केरल हाईकोर्ट ने मां की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर गौर करने से इंकार किया; कहा, किसी ट्रांसजेंडर को अपनी मनपसंद के लोगों के साथ जुड़ने का अधिकार है [निर्णय पढ़ें]

Update: 2018-06-12 14:30 GMT

एलजीबीटीक्यू समुदायों को प्रभावित करने वाले एक महत्त्वपूर्ण फैसले में केरल हाईकोर्ट ने  गत सप्ताह एक ट्रांसजेंडर की मां की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि किसी ट्रांसजेंडर को अपने पसंद के लोगों के साथ जुड़ने का अधिकार है और उसको अपने मां-बाप के पास रहने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता जैसा कि उसकी मां  ने मांग की है।

यह फैसला न्यायमूर्ति वी चितम्बरेश और न्यायमूर्ति केपी ज्योतिन्द्रनाथ  की पीठ ने सुनाया।

ट्रांसजेंडर व्यक्ति की मां ने कोर्ट में अर्जी दाखिल की थी कि उसके बेटे को ट्रांसजेंडर समुदाय के कुछ लोगों ने अपने कब्जे में कर लिया है और वह मानसिक गड़बड़ी का शिकार है। मां ने आगे कहा था कि उसके  बेटे ने अपना नाम बदलकर अरुंधती रख लिया है और वह ट्रांसजेंडर लोगों के साथ घूमता है और उसको डर है कि उसका शारीरिक दोहन और अंग प्रत्यारोपण होने की आशंका है।

दूसरी ओर  उसका बेटा कोर्ट के समक्ष महिलाओं के वेष में पेश हुआ और कहा कि वह एक ट्रांसजेंडर है और उसको कोई मानसिक बीमारी नहीं है। हालांकि मां ने कोर्ट से कहा कि उसका मानसिक इलाज चल रहा था और उसकी चिकित्सकीय जांच की मांग की।

उसकी मांग को मानते हुए कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने के बाद कि यह न्यायिक क्षेत्राधिकार का उल्लंघन नहीं होगा, उसके बेटे के चिकित्सकीय जांच के आदेश दिए। मेडिकल रिपोर्ट में कहा गया कि उसको कोई मानसिक परेशानी नहीं है।

इसके बाद कोर्ट ने कहा ट्रांसजेंडर को पहचान का संकट है और ओथेलो में शेक्सपियर को उद्धृत करते हुए कहा : “मैं वो नहीं हूँ जो मैं हूँ।”

कोर्ट ने आगे कहा कि इस व्यक्ति के साथ अपने संवाद में कोर्ट को उसके हाव भाव से पता चल गया कि यह व्यक्ति ट्रांसजेंडर है। उसकी मेडिकल रिपोर्ट भी इस बात की तस्दीक करती है।

इसके बाद कोर्ट ने नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी बनाम भारत संघ (2014) 5 SCC 438, मामले का जिक्र किया जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया था कि वह ट्रांसजेंडर को तीसरे जेंडर के रूप में स्वीकार करे और उसको सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग की सहूलियत दे।

कोर्ट ने इसके बाद मां  की याचिका निरस्त कर दी।


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