अनुशासनात्मक कार्रवाई में दंड लगाना पूर्णतया नियोक्ता पर निर्भर करता है : सुप्रीम कोर्ट [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-12-03 18:40 GMT

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी अनुशासनात्मक कार्रवाई में कितना दंड लगाया जाए यह पूरी तरह नियोक्ता पर निर्भर करता है और कोर्ट तबतक इसमें दखलंदाजी नहीं दे सकता जब तक कि उसको ये ना लगे की जो दंड सुनाया गया है वह अत्यंत ही कठोर है।

तमिलनाडु बनाम एम मंगायारकरासी मामले में हाईकोर्ट ने दो कर्मचारियों को दी गई सज़ा में दख़ल दिया था यह कहते हुए की इनकी ग़लती की तुलना में सज़ा ग़ैर आनुपातिक है। हालाँकि, राज्य ने कहा कि इन दोनों कर्मचारियों की फ़र्ज़ी बिलों के कारण जो घाटे हुए वह दूसरे कर्मचारियों की तुलना में कहीं अधिक है जबकि उन लोगों की तुलना में इन्हें सिर्फ़ इनका इंक्रीमेंट रोकने की मामूली सज़ा ही दी गई है। कोर्ट ने कहा कि वह सिर्फ़ कर्मचारियों पर लगाए गए आरोपों पर ग़ौर करेगा ना कि इनको दी गई सज़ा पर।

इस बात से असहमत होते हुए न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और एमआर शाह की पीठ ने कहा कि कोर्ट को इन दोनों कर्मचारियों के अपराध की गम्भीरता को देखना चाहिए था जो कि अन्य कर्मचारियों के ख़िलाफ़ लगाए आरोपों से ज़्यादा संगीन हैं।

“कर्तव्यों में कोताही और इसके परिणाम महत्त्वपूर्ण बातें हैं जिस पर अनुशासनात्मक समिति को को ग़ौर करना उचित था”, पीठ ने कहा।

कोर्ट ने हाईकोर्ट के दृष्टिकोण को ग़लत कहा जिसने अनुशासनात्मक समिति द्वारा लगाए दंड को बदल दिया जिसे यह अदालत सही और उचित मानता है। “अनुशासनात्मक कार्रवाई में दंड लगाना पूरी तरह नियोक्ता का अधिकार है। बशर्ते कि ऐसा कोई दंड ना लगाया गया हो जो स्तब्धकारी हो और जुर्म की तुलना में ग़ैर आनुपातिक हों। जब तक ऐसा नहि है, कोर्ट इस मामले में दख़ल नहीं दे सकता,” पीठ ने कहा।

अपनी इस राय के साथ पीठ ने इस मामले को वापस पुनर्विचार के लिए भेज दिया।


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