एक ही अपराध के लिए आरोपी को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम का लाभ देना और दूसरे को इससे वंचित करना अनुचित: इलाहाबाद हाईकोर्ट

Update: 2024-11-20 10:51 GMT

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि जब सभी आरोपी एक ही अपराध करने के दोषी पाए गए तो एक को अपराधी परिवीक्षा अधिनियम, 1958 की धारा 4(1) का लाभ देना और दूसरे को अपराध की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए उसी लाभ से वंचित करना अनुचित है।

जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने तीन आरोपियों द्वारा दायर आपराधिक पुनर्विचार याचिका पर विचार करते हुए यह टिप्पणी की, जिसमें आपराधिक अपील में गोंडा के अपर सत्र न्यायाधीश द्वारा पारित निर्णय और आदेश तथा गोंडा के सिविल जज (जे.डी.) द्वारा उन्हें धारा 498-ए, 323, 504, 506 आईपीसी के तहत दोषी ठहराए जाने के आदेश की वैधता को चुनौती दी गई। डी.पी. एक्ट की धारा 3/4 के तहत आरोप तय किए और उन्हें एक साल के साधारण कारावास की सजा सुनाई।

अदालत के समक्ष दलीलें इस सीमा तक सीमित थीं कि निचली अदालत ने सभी आरोपियों को एक ही अपराध के लिए दोषी ठहराया और सजा सुनाई। हालांकि, सह-आरोपी शिव प्यारी को अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958 का लाभ दिया गया लेकिन बिना कोई ठोस कारण बताए पुनर्विचारकर्ताओं को इससे वंचित कर दिया गया।

यह भी तर्क दिया गया कि पुनर्विचारकर्ता भी पहले अपराधी हैं उनका कोई आपराधिक इतिहास नहीं है। उन्हें वैवाहिक विवाद के कारण इस मामले में फंसाया गया और तलाक की कार्यवाही पहले से ही लंबित है।

अपनी पुनर्विचार याचिका का विरोध करते हुए प्रतिवादी नंबर 2 के वकील ने प्रस्तुत किया कि पुनर्विचारकर्ताओं का आचरण इस न्यायालय द्वारा उन्हें 1958 अधिनियम का लाभ देकर उनके पक्ष में विवेक का प्रयोग करने का औचित्य नहीं रखता, क्योंकि उन्होंने सूचनाकर्ता के साथ दुर्व्यवहार किया और न तो उसे उचित सम्मान दिया और न ही सूचनाकर्ता को कोई वित्तीय सहायता प्रदान की।

यह देखते हुए कि संशोधनवादियों ने अपनी दलीलें इस सीमा तक सीमित रखीं कि ट्रायल कोर्ट ने 1958 के अधिनियम का लाभ देने से मना किया था। इसके विपरीत सह-अभियुक्त को भी यही लाभ दिया गया। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को मंगाने की कोई आवश्यकता नहीं पाई।

न्यायालय ने कहा,

“जहां किसी निष्कर्ष या सजा की सत्यता, वैधता या औचित्य को चुनौती नहीं दी जा रही है। एकमात्र चुनौती बिना किसी ठोस कारण बताए अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम का लाभ देने के मामले में सह-अभियुक्त व्यक्तियों के बीच विभेदकारी व्यवहार को लेकर है, जो कि विवादित आदेश के मात्र अवलोकन से ही स्पष्ट है, वहां ट्रायल कोर्ट के रिकॉर्ड को मंगाने की कोई आवश्यकता नहीं है।”

इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि अपराधियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958 की धारा 4(1) तभी लागू होती है, जब किसी व्यक्ति को अपराध करने का दोषी ठहराया गया हो।

न्यायालय ने कहा कि जैसे ही संशोधनवादियों को ऊपर वर्णित अपराधों के लिए दोषी पाया गया, वे 1958 अधिनियम के इस प्रावधान का लाभ लेने के लिए पात्र हो गए।

न्यायालय ने कहा कि यह आरोप कि संशोधनवादियों ने इंफॉर्मेंट को कोई भरण-पोषण या आर्थिक सहायता प्रदान नहीं की थी, संशोधनवादियों को 1958 अधिनियम की धारा 4(1) का लाभ देने से इनकार करने का कोई आधार नहीं था।

ट्रायल कोर्ट के इस तर्क में खामियां पाते हुए कि सह-अभियुक्त को 1958 अधिनियम का लाभ दिया जाता है। पुनर्विचारकर्ताओं को अपराध की प्रकृति को देखते हुए उसी लाभ से वंचित किया जाता है, हाईकोर्ट ने सिविल जज (जे.डी.), गोंडा के आदेश को संशोधित करते हुए आंशिक रूप से पुनर्विचार की अनुमति दी, जिसमें पुनर्विचारकर्ताओं को 1958 अधिनियम की धारा 4(1) का लाभ देने से वंचित किया गया।

अदालत ने आगे यह भी प्रावधान किया कि यदि पुनर्विचार ट्रायल कोर्ट के समक्ष उपस्थित होते हैं। अपनी उपस्थिति के लिए व्यक्तिगत बांड और दो जमानतदार प्रस्तुत करते हैं तो उन्हें जब भी बुलाया जाएगा एक वर्ष की सजा दी जाएगी। इस बीच शांति बनाए रखने और अच्छे आचरण का पालन करने के लिए कहा जाएगा तो अदालत उन्हें अच्छे आचरण की परिवीक्षा पर रिहा कर देगी।

अदालत ने मामले का निपटारा करते हुए कहा कि यदि पुनर्विचारकर्ता व्यक्तिगत बांड और दो जमानतदार प्रस्तुत करने की उपरोक्त शर्त का पालन करने में विफल रहते हैं तो उन्हें इस आदेश का लाभ उपलब्ध नहीं होगा

केस टाइटल मनबोध उर्फ ​​मनोज और 2 अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के माध्यम से अपर मुख्य सचिव गृह सचिवालय लखनऊ और अन्य

Tags:    

Similar News