आखिर सरकारी भ्रष्टाचार के मामले में जांच कब होनी चाहिए?
भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में जब इतने तथ्य मौजूद हों जिससे उस मामले पर संदेह गहरा होता जाए और हमे आरोप का कोई सीधा जवाब ना मिल पाए, तब न्यायिक जांच की ज़रूरत और बढ़ जाती है। जब रफ़ाल सौदे को लेकर वार्ता, कारगिल युद्ध के बाद से शुरू हुई हो और पिछली कई सरकारों के कार्यकाल के दौरान इस पर काम हुआ हो, उसमें हड़बड़ी में ‘ऑफ-सेट पार्टनर’ का चुना जाना, जहाज का दाम एकाएक बढ़ जाना और भारतीय वायु सेना द्वारा वर्षों से की जा रही 126 जहाज की मांग को दबाकर उसकी कमर तोडना, कई अहम् सवाल खड़े करता है। जैसा की हम सभी जानते हैं कि सरकारी भ्रष्टाचार कोई सामान्य तरीके से नहीं होता, उसमें कई परतें होती हैं और हर परत में कुछ न कुछ राज़ जरूर छिपे होते हैं, जिसे उजागर करने के लिए सिर्फ संस्थानों की मौजूदगी ज़रूरी नहीं है, बल्कि उन संस्थानों में उस स्तर की हिम्मत और उतनी आज़ादी का होना भी आवश्यक है, जिससे वे बेबाक होकर इसकी जाँच कर सकें। अभी की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट भले ही एक आज़ाद संस्थान है लेकिन इस तरह के फैसले के बाद उसकी इच्छाशक्ति पर सवाल उठना लाज़मी है।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। सहारा-बिरला डायरी मामले में भी, भाजपा-कांग्रेस के कई बड़े नेताओं एवं मंत्रियों का नाम सामने आया था, और सीबीआई जांच के दौरान की गयी रेड में पाए गए दस्तावेजों ने इसका साफ़ सबूत दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे संवेदनशील मामलों में भी जांच करवाना ज़रूरी नहीं समझा। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री कलिखो पुल ने भी आत्महत्या से पहले “मेरा सफ़र” नामक डायरी में न्यायपालिका और सरकारी तन्त्र की धांधली को उजागर किया था। उस पर भी सुप्रीम कोर्ट का व्यवहार, न्याय दिलाने के कर्तव्य को पूरा करता नहीं दिखा। ऐसे कई वाकयों से सवाल उठता है कि क्या किसी मामले का सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो जाना, उस मामले की जांच के दरवाजे को बंद करदेता है? जैसे 2G घोटाले में भी एक स्पेशल सीबीआई कोर्ट ने आरोपित लोगों को बरी कर दिया था, तो क्या इसका ये मतलब समझा जाए कि 2G घोटाला कभी हुआ ही नहीं था। हमें यह समझने की ज़रूरत है कि भ्रष्टाचार खुद में इतना बड़ा दानव है, जिसका मुकाबला देश के सर्वोच्च संस्थान भी अपनी सीमा की वजह से नहीं कर पाते, वैसे ही सुप्रीम कोर्ट की भी एक सीमा है - 'न्यायिक पुनरावलोकन’। हालांकि इस केस में याचिकाकर्ता, प्रशांत भूषण ने कहा है कि वे पुनरीक्षण याचिका दायर कर कर सकते हैं, ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को गौर से देखने की ज़रूरत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में ‘जगदीश मंडल ब. ओडिशा सरकार और अन्य’(पारा 7) के मामले के साथ अन्य फैसलों और जॉन एल्डर एवं ग्राहम एल्डस की किताब (पारा 10) का हवाला देते हुए कहा है, कारोबार-व्यवसाय या राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े रक्षा सौदों के मामलों में प्रशासनिक फैसलों पर न्यायिक हस्तक्षेप की अपनी एक सीमा होती है। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय लेने की प्रक्रिया, दाम और ‘ऑफ़-सेट’ पार्टनर-चयन; इन तीन मसलों पर बहुत संकुचित तरीके से अपना फैसला दिया है। निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोर्ट ने इसलिए दखल देना उचित नहीं समझा क्योंकि रक्षा ख़रीद नीति की धारा 72, सरकार को ज्यादा देर होने पर एक अलग समझौता करने की अनुमति देती है।
वहीँ पैरा 51 (डीपीपी 2013) यह अनिवार्य करता है कि किसी भी बाहरी समझौते से पहले, किसी भी स्थिति में Contract Negotiation Committee (CNC) को एक सतहे एवं वाजिब दाम को अपनी मीटिंग में तय करना होगा। डिफेंस सर्विस के वित्तीय सलाहाकार, सुधांशु मोहंती (अक्टूबर 2015- मई 2016), जिनके कार्यकाल में 36 विमानों का समझौता हुआ था, वो कहते हैं कि फ़्रांस ने जो आश्वासन की चिट्ठी (letter of comfort) दी है, वह कोई कम्फर्ट (आराम) नहीं देती है। ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकार ने यह माना था कि फ़्रांस ने इस समझौते में कोई ‘सरकारी आश्वासन’ (soverign guarantee) नहीं दिया है। इसका मतलब यह है कि अगर डील पूरी नहीं होती है तो उसकी भरपाई करने का या उसे अंतराष्ट्रीय स्तर पर चुनौती देने के लिए भारत के पास कोई मजबूत रास्ता नहीं है। इसके बचाव में सरकारी वकील ने कहा था कि फ़्रांस से उन्हें बस आश्वासन की चिट्टी (letter of comfort) मिली है।
लेखक रवि नायर ने नवंबर महीने में और कारवां पत्रिका के राजनीतिक संपादक, हरतोष सिंह बल ने हाल में प्रकाशित हुए अपने एक लेख में लिखा है कि दाम और प्रक्रिया के पेंच को सुलझाने के लिए Indian Negotiation Team (INT) का गठन हुआ जिसकी कुल 74 बैठकें हुई। इन बैठकों में रक्षा मंत्रालय के कॉस्ट सलाहकार, एमपी सिंह ने इसकी मूल क़ीमत (base price) 5.2 अरब यूरो बताई थी और उनके दो साथी, राजीव वर्मा (Joint Secretary and Acquisition Manager) और अनिल सुले (वित्तीय प्रबंधक) ने इस कीमत पर मुहर लगायी थी। INT के अध्यक्ष, राकेश कुमार सिंह भदौरिया ने इस पर अपनी असहमति जाहिर की थी। ये मसला INT में सुलझ नहीं पाया और इन सभी अफसरों को या तो छुट्टी पर भेज दिया गया या उनका तबादला हो गया।
28 मार्च 2015 को दसौ (Dassault) के प्रमुख, एरिक ट्रैपियर ने कहा कि रफ़ाल समझौता एक बहुत ज़रूरी कदम है और इसमें हिंदुस्तान एरनॉटिकल्स लिमिटेड (HAL) उनके साथ है। नया समझौता होने से दो दिन पहले तक भारत के विदेश सचिव ने बताया कि समझौते की प्रक्रिया जारी है और HAL उसका हिस्सा है। अनिल अंबानी ने अपनी कंपनी की स्थापना, पुराने सौदे के रद्द होने से सिर्फ 12 दिन पहले की थी। तो क्या वाकई वे इतने दूरदर्शी थे?
सुधांशु मोहंती ये भी बताते हैं कि जिस तरह रक्षा ख़रीद परिषद (Defence Acquisition Council-DAC) ने इस पूरे मामले पर ग़ौर किए बिना, इसे रक्षा मामले की मंत्रिमंडलीय समिति (CCA) को सौंप दिया, वह चौंकाने वाला कदम था। प्रक्रिया की बात करें तो सवाल यह भी है कि जब दसौ के प्रमुख, एरिक ट्रैपियर ने 28 मार्च 2015 को कहा था कि 126 विमानों की ख़रीद के लिए समझौता 95% पूरा हो गया है तो डीपीपी की धारा 72 का इस्तेमाल करने की ज़रूरत सरकार को क्यूँ पड़ी? साथ ही तत्कालीन रक्षा मंत्री, मनोहर पर्रिकर और विदेश सचिव, जयशंकर का इस प्रक्रिया में शामिल न होना अजीब संदेह पैदा करता है, जो कि जांच का विषय था लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस मसले को भी अपनी सीमाओं के कारण अनदेखा किया।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सिर्फ यह बताया है कि 36 विमानों की खरीद से देश को फायदा हुआ है लेकिन रक्षा मामलों के विशेषज्ञ, अजय शुक्ल के हिसाब से यह समझौता भारत के लिए 40% ज़्यादा महंगा है। सरकार के इस दाम वाले मसले पर जवाब के बाद सुप्रीम कोर्ट वापस अपने उसी मुद्रा में चला जाता है जहाँ वह दाम को लेकर कोई दखल नहीं देना चाहता है। ज्ञात हो कि सरकार ने ये सभी जवाब, सुप्रीम कोर्ट में किसी प्रकार के हलफ़नामे में नहीं दिया है। इसका मतलब साफ़ है कि सरकार ने जो जानकारी दी है उसकी कोई ज़िम्मेदारी उसने नहीं ली है।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पूरे मसले को एक और प्रकार से समझने में गलती कर दी। यह जो सौदा हुआ है वो अनिल अंबानी की कंपनी के साथ हुआ है, यह हमें पता होना चाहिए कि अनिल अंबानी की कंपनी का रक्षा क्षेत्र में कोई पूर्व तजुर्बा नहीं है और अनिल अंबानी स्वयं कर्ज में डूबे हुए हैं.
रक्षा ख़रीद नीति (डीपीपी) के बिंदु 8.6 में यह साफ़ लिखा है कि ‘ऑफ़सेट पार्टनर’ के लिए आवेदन को, एक्वीजीशन मैनेजर द्वारा पास होने के बाद, रक्षा मंत्री का अनुमोदन मिलना चाहिए, चाहे उसकी कुछ भी कीमत हो या उस पार्टनर को कैसे भी चुना गया हो। सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान सरकारी वकील, वेणुगोपाल ने कहा की यह प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही रक्षा मंत्री की सहमति ले ली गई थी। इससे सवाल यह उठता है कि बिना रक्षा मंत्री की सहमति के, भारत सरकार इस समझौते के साथ आगे कैसे बढ़ी? और अगर यह समझौता बाद में हुआ तो सहमती पहले कैसे ली गयी? सुप्रीम कोर्ट के जजों को इन सभी सवालों पर गौर फरमाना चाहिए था।
दाम के मामले में सीमित दखलअंदाज़ी के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले के पैरा 25 में यह कह दिया कि वायु सेना के मार्शल या प्रमुख ने दामों को लेकर कुछ भी बताने से खुद को रोका है, जबकि सुप्रीम कोर्ट में बहस के वक़्त हमारे न्यायधीशों ने वायु सेना के दो सीनियर अफसरों को बुलाया था जिसमें दो एयर मार्शल मौजूद थे और उन्होंने दामों के अंतर को छोड़ कर रफ़ाल विमान की जानकारी ली थी। यह सवाल भी अनुत्तरित है कि रफ़ाल और वायु सेना की जरूरत को लेकर सीमित सवालों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने इसे दाम से कैसे जोड़ दिया?
रफ़ाल विमान की विशेषता और उसे गुप्त रखने की ज़रूरत पर हमारे रक्षा मंत्री के दावे बिलकुल खोखले नज़र आते हैं। ऐमज़ॉन प्राइम पर रफ़ाल विमान पर बनी पूरी फिल्म मौजूद है जिसको आम नागरिकों के साथ-साथ सभी देशों के रक्षा विशेषज्ञ भी देख सकते हैं। ऐसा कोई राज़ शायद ही छूटा हो जिसका जिक्र उस फिल्म में नहीं हुआ है। राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर रफ़ाल सौदे के ब्यौरे को गुप्ता रखना, सेना ही नहीं बल्कि देश की जनता के साथ भी भद्दा मजाक है।
सीएजी रिपोर्ट और पीएसी का चक्रव्यूह :
अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पैरा 25 में सरकारी जवाब के आधार पर आश्चर्यजनक तथ्य दिए हैं। कोर्ट ने कहा है कि दामों की जानकारी, सीएजी (CAG) के साथ साझा की जा चुकी है। साथ ही, सीएजी ने अपनी रिपोर्ट को, परीक्षण के उद्देश्य से पब्लिक एकाउंट्स कमिटी (पीएसी) को भेजा है। पीएसी ने रिपोर्ट का एक भाग (रेडाक्टड वर्जन) संसद में दिया है और वो रिपोर्ट सामान्य नागरिकों के लिए उपलब्ध है।
संसदीय प्रक्रियाओं के ज्ञानी और अनुभवी लोगों का मानना है कि सीएजी कभी किसी जानकारी को गुप्त रखने के लिए, रिपोर्ट के सिर्फ कुछ गिने चुने भागों को प्रकाशित नहीं करते हैं। वो पूरी रिपोर्ट को संसद के माध्यम से देश के लिए उपलब्ध करवाते हैं। लोक सभा के पूर्व सचिव, पी.डी.टी. आचार्य ने इस बात की पुष्टि करते हुए कहा है कि संविधान ऐसी किसी प्रक्रिया की इजाजत नहीं देता है।
13 नवंबर 2018 को 60 रिटायर नौकरशाहों या कहें सरकारी अफसरों ने सीएजी को एक चिट्ठी लिखी और राफेल डील पर सीएजी रिपोर्ट न आने पर अपनी नाराजगी जाहिर की थी, उन्होंने सीएजी पर सवाल उठाते हुए कहा कि कहीं वे सरकार को बचाने के लिए रिपोर्ट पेश करने में देरी तो नहीं कर रहे हैं। 14 नवंबर को सीएजी ऑफिस के अफसरों ने ये साफ़ किया कि वे राफेल सौदे की रिपोर्ट, संसद के शीतकालीन सत्र में देंगे। अभी तक ऐसी किसी भी सीएजी रिपोर्ट की जानकारी किसी पत्रकार या किसी नेता को नहीं है।
संसद में विपक्षी दल के नेता, मल्लिकार्जुन खड्गे ने प्रेस कांफ्रेंस कर कहा है कि वे खुद पीएसी (पीएसी) के अध्यक्ष हैं, जिसे सरकार के दावे के अनुसार, सीएजी ने रिपोर्ट भेज दिया है। हालाँकि उन्होंने ऐसी किसी भी रिपोर्ट की जानकारी से इंकार किया है।
हालांकि, इसके बाद भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने अपनी मुद्रण की गलती को स्वीकार किया है और कहा है कि सीएजी ने अभी तक कोई रिपोर्ट नहीं दी है, और सरकार द्वारा लेखन त्रुटि के चलते ऐसा लगा कि रिपोर्ट पेश की जा चुकी है।
(ऋषव रंजन लॉयड लॉ कॉलेज में कानून के विद्यार्थी हैं और यूथ फॉर स्वराज के राष्ट्रिय महासचिव हैं | लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं)