इलाहाबाद हाईकोर्ट ने "Stressed Asset" का मामला सुलझाने के लिए आरबीआई के संशोधित फ्रेमवर्क से निजी बिजली परियोजनाओं को राहत देने से मना किया [निर्णय पढ़ें]
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सोमवार को निजी बिजली परियोजनाओं को आरबीआई के सर्कुलर के तहत कोई भी राहत देने से मना कर दिया। आरबीआई ने यह सर्कुलर जारी कर ऋण लेने वालों को इसे लौटाने के लिए 180 दिनों का वक़्त दिया था जो सोमवार को समाप्त हो गया।
मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डीबी भोसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की पीठ ने अपने फैसले में कहा, “।।।मैं समझता हूँ कि बैंकिंग क्षेत्र की जो हालत है ।।।उसको देखते हुए याचिकाकर्ता अंतरिम राहत के लायक है।”
कोर्ट ने अब केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह आरबीआई अधिनियम की धारा 7 के तहत मामले पर परामर्श की प्रक्रिया शुरू कर दे और इसे 15 दिनों के भीतर संपन्न करे। धारा 7 में परामर्श प्रक्रिया का प्रावधान है अगर उचित अधिकारी यह समझता है कि नीति में कुछ बदलाव करने की जरूरत है तो।
विभिन्न दावेदारों की चिंताओं को देखते हुए उच्चाधिकार प्राप्त समिति को भी कहा गया है कि समिति के गठन के दो महीनों के भीतर वे अपनी रिपोर्ट भेज दें।
कोर्ट ने हालांकि स्पष्ट किया कि यह आदेश वित्तीय ऋण देने वालों के अधिकार कोइंसोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) की धारा 7 के तहत कम नहीं करेगा।
यह आदेश इंडिपेंडेंट पॉवर प्रोड्यूसर्स (आईपीपीए), एसोसिएशन ऑफ़ पॉवर प्रोड्यूसर्स और प्रयागराज पॉवर जनरेशन कंपनी लिमिटेड प्रोड्यूसर्स द्वारा 12 फरवरी को जारी आरबीआई के सर्कुलर को चुनौती के खिलाफ याचिका पर दिया गया जिसमें कहा गया था कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 19 के खिलाफ है।
आरबीआई ने अपने सर्कुलर में कहा था कि अगर बैंक का ऋण चुकाने में एक दिन की भी देरी होती है तो बैंक उस व्यक्ति को डिफाल्टर माने और उसको 180 दिनों के भीतर भुगतान का प्रस्ताव रखने को कहे। इस अवधि के भीतर अगर वह कोई प्रस्ताव पेश नहीं करता है तो डिफ़ॉल्ट करने वाली कंपनी को इंसोल्वेंसी कोर्ट में भेज दिया जाएगा क्योंकि आरबीआई ने सीडीआर,एसडीआर, एस4ए और जेएलएफ सबको ख़त्म कर दिया है।
याचिकाकर्ताओं का कहना था कि वे सही लोग हैं और जिन कारणों से वे ऋण नहीं लौटा पाए वह कारण उनके नियंत्रण के बाहर था। इसमें प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में सरकार की मदद का नहीं मिलना, पीपीए मदद आदि शामिल हैं। इसके लिए उन्होंने ऊर्जा पर संसद की 31 सदस्यीय समिति की रिपोर्ट पर भरोसा किया।
कोर्ट ने कहा, “...ऐसा लगता है कि इसको आवश्यक रूप से...स्ट्रेस्ड एसेट से निपटने के लिए तैयार किया गया है...इसका प्राथमिक उद्देश्य स्ट्रेस्ड एसेट की समस्या से शीघ्रता से निपटने के लिए लाया गया है”।
बैंकों से यह स्वीकार करने की उम्मीद नहीं की जाती कि जब डिफ़ॉल्ट का मामला सामना आया है तो प्रस्ताव की प्रकिया को शुरू नहीं किया जाएगा। यह भी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि यह किसी बैंक की इच्छा पर निर्भर करता है कि वो चाहे तो आईबीसी के प्रावधानों की शरण में जाए या न जाए इसके बावजूद कि आरबीआई ने इस बारे में सर्कुलर जारी किया है।
यह भी कहा गया कि याचिकाकर्ता इस बारे में पुख्ता सबूत नहीं पेश कर पाए हैं कि उनके खिलाफ विद्वेष का मामला साबित हो सके और इस तरह वे अंतरिम राहत प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकते।
“इस तरह के स्थिति में कोर्ट को बहुत ही सावधानी से कदम उठाना चाहिए और ‘न्यायिक मर्यादा’ और ‘संस्थागत सक्षमता’ के सिद्धांत को ध्यान में रखा जाना चाहिए। अंततः प्रतिस्पर्धी आर्थिक कारकों को तौलने का प्रश्न, और किस तरह के वित्तीय कदम उठाए जाने चाहिएं इन बातों में हल्के तरीके से हस्तक्षेप अवश्य ही नहीं की जानी चाहिए बशर्ते कि यह स्थापित हो कि यह स्पष्ट रूप से मनमाना है,” कोर्ट ने कहा।
हालांकि, कोर्ट ने केंद्र सरकार के विचारों और आरबीआई के मंतव्यों के बीच विरोधाभास होने की बात की भी चर्चा की। आरबीआई ने स्थाई समिति की रिपोर्ट में दिए गए सुझावों से अपनी असहमति जाहिर की और केंद्र ने कहा है कि सेक्टर (ऊर्जा) विशेष के मामलों का ध्यान रखते हुए यह वांछनीय है कि सर्कुलर में जिस समय सीमा की बात की गई है उसे 27 अगस्त 2018 से 180 दिन बीत जाने के बाद प्रभावी करना चाहिए और पक्षकारों द्वारा अगला कदम मंत्रिमंडल सचिव की अध्यक्षता में उच्चाधिकार प्राप्त समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही उठानी चाहिए।