Bareilly Violence | 'सर तन से जुदा' नारा भारत की संप्रभुता के खिलाफ, सशस्त्र विद्रोह भड़काता है: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जमानत देने से इनकार किया
सितंबर, 2025 में बरेली हिंसा में शामिल आरोपी की जमानत याचिका खारिज करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि भीड़ द्वारा "गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा" (पैगंबर का अपमान करने की एकमात्र सजा सिर कलम करना है) का नारा लगाना कानून के अधिकार और भारत की संप्रभुता और अखंडता के लिए सीधी चुनौती है।
जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल की बेंच ने कहा कि ऐसे नारे लोगों को "सशस्त्र विद्रोह" के लिए उकसाते हैं और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 152 के तहत दंडनीय हैं। सिंगल जज ने कहा कि यह इस्लाम के मूल सिद्धांतों के भी खिलाफ है।
खास बात यह है कि कोर्ट ने यह भी कहा कि इस नारे का कुरान या मुसलमानों के किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ में कोई जिक्र नहीं है। इसके बावजूद, कई मुसलमान इसके सही अर्थ और प्रभाव को जाने बिना इस नारे का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे हैं।
ये टिप्पणियां हाईकोर्ट ने रिहान नाम के एक व्यक्ति की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कीं, जिसे बरेली के कोतवाली इलाके में हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद गिरफ्तार किया गया।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, यह घटना 26 सितंबर को हुई, जब इत्तेफाक मिन्नत काउंसिल (INC) के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा और नेता नदीम खान ने कथित तौर पर भीड़ को इस्लामिया इंटर कॉलेज में इकट्ठा होने के लिए उकसाया ताकि "मुस्लिम युवाओं के खिलाफ अत्याचारों और झूठे मामलों" के खिलाफ प्रदर्शन किया जा सके।
BNSS की धारा 163 लागू होने के बावजूद, जो पांच से अधिक व्यक्तियों के इकट्ठा होने पर रोक लगाता है, कथित तौर पर 500 से अधिक लोगों की भीड़ इकट्ठा हुई और उन्होंने सरकार के खिलाफ नारे लगाए, जिसमें सिर कलम करने की मांग वाला एक नारा भी शामिल है।
पुलिस ने जब हस्तक्षेप करने की कोशिश की तो भीड़ हिंसक हो गई और उन्होंने कथित तौर पर पुलिस की लाठियां छीन लीं, वर्दी फाड़ दी और पेट्रोल बम फेंकने, फायरिंग और पत्थरबाजी का सहारा लिया।
आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए अपने विस्तृत 9-पृष्ठ के आदेश में हाईकोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि हालांकि भारत का संविधान अनुच्छेद 19 के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है, लेकिन यह अधिकार उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
कोर्ट ने कहा,
"इसलिए अगर कोई व्यक्ति भारतीय संविधान के तहत बनाए गए कानून का सम्मान करने के बजाय कानून को चुनौती देने की कोशिश करता है या सज़ा देने के बहाने लोगों को अपराध करने के लिए उकसाता है... तो उससे सख्ती से निपटा जाना चाहिए।"
कोर्ट ने साफ तौर पर कहा कि सिर कलम करने की बात कहने वाला यह नारा लगाना "न सिर्फ संवैधानिक मकसद के खिलाफ है, बल्कि भारतीय कानूनी सिस्टम की कानूनी अथॉरिटी के लिए भी एक चुनौती है।"
खास बात यह है कि अपने आदेश में हाईकोर्ट ने इस नारे की शुरुआत इस्लामिक धर्मग्रंथों से नहीं, बल्कि पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल से बताई। कोर्ट ने कहा कि यह नारा कुरान या मुसलमानों के दूसरे धार्मिक ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता।
आदेश में बताया गया कि पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून कैसे विकसित हुए 1927 में अंग्रेजी सरकार द्वारा बनाए गए कानून से लेकर जनरल ज़िया-उल-हक द्वारा 1982 में किए गए संशोधनों और 1986 में किए गए बाद के बदलावों तक।
कोर्ट ने कहा कि मुल्ला खादिम हुसैन रिज़वी ने सबसे पहले पाकिस्तान में 2011 में आसिया बीबी को दोषी ठहराए जाने और पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर द्वारा उन्हें दिए गए समर्थन के बाद इस नारे का इस्तेमाल किया था।
कोर्ट ने टिप्पणी की,
"इसके बाद यह नारा भारत समेत दूसरे देशों में भी फैल गया और कुछ मुसलमानों ने दूसरे धर्मों के लोगों को डराने और राज्य की अथॉरिटी को चुनौती देने के लिए इसका बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल किया।"
कोर्ट ने पैगंबर मोहम्मद के ताइफ़ शहर में किए गए व्यवहार का उदाहरण भी दिया। सिंगल जज ने कहा कि पैगंबर ने कभी भी उस गैर-मुस्लिम महिला के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की, जो अक्सर उनके रास्ते में कचरा फेंकती थी, बल्कि जब वह बीमार पड़ी तो वे उससे मिलने गए, जिसे कोर्ट ने दया का काम बताया, जिससे उस महिला ने इस्लाम अपना लिया।
हाईकोर्ट ने आगे कहा कि अगर इस्लाम का कोई भी मानने वाला ऐसे किसी व्यक्ति का सिर कलम करने का नारा लगाता है, जो नबी का अपमान करता है, तो यह पैगंबर मोहम्मद के आदर्शों का अपमान है।
जज ने कहा कि "नारा-ए-तकबीर", "अल्लाहु अकबर", "हर हर महादेव", "जय श्री राम", "जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल" जैसे नारे खुशी के पलों में इस्तेमाल किए जाने वाले भक्ति के नारे हैं, लेकिन दूसरों को डराने या हिंसा भड़काने के लिए नारों का गलत इस्तेमाल बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
मामले की खूबियों पर आवेदक के मामले के संबंध में कोर्ट को केस डायरी में "गैर-कानूनी सभा" में उसकी मौजूदगी साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत मिले।
कोर्ट ने कहा कि आवेदक को उस जगह से गिरफ्तार किया गया था, जहां भीड़ ने न केवल आपत्तिजनक नारे लगाए, बल्कि पुलिसकर्मियों को चोट भी पहुंचाई थी और सरकारी और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया था।
इस तरह इस काम को "राज्य के खिलाफ अपराध" बताते हुए हाईकोर्ट ने जमानत याचिका खारिज की।