भारी मुआवज़े की मांग करते हुए याचिका दायर करेगा। इसके अलावा, अगर ऐसी कार्यवाही को बढ़ावा दिया जाता है तो यह झूठे दावों के लिए द्वार खोल देगा, या तो राज्य से पैसे ऐंठने के लिए या आगे की जांच को रोकने या विफल करने के लिए।"

महत्वपूर्ण बात यह है कि न्यायालय ने इस बात पर भी जोर दिया कि मुआवजे के लिए इस तरह की याचिकाओं पर विचार करने तथा न्यायिक यातना के लिए पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले न्यायालय को स्वयं से निम्नलिखित प्रश्न पूछने होंगे:

(क) क्या किसी मानवाधिकार का उल्लंघन हुआ है या अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हुआ है, जो स्पष्ट और निर्विवाद है।

(ख) क्या ऐसा उल्लंघन इतना गंभीर और इतना बड़ा है कि न्यायालय की अंतरात्मा को झकझोर दे।

(ग) क्या यह साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि हिरासत में यातना दी गई।

न्यायालय ने आगे कहा कि यह सुनिश्चित करना न्यायालय की सर्वोच्च जिम्मेदारी है कि यदि किसी व्यक्ति को हिरासत में यातना दिए जाने का उसके स्वयं के बयान के अलावा कोई सबूत नहीं है और जहां ऐसे आरोप किसी मेडिकल रिपोर्ट या अन्य पुष्टिकारी साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं हैं, या जहां स्पष्ट संकेत हैं कि आरोप पूरी तरह या आंशिक रूप से झूठे या बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए तो न्यायालय अनुच्छेद 226 के तहत सार्वजनिक कानूनी उपाय के रूप में मुआवजा नहीं दे सकता है। ऐसी स्थिति में उपयुक्त उपाय यह है कि पीड़ित पक्ष को उचित सिविल/आपराधिक कार्रवाई के माध्यम से पारंपरिक उपचारों का सहारा दिया जाए।

इस पृष्ठभूमि में जब न्यायालय ने मामले के तथ्यों की जांच की तो उसने पाया कि यह नहीं माना जा सकता कि याचिकाकर्ता एक निर्दोष व्यक्ति है, क्योंकि उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई, जिसमें उस पर ऋषिकेश भारती नामक व्यक्ति को रॉड से पीटने का आरोप लगाया गया।

न्यायालय ने यह भी पाया कि कथित हिरासत में यातना के लिए याचिकाकर्ता ने IGRS पोर्टल पर शिकायत की। एसएसपी ने जांच शुरू की थी। जांच के बाद पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कुछ भी नहीं मिला। तदनुसार, उन्हें आरोपमुक्त कर दिया गया।

न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता के मानवाधिकारों का कोई स्पष्ट और निर्विवाद उल्लंघन नहीं हुआ, जिसे घोर उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार, यह नहीं कहा जा सकता है कि कानून प्रवर्तन एजेंसियां ​​समाज में अपराध को दबाने में आगे निकल गईं।

न्यायालय ने यह भी पाया कि याचिकाकर्ता की हिरासत में यातना के बारे में कोई स्पष्ट या निर्विवाद सबूत नहीं था। इसलिए ऐसी किसी भी सामग्री के अभाव में न्यायालय ने कहा कि वह कोई मुआवजा या कोई अन्य राहत नहीं दे सकता।

इसके साथ ही याचिका खारिज कर दी गई।

केस टाइटल- शाह फैसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और 4 अन्य

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